सत्रहवां भाग : बयान - 1
हमारे पाठक 'लीला'[1] को भूले न होंगे। तिलिस्मी दारोगा वाले बंगले की बरबादी के पहिले तक इसका नाम आया है जिसके बाद फिर इसका जिक्र नहीं आया।
लीला को जमानिया की खबरदारी पर मुकर्रर करके मायारानी काशी वाले नागर के मकान में चली गई थी और वहां दारोगा के आ जाने पर उसके साथ इन्द्रदेव के यहां चली गई। जब इन्द्रदेव के यहां से भी भाग गई और दारोगा तथा शेरअलीखां की मदद से रोहतासगढ़ के अन्दर घुसने का प्रबन्ध किया गया जैसा कि सन्तति के बारहवें भाग के तेरहवें बयान में लिखा गया है उस समय लीला भी मायारानी के साथ थी मगर रोहतासगढ़ में जाने के पहिले मायारानी ने उसे अपनी हिफाजत का जरिया बनाकर पहाड़ के नीचे ही छोड़ दिया था। मायारानी ने अपना तिलिस्मी तमंचा, जिससे बेहोशी के बारूद की गोली चलाई जाती थी लीला को देकर कह दिया था कि मैं शेरअलीखां की मदद से उन्हीं के भरोसे पर रोहतासगढ़ के अन्दर जाती हूं, मगर ऐयारों के हाथ मेरा गिरफ्तार हो जाना कोई आश्चर्य नहीं क्योंकि वीरेन्द्रसिंह के ऐयार बड़े ही चालक हैं। यद्यपि उनसे बचे रहने की पूरी-पूरी तर्कीब की गई है मगर फिर भी मैं बेफिक्र नहीं रह सकती, अस्तु यह तिलिस्मी तमंचा तू अपने पास रख और इस पहाड़ के नीचे ही रहकर हम लोगों के बारे में टोह लेती रह, अगर हम लोग अपना काम करके राजी-खुशी के साथ लौट आये तब तो कोई बात नहीं, ईश्वर न करे कहीं मैं गिरफ्तार हो गई तो तू मुझे छुड़ाने का बन्दोबस्त कीजियो और इस तमंचे से काम निकालियो। इसमें चलाने वाली गोलियां और वह ताम्रपत्र भी मैं तुझे दिये जाती हूं जिसमें गोली बनाने की तर्कीब लिखी हुई है।
जब दारोगा और शेरअलीखां सहित मायारानी गिरफ्तार हुई और वह खबर शेरअलीखां
के लश्कर में पहुंची जो पहाड़ के नीचे था तो लीला ने भी सब हाल सुना और वह उसी समय वहां से टलकर कहीं छिप रही। फिर भी जब तक राजा वीरेन्द्रसिंह वहां से चुनारगढ़ की तरफ रवाना न हुए वह भी उस इलाके के बाहर न गई और इसी से शिवदत्त और कल्याणसिंह (जो बहुत से आदमियों को लेकर रोहतासगढ़ के तहखाने में घुसे थे) वाला मामला भी उसे बखूबी मालूम हो गया था।
माधवी, मनोरमा और शिवदत्त ने जब ऐयारों की मदद से कल्याणसिंह को छुड़ाया था तो भीमसेन भी उसी के साथ ही छुड़ाया गया मगर भीमसेन कुछ बीमार था इसलिए शिवदत्त के साथ मिल-जुलकर रोहतासगढ़ के तहखाने में न जा सका था। शिवदत्त ने अपने ऐयारों की हिफाजत में उसे शिवदत्तगढ़ भेज दिया था।
सब बखेड़ों से छुट्टी पाकर जब राजा वीरेन्द्रसिंह कैदियों को लिए चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए तो मायारानी को कैद से छुड़ाने की फिक्र में लीला भी भेष बदले हुए उन्हीं के लश्कर के साथ रवाना हुई। लश्कर में नकली किशोरी, कामिनी और कमला के मारे जाने वाला मामला उसके सामने ही हुआ और तब तक उसे अपनी कार्रवाई करने का कोई मौका न मिला मगर जब नकली