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तीसरा अध्याय / बयान 1

वह नाजुक औरत जिसके हाथ में किताब है और जो सब औरतों के आगे-आगे आ रही है, कौन और कहां की रहने वाली है जब तक यह न मालूम हो जाय तब तक हम उसको वनकन्या के नाम से लिखेंगे।

धीरे-धीरे चलकर वनकन्या जब उन पेड़ों के पास पहुंची जिधर आड़ में कुंअर वीरेन्द्रसिंह और फतहसिंह छिपे खड़े थे, तो ठहर गई और पीछे फिर के देखा। इसके साथ एक और जवान, नाजुक तथा चंचल औरत अपने हाथ में एक तस्वीर लिए हुए चल रही थी जो वनकन्या को अपनी तरफ देखते देख आगे बढ़ आई। वनकन्या ने अपनी किताब उसके हाथ में दे दी और तस्वीर उससे ले ली।

तस्वीर की तरफ देख लंबी सांस ली, साथ ही आंखें डबडबा आईं, बल्कि कई बूंद आंसुओं की भी गिर पड़ीं। इस बीच में कुमार की निगाह भी उसी तस्वीर पर जा पड़ी, एकटक देखते रहे और जब वनकन्या बहुत दूर निकल गई तब फतहसिंह से बातचीत करने लगे।

कुमार-क्यों फतहसिंह, यह कौन है कुछ जानते हो?

फतहसिंह-मैं कुछ भी नहीं जानता मगर इतना कह सकता हूं कि किसी राजा की लड़की है।

कुमार-यह किताब जो इसके हाथ में है जरूर वही है जो मुझको तिलिस्म से मिली थी, जिसको शिवदत्त के ऐयारों ने चुराया था, जिसके लिए तेजसिंह और बद्रीनाथ में बदाबदी हुई और जिसकी खोज में हमारे ऐयार लगे हुए हैं!

फतहसिंह-मगर फिर वह किताब इसके हाथ कैसे लगी?

कुमार-इसका तो ताज्जुब हई है मगर इससे भी ज्यादे ताज्जुब की एक बात और है, शायद तुमने ख्याल नहीं किया।

फतह-नहीं, वह क्या?

कुमार-वह तस्वीर भी मेरी ही है जिसको बगल वाली औरत के हाथ से उसने लिया था।

फतह-यह तो आपने और भी आश्चर्य की बात सुनाई।

कुमार-मैं तो अजब हैरानी में पड़ा हूं, कुछ समझ ही नहीं आता कि क्या मामला है। अच्छा चलो पीछे-पीछे देखें ये सब जाती कहां हैं।

फतह-चलिए।

कुमार और फतहसिंह उसी तरफ चले जिधर वे औरतें गई थीं। थोड़ी ही दूर गये होंगे कि पीछे से किसी ने आवाज दी। फिर के देखा तो तेजसिंह पर नजर पड़ी। ठहर गये, जब पास पहुंचे उन्हें घबराये हुए और बदहवास देखकर पूछा, “क्यों क्या है जो ऐसी सूरत बनाए हो?”

तेजसिंह ने कहा, “है क्या, बस हम आपसे जिंदगी भर के लिए जुदा होते हैं।” इससे ज्यादे न बोल सके, गला भर आया। आंखों से आंसुओं की बूंदें टपाटप गिरने लगीं। तेजसिंह की अधूरी बात सुन और उनकी ऐसी हालत देख कुमार भी बेचैन हो गये मगर यह कुछ भी न जान पड़ा कि तेजसिंह के इस तरह बेदिल होने का क्या सबब है।

फतहसिंह से इनकी यह दशा देखी न गई। अपने रूमाल से दोनों की आंखें पोंछीं, इसके बाद तेजसिंह से पूछा, “आपकी ऐसी हालत क्यों हो रही है, कुछ मुंह से तो कहिए। क्या सबब है जो जन्म भर के लिए आप कुमार से जुदा होंगे?” तेजसिंह ने अपने को सम्हालकर कहा-

“तिलिस्मी किताब हम लोगों के हाथ न लगी और न मिलने की कोई उम्मीद है इसलिए अपने कौल पर सिर मुड़ा के निकल जाना पड़ेगा।”

इसका जवाब कुंअर वीरेन्द्रसिंह और फतहसिंह कुछ दिया ही चाहते थे कि देवीसिंह और पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी भी घूमते हुए आ पहुंचे। ज्योतिषीजी ने पुकारकर कहा, “तेजसिंह, घबराइए मत, अगर आपको किताब न मिली तो उन लोगों के पास भी न रही, जो मैंने पहले कहा था वही हुआ, उस किताब को कोई तीसरा ही ले गया।”

अब तेजसिंह का जी कुछ ठिकाने हुआ। कुमार ने कहा, “वाह खूब, आप भी रोये और मुझको भी रुलाया। जिसके हाथ में किताब पहुंची उसे मैंने देखा मगर उसका हाल कहने का कुछ मौका तो मिला नहीं तुम पहले से ही रोने लगे!!” इतना कह के कुमार ने उस तरफ देखा जिधर वे औरतें गई थीं मगर कुछ दिखाई न पड़ा। तेजसिंह ने घबराकर कहा, “आपने किसके हाथ में किताब देखी? वह आदमी कहां है?” कुमार ने जवाब दिया, “मैं क्या बताऊं कहां है, चलो उस तरफ शायद दिखाई दे जाय, हाय विपत पर विपत बढ़ती ही जाती है!”

