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भाग 7

 


मथुरा में चर्च के पास एक छोटा-सा, परन्तु साफ-सुथरा बँगला है। उसके चारों ओर तारों से घिरी हुई ऊँची, जुरांटी की बड़ी घनी टट्टी है। भीतर कुछ फलों के वृक्ष हैं। हरियाली अपनी घनी छाया में उस बँगले को शीतल करती है। पास ही पीपल का एक बड़ा सा वृक्ष है। उसके नीचे बेंत की कुर्सी पर बैठे हुए मिस्टर बाथम के सामने एक टेबल पर कुछ कागज बिखरे हैं। वह अपनी धुन में काम में व्यस्त है।
बाथम ने एक भारतीय रमणी से ब्याह कर लिया है। वह इतना अल्पभाषी और गंभीर है कि पड़ोस के लोग बाथम को साधु साहब कहते हैं, उससे आज तक किसी से झगड़ा नहीं हुआ, और न उसे किसी ने क्रोध करते देखा। बाहर तो अवश्य योरोपीय ढंग से रहता है, सो भी केवल वस्त्र और व्यवहार के सम्बन्ध में; परन्तु उसके घर के भीतर पूर्ण हिन्दू आचार हैं। उसकी स्त्री मारगरेट लतिका ईसाई होते हुए भी भारतीय ढंग से रहती है। बाथम उससे प्रसन्न है; वह कहता है कि गृहणीत्व की जैसी सुन्दर योजना भारतीय स्त्री को आती है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इतना आकर्षक, इतना माया-ममतापूर्ण स्त्री-हृदय सुलभ गार्हस्थ्य जीवन और किसी समाज में नहीं। कभी-कभी अपने इन विचारों के कारण उसे अपने योरोपीय मित्रों के सामने बहुत लज्जित होना पड़ता है; परन्तु उसका यह दृढ़ विश्वास है। उसका चर्च के पादरी पर भी अनन्य प्रभाव है। पादरी जॉन उसके धर्म-विश्वास का अन्यतम समर्थक है। लतिका को वह बूढ़ा पादरी अपनी लड़की के समान प्यार करता है। बाथम चालीस और लतिका तीस की होगी। सत्तर बरस का बूढ़ा पादरी इन दोनों को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होता है।
अभी दीपक नहीं जलाये गये थे। कुबड़ी टेकता हुआ बूढ़ा जॉन आ पहुँचा। बाथम उठ खड़ा हुआ, हाथ मिलाकर बैठते हुए जॉन ने पूछा, 'मारगरेट कहाँ है तुम लोगों को देखकर अत्यन्त प्रसन्नता होती है।'
'हाँ पिताजी, हम लोग भी साथ ही चलेंगे।' कहते हुए बाथम भीतर गया और कुछ मिनटों में लतिका एक सफेद रेशमी धोती पहने बाथम के साथ बाहर आ गयी। बूढ़े पादरी ने लतिका से सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, 'चलती हो मारगरेट?'
बाथम और जान भी लतिका को प्रसन्न रखने के लिए भारतीय संस्कृति से अपनी पूर्ण सहानुभूति दिखाते। वे आपस में बात करने के लिए प्रायः हिन्दी में ही बोलते।
'हाँ पिता! मुझे आज विलम्ब हुआ, अन्यथा मैं ही इनसे चलने के लिए पहले अनुरोध करती। मेरी रसोईदारिन आज कुछ बीमार है, मैं उसकी सहायता कर रही थी, इसी से आपको कष्ट करना पड़ा।'
'ओहो! उस दुखिया सरला को कहती हो। लतिका! इसके बपतिस्मा न लेने पर भी मैं उस पर बड़ी श्रद्धा करता हूँ। वह एक जीती-जागती करुणा है। उसके मुख पर मसीह की जननी के अंचल की छाया है। उसे क्या हुआ है बेटी?'
