आरती चंद्राची - जयदेव जयदेव जय चिन्मय चंद...
जयदेव जयदेव जय चिन्मय चंद्रा ॥ निजतेजें वोवाळूं सच्चित्सुखभद्रा ॥ध्रु०॥
उदयास्तुविणें शोभसि अखंड चिद्नगनीं ॥ भक्तचकोरां जिवविशि परमामृतपानीं ॥
अक्षय निजनिष्कलंक निरसुनि तमरजनीं ॥ तापत्रय दुर करिसी लावुनि निजभजनीं ॥१॥
तव करुणारसपियुषें जन वन वनस्पती ॥ स्थिरचर सफलित पल्लवपुष्पेंसह होती ॥
शुकादि पव्क फळें ते सेवुनियां निवती ॥ पूर्णापूर्ण कळातित तेजोमयमूर्ति ॥२॥
निज बिज धान्यें विरुढत तव करुणापियुषें ॥ सेवुनि मुनिजन वर्तति नर्तति संतोषें ॥
आर्तें. आरति उजळुनि निजतेजप्रकाशें ॥ रंगीं रंगुनि गर्जति निगमागम घोषें ॥३॥
उदयास्तुविणें शोभसि अखंड चिद्नगनीं ॥ भक्तचकोरां जिवविशि परमामृतपानीं ॥
अक्षय निजनिष्कलंक निरसुनि तमरजनीं ॥ तापत्रय दुर करिसी लावुनि निजभजनीं ॥१॥
तव करुणारसपियुषें जन वन वनस्पती ॥ स्थिरचर सफलित पल्लवपुष्पेंसह होती ॥
शुकादि पव्क फळें ते सेवुनियां निवती ॥ पूर्णापूर्ण कळातित तेजोमयमूर्ति ॥२॥
निज बिज धान्यें विरुढत तव करुणापियुषें ॥ सेवुनि मुनिजन वर्तति नर्तति संतोषें ॥
आर्तें. आरति उजळुनि निजतेजप्रकाशें ॥ रंगीं रंगुनि गर्जति निगमागम घोषें ॥३॥