आगे-आगे कुमार तथा पीछे-पीछे तीनों ऐयार और फतहसिंह उस तरफ चले जिधर वे औरतें गई थीं, मगर तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी हैरान थे कि कुमार किसको खोज रहे हैं, वह किताब किसके हाथ लगी है, या जब देखा ही था तो छीन क्यो न लिया! कई दफे चाहा कि कुमार से इन बातों को पूछें मगर उनको घबराए हुए इधर-उधर देखते और लंबी-लंबी सांसें लेते देख तेजसिंह ने कुछ न पूछा। पहर भर तक कुमार ने चारों तरफ खोजा मगर फिर उन औरतों पर निगाह न पड़ी। आखिर आंखें डबडबा आईं और एक पेड़ के नीचे खड़े हो गए।

तेजसिंह ने पूछा, “आप कुछ खुलासा कहिए भी तो कि क्या मामला है?” कुमार ने कहा, “अब इस जगह कुछ न कहेंगे। लश्कर में चलो, फिर जो कुछ है सुन लेना।”

सब कोई लश्कर में पहुंचे। कुमार ने कहा, “पहले तिलिस्मी खंडहर में चलो। देखें बद्रीनाथ की क्या कैफियत है!” यह कहकर खंडहर की तरफ चले, ऐयार सब पीछे-पीछे रवाना हुए। खंडहर के दरवाजे के अंदर पैर रखा ही था कि सामने से पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल वगैरह आते दिखाई पड़े।

कुमार-यह देखो वह लोग इधर ही चले आ रहे हैं! मगर हैं, यह बद्रीनाथ छूट कैसे गये?

तेजसिंह-बड़े ताज्जुब की बात है!

देवीसिंह-कहीं किताब उन लोगों के हाथ तो नहीं लग गई। अगर ऐसा हुआ तो बड़ी मुश्किल होगी।

फतह-इससे निश्चिंत रहो, वह किताब इनके हाथ अब तक नहीं लगी, हां आगे मिल जाय तो मैं नहीं कह सकता, क्योंकि अभी थोड़ी ही देर हुई है वह दूसरे के हाथ में देखी जा चुकी है।

इतने में बद्रीनाथ वगैरह पास आ गये। पन्नालाल ने पुकार के कहा, “क्यों तेजसिंह, अब तो हार गये न!”

तेज-हम क्यों हारे!

बद्री-क्यों नहीं हारे, हम छूट भी गये और किताब भी न दी।

तेज-किताब तो हम पा गये, तुम चाहे आपसे आप छूटो या मेरे छुड़ाने से छूटो! किताब पाना ही हमारा जीतना हो गया, अब तुमको चाहिए कि महाराज शिवदत्त को छोड़कर कुमार के साथ रहो।

बद्री-हमको वह किताब दिखा दो, हम अभी ताबेदारी कबूल करते हैं।

तेज-तो तुम ही क्यों नहीं दिखा देते, जब तुम्हारे पास नहीं तो साबित हो गया कि हम पा गये।

बद्री-बस-बस, हम बेफिक्र हो गये, तुम्हारी बातचीत से मालूम हो गया कि तुमने किताब नहीं पाई और उसे कोई तीसरा ही उड़ा ले गया, अभी तक हम डरे हुए थे।

देवी-फिर आखिर हारा कौन यह भी तो कहो?

बद्री-कोई भी नहीं हारा।

कुमार-अच्छा यह तो कहो तुम छूटे कैसे!

बद्री-बस ईश्वर ने छुड़ा दिया, जानबूझ के कोई तरकीब नहीं की गई। पन्नालाल ने उसके सिर पर एक लकड़ी रखी, उस पत्थर के आदमी ने मुझको छोड़ लकड़ी पकड़ी बस मैं छूट गया। उसके हाथ में वह लकड़ी अभी तक मौजूद है।

कुमार-अच्छा हुआ, दोनों की ही बात रह गई।

बद्री-कुमार, मेरा जी तो चाहता है कि आपके साथ रहूं मगर क्या करूं, नमकहरामी नहीं कर सकता, कोई तो सबब होना चाहिए! अब मुझे आज्ञा हो तो बिदा होऊं।

कुमार-अच्छा जाओ।

ज्यो-अच्छा हमारी तरफ नहीं होते तो न सही मगर ऐयारी तो बंद करो।

तेज-वाह ज्योतिषीजी, आखिर वेदपाठी ही रहे। ऐयारी से क्या डरना? ये लोग जितना जी चाहें जोर लगा लें!