'नमस्कार पिता! मुझे तो कुछ नहीं हुआ है। लतिका रानी के दुलार का रोग कभी-कभी मुझे बहुत सताता है।' कहती हुई एक पचास बरस की प्रौढ़ा स्त्री ने बूढ़े पादरी के सामने आकर सिर झुका दिया।
'ओहो, मेरी सरला! तुम अच्छी हो, यह जानकर मैं बहुत सुखी हुआ। कहो, तुम प्रार्थना तो करती हो न पवित्र आत्मा तुम्हारा कल्याण करे। लतिका के हृदय में यीशु की प्यारा करुणा है, सरला! वह तुम्हें बहुत प्यार करती है।' पादरी ने कहा।
'मुझ दुखिया पर दया करके इन लोगों ने मेरा बड़ा उपकार किया है साहब! भगवान् इन लोगों का मंगल करे।' प्रौढ़ा ने कहा।
'तुम बपतिस्मा क्यों नहीं लेती हो, सरला! इस असहाय लोक में तुम्हारे अपराधों को कौन ऊपर लेगा तुम्हारा कौन उद्धार करेगा पादरी ने कहा।
'आप लोगों से सुनकर मुझे यह विश्वास हो गया है कि मसीह एक दयालु महात्मा थे। मैं उनमें श्रद्धा करती हूँ, मुझे उनकी बात सुनकर ठीक भागवत के उस भक्त का स्मरण हो आता है, जिसने भगवान का वरदान पाने को संसार-भर के दुःखों को अपने लिए माँगा था-अहा! वैसा ही हृदय महात्मा ईशा का भी था; परन्तु पिता! इसके लिए धर्म परिवर्तन करना तो दुर्बलता है। हम हिन्दुओं का कर्मवाद में विश्वास है। अपने-अपने कर्मफल तो भोगने ही पड़ेंगे।'
पादरी चौंक उठा। उसने कहा, 'तुमने ठीक नहीं समझा। पापों का पश्चात्ताप द्वारा प्रायश्चित्त होने पर शीघ्र ही उन कर्मों को यीशु क्षमा करता है, और इसके लिए उसने अपना अग्रिम रक्त जमा कर दिया है।'
'पिता! मैं तो यह समझती हूँ कि यदि यह सत्य हो, तो भी इसका प्रचार न होना चाहिए; क्योंकि मनुष्य को पाप करने का आश्रय मिलेगा। वह अपने उत्तरदायित्व से छुट्टी पा जाएगा।' सरला ने दृढ़ स्वर में कहा।
एक क्षण के लिए पादरी चुप रहा। उसका मुँह तमतमा उठा। उसने कहा, 'अभी नहीं सरला! कभी तुम इस सत्य को समझोगी। तुम मनुष्य के पश्चात्ताप के एक दीर्घ निःश्वास का मूल्य नहीं जानती हो, प्रार्थना से झुकी हुई आँखों के आँसू की एक बूँद का रहस्य तुम नहीं समझती।'
'मैं संसार की सताई हूँ, ठोकर खाकर मारी-मारी फिरती हूँ। पिता! भगवान के क्रोध को, उनके न्याय को मैं आँचल पसारकर लेती हूँ। मुझे इसमें कायरता नहीं सताती। मैं अपने कर्मफल को सहन करने के लिए वज्र के समान सबल, कठोर हूँ। अपनी दुर्बलता के लिए कृतज्ञता का बोझ लेना मेरी नियति ने मुझे नहीं सिखाया। मैं भगवान् से यही प्रार्थना करती हूँ कि यदि तेरी इच्छा पूर्ण हो गयी, इस हाड़-मांस में इस चेतना को रखने के लिए दण्ड की अवधि पूरी हो गयी, तो एक बार हँस दे कि मैंने तुझे उत्पन्न करके भर पाया।' कहते-कहते सरला के मुख पर एक अलौकिक आत्मविश्वास, एक सतेज दीप्ति नाच उठी। उसे देखकर पादरी भी चुप हो गया। लतिका और बाथम भी स्तब्ध रहे।
सरला के मुख पर थोड़े ही समय में पूर्व भाव लौट आया। उसने प्रकृतिस्थ होते हुए विनीत भाव से पूछा, 'पिता! एक प्याली चाय ले आऊँ!'
बाथम ने भी बात बदलने के लिए सहसा कहा, 'पिता! जब तक आप चाय पियें, तब तक पवित्र कुमारी का एक सुन्दर चित्र, जो संभवतः किसी पुर्तगाली चित्र की, किसी हिन्दुस्तानी मुसव्वर की बनायी प्रतिकृति है, लाकर दिखलाऊँ, सैकड़ों बरस से कम का न होगा।'
'हाँ, यह तो मैं जानता हूँ कि तुम प्राचीन कला-सम्बन्धी भारतीय वस्तुओं का व्यवसाय करते हो। और अमरीका तथा जर्मनी में तुमने इस व्यवसाय में बड़ी ख्याति पायी है; परन्तु आश्चर्य है कि ऐसे चित्र भी तुमको मिल जाते हैं। मैं अवश्य देखूँगा।' कहकर पादरी कुरसी से टिक गया।
सरला चाय लाने गयी और बाथम चित्र। लतिका ने जैसे स्वप्न देखकर आँख खोली। सामने पादरी को देखकर वह एक बार फिर आपे में आयी। बाथम ने चित्र लतिका के हाथ में देकर कहा, 'मैं लैंप लेता आऊँ!'
