हठयोगप्रदीपिका - भाग ३
मुद्रा
१. जिस प्रकार भगवान अनन्त नाग पर ही यह संपूर्ण संसार टिका हुआ है, उसी प्रकार सभी तन्त्र (योग क्रियायें) भी कुण्डली पर टिकी हैं।
२. जब गुरु की कृपा से सोती हुई कुण्डली शक्ति जागती है, तब सभी कमल (छे चक्र) और गन्ठियां भिन्न हैं।
३. सुशुम्न नाडी प्राण का मुख्य पथ बनती है, और मन तब सभी संगों और विचारों से मुक्त हो जाता है, तथा मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है।
४. सुशुम्न, शुन्य पदवी, ब्रह्म रन्ध्रा, महापथ, स्मासन, संभवी, मध्य मार्ग - यह सब एक ही वस्तु के नाम हैं।
५. इसलिये, इस कुण्डली देवी को जगाने के लिये, जो ब्रह्म द्वारा पर सो रही है, मुद्राओं का अभ्यास करना चाहिये।
मुद्रा
१. दस मुद्रायें हैं जो जरा और मृत्यु का विनाश करती हैं। ये हैं महा मुद्रा, महा बन्ध, महा वेध, केचरी, उद्दियान बन्ध, मूल बन्ध, जल्न्धर बन्ध, विपरीत करनी, विज्रोली, शक्ति चलन।
२. इनका भगवान आदि नाथ (शिवजी) नें वर्णन किया है और इन से आठों प्रकार की दैविक सम्पत्तियाँ प्राप्त होती है। सभी सिद्धगण इन्हें मानते हैं, और ये मारुतों के लिया भी प्राप्त करनी कठिन हैं।
३. इन मुद्राओं को हर ठंग से रहस्य रखना चाहिये, जैसे कोई अपना सोने की तिजोरी रखता है, और कभी भी किसी भी कारण से किसी को नहीं बताना चाहिये जैसे पति और पत्नि आपनी आपस की बातें छुपाते हैं।
महा मुद्रा
१. योनि (perineum) को अपने left पैर का एडी से दबाते हुये, और right पैर को आगे फैला कर उसकी उंगलीयों को अपने अंगूठे और पहली उंगली से पकड कर बैठें।
२. साँस अन्दर लेने के बाद जलन्धर बन्ध (Jalandhara Bandha) द्वारा वायु को नीचे की ओर धकेलें। जैसे साँप सोटी की मार से सोटी की तरह सीधा हो जाता है उसी प्रकार शक्ति (कुण्डली) भी इस से सीधी हो जाती है। तब कुण्डली ईद और पिंगल नाडीयों को त्याग कर सुशुमन (मध्य मार्ग) में प्रवेश करती है।
३. फिर वायु को धीरे धीरे धोडना चाहिये, जोर से नहीं। इसी कारण से इसे बुद्धिमान लोगों ने महामुद्रा कहा है। महा मुद्रा का प्रचार महान ऋषियों ने किया है।
४. महान कष्ट जैसे मृत्यु इस से नष्ट होते हैं, और इसी कारण से इसे महा मुद्रा कहा गया है।
५. इसे left nostril से करने के बाद, फिर right नासिका से करना चाहिये और जब दोनो तरफ का अंग बराबर हो तभी इसे बंद करना चाहिये।
६. इसमें सिद्ध होने के बाद कुछ भी खतरनाख या हानिकारक नहीं है क्योंकि इस मुद्रा के अभ्यास से सभी रसों के हानिकारक तत्वों का अन्त हो जाता है। जहरीले से जहरीला जहर भी शहद जैसे असर करता है।
७. भूख न लगना, leprosy, prolapsus anii, colic, and और बदहजमी के रोग,-- यह सब रोग इस महामुद्रा के अभ्यास से दूर हो जाते हैं।
८. यह महा मुद्रा महान सफलता दायक बताई गई है। इसे हर प्रयास से रहस्य ही रखना चाहिये और कभी भी किसी को भी बताना नहीं चाहिये।
महा बंध
१. अपनी left ऐडी को अपने नीचे दबा कर (perineum के साथ दबा कर) अपने right foot को अपने left thigh पर रखें।
२. फिर साँस अन्दर ले कर, अपनी ठोडी को अच्छे से छाती पर दबा कर, और इस प्रकार वायु को दबा कर, मन को eyebrows के मध्य में स्थापित करें।
३. इस प्रकार जब तक संभव हो वायु को रोक कर, फिर धीरे धीरे निकालें। इसे left side पर करने के बाद फिर right तरफ करें।
४. कुछ मानते हैं की गले का बंद करना जरूरी नहीं है, क्योंकि जीहवा को अपने ऊपर के दाँतों की जड़ के against अच्छे से दबा कर रखा जाये, तब भी अच्छा बन्ध बनता है।
५. इस बन्ध सो सभी नाडीयों में ऊपर की ओर का प्रवाह रुकता है। यह मुद्रा महान सफलता देने वाली है।
६. यह महा बन्ध मृत्यु को काटने का सबसे होनहार उपकरण है। इस से त्रिवेणी उत्पन्न होती है (conjunction of the Triveni (Ida, Pingala and Susumna)) और मन केदार को जाता है (eyebrows के मध्य का स्थान, भगवान शिव का स्थान)।
७. जैसे सौन्दर्य और सौम्यता एक नारी को बेकार हैं यदि उस का पति न हो, उसी प्रकार महा मुद्रा और महा बन्ध बेकार हैं महा वेध के।
महा वेध
१. महा बन्ध में बैठ कर, योगी को वायु भर कर अपने मन को बाँध कर रखना चाहिये। गले को बंद करने द्वारा वायु प्रवाह (प्राण और अपान) को रोकना चाहिये।
२. दोनो हाथों को बराबर धरती पर रख कर, उसे स्वयं को जरा सा उठाना चाहिये और फिर अपने buttocks को धरती पर आयसते से मारना चाहिये। ऐसा करने से वायु दोनो नाडीयों को छोड कर बीच का नाडी में प्रवेश करती है।
३. इस प्रवेश को ईद और पिंगल का मिलन कहते हैं, जिस से अमरता प्राप्त होती है। जब वायु ऐसे हो जाये मानो मर गई है (हलचल हीन हो जाये) तो उसे निकाल देना चाहिये।
४. इस महा वेध का अभ्यास, महान सिद्धियाँ देने वाला है, जरा का अन्त करता है, सफेद बाल, शरीर का काँपना - इन का अन्त करता है। इसलिये, महान योगी जन इसका सेवन करते हैं।
५. यह तीनों (मुद्रायें) ही महान रहस्य हैं। यह जरा और मृत्यु के नाशक हैं, भूख बढाते हैं, और दैविक शक्तियां प्रदान करते हैं।
६. इन्हें आठों प्रकार से अभ्यास करना चाहिये - हर रोज। इन से पुण्य कोश बढता है और पाप कम होते हैं। मनुष्य को, अच्छे से सीख कर धीरे धीरे इन्का अभ्यास बढाना चाहिये।