किशोरी, कामिनी और कमला की दाहक्रिया करके राजा साहब आगे बढ़े और दुश्मनों की तरफ से कुछ बेफिक्र हुए तब लीला को भी अपनी कार्रवाई का मौका मिला और वह उस खेमे के चारों तरफ ज्यादे फेरे लगाने लगी जिसमें मायारानी कैद थी और चालीस आदमी नंगी तलवार लिये बारी-बारी से उसके चारों तरफ पहरा दिया करते थे। एक दिन इत्तिफाक से आंधी-पानी का जोर हो गया और इसी से उस कम्बख्त को अपने काम का अच्छा मौका मिला।
वीरेन्द्रसिंह का लश्कर एक सुहावने जंगल में पड़ा हुआ था। समय बहुत अच्छा था, संध्या होने के पहिले ही से बादलों का शामियाना खड़ा हो गया था, बिजली चमकने लग गई थी, और हवा के झपेटे पेड़-पत्तों के साथ हाथापाई कर रहे थे। पहर रात जाते-जाते पानी अच्छी तरह बरसने लग गया और उसके बाद तो आंधी-पानी ने एक भयानक तूफान का रूप धारण कर लिया। उस समय लश्कर वालों को बहुत ही तकलीफ हुई। हजारों सिपाही, गरीब बनिये, घसियारे और शागिर्द पेशे वाले जो मैदान में सोया करते थे इस तूफान से दुःखी होकर जान बचाने की फिक्र करने लगे। यद्यपि राजा वीरेन्द्रसिंह की रहमदिली और रिआयापरवरी ने बहुतों को आराम दिया और बहुत से आदमी खेमों और शामियानों के अन्दर घुस गये, यहां तक कि राजा वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह के खेमों में भी सैकड़ों को पनाह मिल गई मगर फिर भी हजारों आदमी ऐसे रह गये थे जिनकी भूंडी किस्मत में दुख भोगना बदा था। यह सब-कुछ था मगर लीला को ऐसे समय भी चैन न था और वह दुःख को दुःख नहीं समझती थी क्योंकि उसे अपना काम साधने के लिए बहुत दिनों बाद आज यही एक मौका अच्छा मालूम हुआ।
जिस खेमे में मायारानी और दारोगा वगैरह कैद थे उससे चालीस या पचास हाथ की दूरी पर सलई का एक बड़ा और पुराना दरख्त था। इस आंधी-पानी और तूफान का खौफ न करके लीला उसी पेड़ पर चढ़ गई और कैदियों के खेमे की तरफ मुंह करके तिलिस्मी तमंचे का निशाना साधने लगी। जब-जब बिजली चमकती तब-तब वह अपने निशाने को ठीक करने का उद्योग करती। सम्भव था कि बिजली की चमक में कोई उस पेड़ पर चढ़ा हुआ उसे देख लेता मगर जिन सिपाहियों के पहरे में वह खेमा था उस (कैदियों वाले) खेमे के आस-पास जो लोग रहते थे सभी इस तूफान से घबड़ाकर उसी खेमे के अन्दर घुस गये जिसमें मायारानी और दारोगा वगैरह कैद थे। खेमे के बाहर या उस पेड़ के पास कोई भी न था जिस पर लीला चढ़ी हुई थी।
लीला जब अपने निशाने को ठीक कर चुकी तब उसने एक गोली (बेहोशी वाली) चलाई। हम पहिले के किसी बयान में लिख चुके हैं कि इस तिलिस्मी तमंचे के चलाने में किसी तरह की आवाज नहीं होती थी मगर जब गोली जमीन पर गिरती थी तब कुछ हल्की-सी आवाज पटाखे की तरह होती थी।