बूढ़े पादरी ने उत्सुकता दिखलाते हुए संध्या के मलिन आलोक में ही उस चित्र को लतिका के हाथ से लेकर देखना आरम्भ किया था कि बाथम ने एक लैम्प लाकर टेबुल पर रख दिया। वह ईसा की जननी मरियम का चित्र था। उसे देखते ही जॉन की आँखें भक्ति से पूर्ण हो गयीं। वह बड़ी प्रसन्नता से बोला, 'बाथम! तुम बड़े भाग्यवान हो।' और बाथम कुछ बोलना ही चाहता था कि रमणी की कातर ध्वनि उन लोगों को सुनाई पड़ी, 'बचाओ-बचाओ!'
बाथम ने देखा-एक स्त्री दौड़ती-हाँफती हुई चली आ रही है, उसके पीछे दो मनुष्य भी। बाथम ने उस स्त्री को दौड़कर अपने पीछे कर लिया और घूँसा तानते हुए कड़ककर कहा, 'आगे बढ़े तो जान ले लूँगा।' पीछा करने वालों ने देखा, एक गोरा मुँह! वे उल्टे पैर लौटकर भागे। सरला ने तब तक उस भयभीत युवती को अपनी गोद में ले लिया था। युवती रो रही थी। सरला ने पूछा, 'क्या हुआ है घबराओ मत, अब तुम्हारा कोई कुछ न कर सकेगा।'
युवती ने कहा, 'विजय बाबू को इन सबों ने मारकर गिरा दिया है।' वह फिर रोने लगी।
अबकी लतिका ने बाथम की ओर देखकर कहा, 'रामदास को बुलाओ, लालटेन लेकर देखे कि बात क्या है?'
बाथम ने पुकारा-'रामदास!'
वह भी इधर ही दौड़ा हुआ आ रहा था। लालटेन उसके हाथ में थी। बाथम उसके साथ चला गया। बँगले से निकलते ही बायीं ओर मोड़ पड़ता था। वहाँ सड़क की नाली तीन फुट गहरी है, उसी में एक युवक गिरा हुआ दिखायी पड़ा। बाथम ने उतरकर देखा कि युवक आँखें खोल रहा है। सिर में चोट आने से वह क्षण भर मे लिए मूर्च्छित हो गया था। विजय पूर्ण स्वस्थ्य युवक था। पीछे की आकस्मिक चोट ने उसे विवश कर दिया, अन्यथा दो के लिए कम न था। बाथम के सहारे वह उठ खड़ा हुआ। अभी उसे चक्कर आ रहा था, फिर भी उसने पूछा, 'घण्टी कहाँ है
'वह मेरे बँगले में हैं, घबराने की आवश्यकता नहीं। चलो!'