पन्ना-खैर देखा जायगा, अभी तो जाते है, जय माया की!

तेज-जय माया की!

बद्रीनाथ वगैरह वहां से चले गए। फिर कुमार भी तिलिस्म में न गये और अपने डेरे में चले आए। रात को कुमार के डेरे में सब ऐयार और फतहसिंह इकट्ठे हुए। दरबानों को हुक्म दिया कि कोई अंदर न आने पावे। तेजसिंह ने कुमार से पूछा, “अब बताइए किताब किसके हाथ में देखी थी, वह कौन है, और आपने किताब लेने की कोशिश क्यों नहीं की?”

कुमार ने जवाब दिया, “यह तो मैं नहीं जानता कि वह कौन है लेकिन जो भी हो, अगर कुमारी चंद्रकान्ता से बढ़ के नहीं है तो किसी तरह कम भी नहीं है। उसके हुस्न ने उससे किताब छिनने न दिया।”

तेज-(ताज्जुब से) कुमारी चंद्रकान्ता से और उस किताब से क्या संबंधा? खुलासा कहिए तो कुछ मालूम हो।

कुमार-क्या कहें हमारी तो अजब हालत है! (ऊंची सांस लेकर चुप हो रहे)

तेज-आपकी विचित्र ही दशा हो रही है, कुछ समझ में नहीं आता। (फतहसिंह की तरफ देख के) आप तो इनके साथ थे, आप ही खुलासा हाल कहिए, यह तो बारह दफे लंबी सांस लेगे तो डेढ़ बात कहेंगे! जगह-जगह तो इनको इश्क पैदा होता है, एक बला से छूटे नहीं दूसरी खरीदने को तैयार हो गए।”

फतहसिंह ने सब हाल खुलासा कह सुनाया। तेजसिंह बहुत हैरान हुए कि वह कौन थी और उसने कुमार को पहले कब देखा, कब आशिक हुई और तस्वीर कैसे उतरवा मंगाई?

ज्योतिषीजी ने कई दफे रमल फेंका मगर खुलासा हाल मालूम न हो सका, हां इतना कहा कि किसी राजा की लड़की है। आधी रात तक सब कोई बैठे रहे, मगरकोई काम न हुआ, आखिर यह बात ठहरी कि जिस तरह बने उन औरतों को ढूंढना चाहिए।

सब कोई अपने डेरे में आराम करने चले गये। रात भर कुमार को वनकन्या की याद ने सोने न दिया। कभी उसकी भोली-भाली सूरत याद करते, कभी उसकी आंखों से गिरे हुए आंसुओं के ध्यान में डूबे रहते। इसी तरह करवटें बदलते और लंबी सांस लेते रात बीत गई बल्कि घंटा भर दिन चढ़ आया पर कुमार अपने पलंग पर से न उठे।

तेजसिंह ने आकर देखा तो कुमार चादर से मुंह लपेटे पड़े हैं, मुंह की तरफ का बिल्कुल कपड़ा गीला हो रहा है। दिल में समझ गये कि वनकन्या का इश्क पूरे तौर पर असर कर गया है, इस वक्त नसीहत करना भी उचित नहीं। आवाज दी, “आप सोते हैं या जागते हैं?”

कुमार-(मुंह खोलकर) नहीं, जागते तो हैं।

तेज-फिर उठे क्यों नहीं? आप तो रोज सबेरे ही स्नान-पूजा से छुट्टी कर लेते हैं, आज क्या हुआ?

“नहीं कुछ नहीं” कहते हुए कुमार उठ बैठे। जल्दी-जल्दी स्नान से छुट्टी पाकर भोजन किया। तेजसिंह वगैरह इनके पहले ही सब कामों से निश्चित हो चुके थे, उन लोगों ने भी कुछ भोजन कर लिया और उन औरतों को ढूंढने के लिए जंगल में जाने को तैयार हुए। कुमार ने कहा, “हम भी चलेंगे।” सभी ने समझाया कि आप चलकर क्या करेंगे हम लोग पता लगाते हैं, आपके चलने से हमारे काम में हर्ज होगा-मगर कुमार ने कहा, “कोई हर्ज न होगा, हम फतहसिंह को अपने साथ लेते चलते हैं, तुम्हारा जहां जी चाहे घूमना, हम उसके साथ इधर-उधर फिरेंगे।” तेजसिंह ने फिर समझाया कि कहीं शिवदत्त के ऐयार लोग आपको धोखे में न फंसा लें, मगर कुमार ने एक मानी, आखिर लाचार होकर कुमार और फतहसिंह को साथ ले जंगल की तरफ रवाना हुए।

थोड़ी दूर घने जंगल में जाकर उन लोगों को एक जगह बैठाकर तीनों ऐयार अलग-अलग उन औरतों की खोज में रवाना हुए। ऐयारों के चले जाने पर कुंअर वीरेन्द्रसिंह फतहसिंह से बातें करने लगे मगर सिवाय वनकन्या के कोई दूसरा जिक्र कुमार की जुबान पर न था।