लीला की चलाई हुई गोली खेमे को छेद के अन्दर चली गई और एक सिपाही के बदन पर गिरकर फूटी। उस सिपाही को कुछ नुकसान नहीं हुआ जिस पर गोली गिरी थी। न तो उसका कोई अंगभंग हुआ और न कपड़ा जला, केवल हलकी-सी आवाज हुई और बेहोशी का बहुत ज्यादे धुआं चारों तरफ फैलने लगा। मायारानी उस वक्त बैठी हुई अपनी किस्मत पर रो रही थी। पटाखे की आवाज से वह चौंककर उसी तरफ देखने लगी और बहुत जल्द समझ गई कि यह उसी तिलिस्मी तमंचे से चलाई गई गोली है जो लीला के सुपुर्द कर आयी थी।
मायारानी यद्यपि जान से हाथ धो बैठी थी और उसे विश्वास हो गया था कि अब इस कैद से किसी तरह छुटकारा नहीं मिल सकता मगर इस समय तिलिस्मी तमंचे की गोली ने खेमे के अन्दर पहुंचकर उसे विश्वास दिला दिया कि अब भी तेरा एक दोस्त मदद करने लायक मौजूद है जो यहां आ पहुंचा और कैद से छुड़ाया ही चाहता है।
वह मायारानी, जिसकी आंखों के आगे मौत की भयानक सूरत घूम रही थी और हर तरह से नाउम्मीद हो चुकी थी, चौंककर सम्हल बैठी। बेहोशी का असर करने वाला धुआं बच रहने की मुबारकबाद देता हुआ आंखों के सामने फैलने लगा और तरह-तरह की उम्मीदों ने उसका कलेजा ऊंचा कर दिया। यद्यपि वह जानती थी कि यह धुआं मुझे भी बेहोश कर देगा, मगर फिर भी वह खुशी की निगाहों से चारों तरफ देखने लगी और इतने में ही एक दूसरी गोली भी उसी ढंग की वहां आकर गिरी।
मायारानी और दारोगा को छोड़कर जितने आदमी उस खेमे में थे सभों को उन दोनों गोलियों ने ताज्जुब में डाल दिया। अगर गोली चलाते समय तमंचे में से किसी तरह की आवाज निकलकर उनके कानों तक पहुंचती तो शायद कुछ पता लगाने की नीयत से दो-चार आदमी खेमे के बाहर निकलते मगर उस समय सिवाय एक-दूसरे का मुंह देखने के किसी को किसी तरह का गुमान न हुआ और धुएं ने तेजी के साथ फैलकर अपना असर जमाना शुरू कर दिया। बात की बात में जितने आदमी उस खेमे के अन्दर थे सभी का सिर घूसने लगा और एक-दूसरे के ऊपर गिरते हुए सब बेहोश हो गए, मायारानी और दारोगा को भी दीन दुनिया की सुध न रही।
पेड़ पर चढ़ी हुई लीला ने थोड़ी देर तक इन्तजार किया। जब खेमे के अन्दर से किसी को निकलते न देखा और उसे विश्वास हो गया कि खेमे के अन्दर वाले अब बेहोश हो गये होंगे तब वह पेड़ से उतरी और खेमे के पास आई। आंधी-पानी का जोर अभी तक वैसा ही था मगर लीला ने इसे अच्छी तरह सह लिया और कनात के नीचे से झांककर खेमे के अन्दर देखा तो सभों को बेहोश पाया।
पाठकों को यह मालूम है कि लीला ऐयारी भी जानती थी। कनात काटकर वह खेमे के अन्दर चली गई। आदमी बहुत ज्यादे भरे हुए थे इसलिए उसे मायारानी के पास तक पहुंचने में बड़ी कठिनाई हुई। आखिर उसके पास पहुंची और हाथ-पैर खोलने के बाद लखलखा सुंघाकर होश में लाई। मायारानी ने होश में आकर लीला को देखा और धीरे से कहा, ''शाबाश, खूब पहुंची, बस दारोगा को छुड़ाने की कोई जरूरत नहीं,'' इतना कहकर मायारानी उठ खड़ी हुई और लीला के हाथ का सहारा लेती हुई खेमे के बाहर निकल गयी।
लीला ने चाहा कि लश्कर में से दो घोड़े भी सवारी के लिए चुरा लावे मगर मायारानी ने स्वीकार न किया और उसी तूफान में दोनों कम्बख्तों ने एक तरफ का रास्ता लिया।