विजय धीरे-धीरे बँगले में आया और एक आरामकुर्सी पर बैठ गया। इतने में चर्च का घण्टा बजा। पादरी ने चलने की उत्सुकता प्रकट की, लतिका ने कहा, 'पिता! बाथम प्रार्थना करने जाएँगे; मुझे आज्ञा हो, तो इस विपन्न मनुष्यों की सहायता करूँ, यह भी तो प्रार्थना से कम नहीं है।'
जान ने कुछ न कहकर कुबड़ी उठायी। बाथम उसके साथ-साथ चला।
अब लतिका और सरला विजय और घण्टी की सेवा में लगी। सरला ने कहा, 'चाय ले आऊँ, उसे पीने से स्फूर्ति आ जायेगी।'
विजय ने कहाँ, 'नहीं धन्यवाद। अब हम लोग चले जा सकते हैं।'
'मेरी सम्मति है कि आज की रात आप लोग इसी बँगले पर बितावें, संभव है कि वे दुष्ट फिर कहीं घात में लगे हों।' लतिका ने कहा।
सरला लतिका के इस प्रस्ताव से प्रसन्न होकर घण्टी से बोली, 'क्यों बेटी! तुम्हारी क्या सम्मति है तुम लोगों का घर यहाँ से कितनी दूर है?' कहकर रामदास को कुछ संकेत किया।
विजय ने कहा, 'हम लोग परदेशी हैं, यहाँ घर नहीं। अभी यहाँ आये एक सप्ताह से अधिक नहीं हुआ है। आज मैं इनके साथ एक ताँगे पर घूमने निकला। दो-तीन दिन से दो-एक मुसलमान गुण्डे हम लोगों को प्रायः घूम-फिरते देखते थे। मैंने उस पर कुछ ध्यान नहीं दिया था, आज एक ताँगे वाला मेरे कमरे के पास ताँगा रोककर बड़ी देर तक किसी से बातें करता रहा। मैंने देखा, ताँगा अच्छा है। पूछा, किराये पर चलोगे! उसने प्रसन्नता से स्वीकार कर लिया। संध्या हो चली थी। हम लोगों ने घूमने के विचार से चलना निश्चित किया और उस पर जा बैठे।'
इतने में रामदास चाय का सामान लेकर आया। विजय ने पीकर कृतज्ञता प्रकट करते हुए फिर कहना आरम्भ किया, 'हम लोग बहुत दूर-दूर घूमकर एक चर्च के पास पहुँचे। इच्छा हुई कि घर लौट चलें, पर उस ताँगे वाले ने कहा-बाबू साहब, यह चर्च अपने ढंग का एक ही है, इसे देख तो लीजिये। हम लोग कुतूहल से प्रेरित होकर इसे देखने के लिए चले। सहसा अँधेरी झाड़ी में से वे ही दोनों गुण्डे निकल आये और एक ने पीछे से मेरे सिर पर डंडा मारा। मैं आकस्मिक चोट से गिर पड़ा। इसके बाद मैं नहीं जानता कि क्या हुआ, फिर जैसे यहाँ पहुँचा, वह सब तो आप लोग जानती हैं।'
घण्टी ने कहा, 'मैं यह देखते ही भागी। मुझसे जैसे किसी ने कहा कि ये सब मुझे ताँगे पर बिठाकर ले भागेंगे। आप लोगों की कृपा से हम लोगों की रक्षा हो गयी।'
सरला घण्टी का हाथ पकड़कर भीतर ले गयी। उसे कपड़ा बदलने को दिया दूसरी धोती पहनकर जब वह बाहर आयी, तब सरला ने पूछा, 'घण्टी! ये तुम्हारे पति हैं कितने दिन बीते ब्याह हुए?'
घण्टी ने सिर नीचा कर लिया। सरला के मुँह का भाव क्षण-भर मे परिवर्तित हो गया, पर वह आज के अतिथियों की अभ्यर्थना में कोई अन्तर नहीं पड़ने देना चाहती थी। वह अपनी कोठरी, जो बँगले से हटकर उसी बाग में थोड़ी दूर पर थी, साफ करने लगी। घण्टी दालान में बैठी हुई थी। सरला ने आकर विजय से पूछा, 'भोजन तो करियेगा, मैं बनाऊँ?'
विजय ने कहा, 'आपकी बड़ी कृपा है। मुझे कोई संकोच नहीं।'
इधर सरला को बहुत दिनों पर दो अतिथि मिले।
दूसरे दिन प्रभात की किरणों ने जब विजय की कोठरी में प्रवेश किया, तब सरला भी विजय को देख रही थी। वह सोच रही थी-यह भी किसी माँ का पुत्र है-अहा! कैसे स्नेह की सम्पति है। दुलार ने यह डाँटा नहीं गया, अब अपने मन का हो गया।
विजय की आँख खुली। अभी सिर में पीड़ा थी। उसने तकिये से सिर उठाकर देखा-सरला का वात्सल्यपूर्ण मुख। उसने नमस्कार किया। बाथम वायु सेवन कर लौटा आ रहा था, उसने भी पूछा, 'विजय बाबू, अब पीड़ा तो नहीं है?'
'अब वैसी तो नहीं है, इस कृपा के लिए धन्यवाद।'
'धन्यवाद की आवश्यकता नहीं। हाथ-मुँह धोकर आइये, तो कुछ दिखाऊँगा। आपकी आकृति से प्रकट है कि हृदय में कला-सम्बंधी सुरुचि है।' बाथम ने कहा।
'मैं अभी आता हूँ।' कहता हुआ विजय कोठरी से बाहर चला आया। सरला ने कहा, 'देखा, इसी कोठरी के दूसरे भाग में सब सामान मिलेगा। झटपट चाय के समय में आ जाओ।' विजय उधर गया।
पीपल के वृक्ष के नीचे मेज पर एक फूलदान रखा है। उसमें आठ-दस गुलाब के फूल लगे हैं। बाथम, लतिका, घण्टी और विजय बैठे हैं। रामदास चाय ले आया। सब लोगों ने चाय पीकर बातें आरम्भ कीं। विजय और घण्टी के संबंध में प्रश्न हुए और उनका चलता हुआ उत्तर मिला-विजय काशी का एक धनी युवक है और घण्टी उसकी मित्र है। यहाँ दोनों घूमने-फिरने आये हैं।
बाथम एक पक्का दुकानदार था। उसने मन में विचारा कि मुझे इससे क्या, सम्भव है कि ये कुछ चित्र खरीद लें, परन्तु लतिका को घण्टी की ओर देखकर आश्चर्य हुआ, उसने पूछा, 'क्या आप लोग हिन्दू हैं?'
विजय ने कहा 'इसमें भी कोई सन्देह है?'
सरला दूर खड़ी इन लोगों की बातें सुन रही थी। उसको एक प्रकार की प्रसन्नता हुई। बाथम ने कमरे में विक्रय के चित्र और कलापूर्ण सामान सजाये हुए थे। वह कमरा छोटी-सी एक प्रदर्शनी थीं। दो-चार चित्रों पर विजय ने अपनी सम्मति प्रकट की, जिसे सुनकर बाथम बहुत ही प्रसन्न हुआ। उसने विजय से कहा, 'आप तो सचमुच इस कला के मर्मज्ञ हैं, मेरा अनुमान ठीक ही था।'
विजय ने हँसते हुए कहा, 'मैं चित्रकला से बड़ा प्रेम रखता हूँ। मैंने बहुत से चित्र बनाये भी हैं। और महाशय, यदि आप क्षमा करें, तो मैं यहाँ तक कह सकता हूँ कि इनमें से कितने सुन्दर चित्र, जिन्हें आप प्राचीन और बहुमूल्य कहते हैं, वे असली नहीं हैं।'
'बाथम को कुछ क्रोध और आश्चर्य हुआ। पूछा, 'आप इसका प्रमाण दे सकते हैं?'
'प्रमाण नहीं, मैं एक चित्र की प्रतिलिपि कर दूँगा। आप देखते नहीं, इन चित्रों के रंग ही कह रहे हैं कि वे आजकल के हैं-प्राचीन समय में वे बनते ही कहाँ थे, और सोने की नवीनता कैसी बोल रही है। देखिये न!' इतना कहकर एक चित्र बाथम के हाथ में उठाकर दिया। बाथम ने ध्यान से देखकर धीरे-धीरे टेबुल पर रख दिया और फिर हँसते हुए विजय के दोनों हाथ पकड़कर हाथ हिला दिया और कहा, 'आप सच कहते हैं। इस प्रकार से मैं स्वयं ठगा गया और दूसरे को भी ठगता हूँ। क्या कृपा करके आप कुछ दिन और मेरे अतिथि होंगे आप जितने दिन मथुरा में रहें। मेरे ही यहाँ रहें-यह मेरी हार्दिक प्रार्थना है। आपके मित्र को कोई भी असुविधा न होगी। सरला हिन्दुस्तानी रीति से आपके लिए सब प्रबन्ध करेगी।'
लतिका आश्चर्य में थी और घण्टी प्रसन्न हो रही थी। उसने संकेत किया। विजय मन में विचारने लगा-क्या उत्तर दूँ, फिर सहसा उसे स्मरण हुआ कि मथुरा में एक निस्सहाय और कंगाल मनुष्य है। जब माता ने छोड़ दिया है, तब उसे कुछ करके ही जीवन बिताना होगा। यदि यह काम कर सका, तो...वह झटपट बोल उठा, 'आप जैसे सज्जन के साथ रहने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी, परन्तु मेरा थोड़ा-सा सामान है, उसे ले आना होगा।'
'धन्यवाद! आपके लिए तो मेरा यही छोटा-सा कमरा आफिस का होगा और आपकी मित्र मेरी स्त्री के साथ रहेगी।'
बीच में ही सरला ने कहा, 'यदि मेरी कोठरी में कष्ट न हो, तो वहीं रह लेंगी।'
घण्टी मुस्कराई। विजय ने कहा, 'हाँ ठीक ही तो होगा।'
सहसा इस आश्रय के मिल जाने से उन दोनों को विचार करने का अवसर नहीं मिला।
बाथम ने कहा, 'नहीं-नहीं, इसमें मैं अपना अपमान समझूँगा।' घण्टी हँसने लगी। बाथम लज्जित हो गया; परन्तु लतिका ने धीरे से बाथम को समझा दिया कि घण्टी को सरला के साथ रहने में विशेष सुविधा होगी।
विजय और घण्टी का अब वहीं रहना निश्चित हो गया।
बाथम के यहाँ रहते विजय को महीनों बीत गये। उसमे काम करने की स्फूर्ति और परिश्रम ही उत्कण्ठा बढ़ गयी है। चित्र लिए वह दिन भर तूलिका चलाया करता है। घंटों बीतने पर वह एक बार सिर उठाकर खिड़की से मौलसिरी वृक्ष की हरियाली देख लेता। वह नादिरशाह का एक चित्र अंकित कर रहा था, जिसमें नादिरशाह हाथी पर बैठकर उसकी लगाम माँग रहा था। मुगल दरबार के चापलूस चित्रकार ने यद्यपि उसे मूर्ख बनाने के लिए ही यह चित्र बनाया था, परन्तु इस साहसी आक्रमणकारी के मुख से भय नहीं, प्रत्युत पराधीन सवारी पर चढ़ने की एक शंका ही प्रकट हो रही है। चित्रकार ने उसे भयभीत चित्रित करने का साहस नहीं हुआ। संभवतः उस आँधी के चले जाने के बाद मुहम्मदशाह उस चित्र को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ होगा। प्रतिलिपि ठीक-ठीक हो रही थी। बाथम उस चित्र को देखकर बहुत प्रसन्न हो रहा था। विजय की कला-कुशलता में उसका पूरा विश्वास हो चला था-वैसे ही पुराने रंग-मसाले, वैसी ही अंकन-शैली थी।'
कोई भी उसे देखकर यह नहीं कह सकता था कि यह प्राचीन दिल्ली कलम का चित्र नहीं है।
आज चित्र पूरा हुआ है। अभी वह तूलिका हाथ से रख ही रहा था कि दूर पर घण्टी दिखाई दी। उसे जैसे उत्तेजना की एक घूँट मिली, थकावट मिट गयी। उसने तर आँखों से घण्टी का अल्हड़ यौवन देखा। वह इतना अपने काम में लवलीन था कि उसे घण्टी का परिचय इन दिनों बहुत साधारण हो गया था। आज उसकी दृष्टि में नवीनता थी। उसने उल्लास से पुकारा, 'घण्टी!'
घण्टी की उदासी पलभर में चली गयी। वह एक गुलाब का फूल तोड़ती हुई उस खिड़की के पास आ पहुँची। विजय ने कहा, 'मेरा चित्र पूरा हो गया।'
'ओह! मैं तो घबरा गयी थी कि चित्र कब तक बनेगा। ऐसा भी कोई काम करता है। न न विजय बाबू, अब आप दूसरा चित्र न बनाना-मुझे यहाँ लाकर अच्छे बन्दीगृह में रख दिया! कभी खोज तो लेते, एक-दो बात भी तो पूछ लेते!' घण्टी ने उलाहनों की झड़ी लगा दी। विजय ने अपनी भूल का अनुभव किया। यह निश्चित नहीं है कि सौन्दर्य हमें सब समय आकृष्ट कर ले। आज विजय ने एक क्षण के लिए आँखें खोलकर घण्टी को देखा-उस बालिका में कुतूहल छलक रहा है। सौन्दर्य का उन्माद है। आकर्षण है!
विजय ने कहा, 'तुम्हें बड़ा कष्ट हुआ, घण्टी!'
घण्टी ने कहा, 'आशा है, अब कष्ट न दोगे!'
पीछे से बाथम ने प्रवेश करते हुए कहा, 'विजय बाबू, बहुत सुन्दर 'मॉडल' है। देखिये, यदि आप नादिरशाह का चित्र पूरा कर चुके हो तो एक मौलिक चित्र बनाइये।'
विजय ने देखा, यह सत्य है। एक कुशल शिल्पी की बनायी हुई प्रतिमा-घण्टी खड़ी रही। बाथम चित्र देखने लगा। फिर दोनों चित्रों को मिलाकर देखा। उसने सहसा कहा, 'आश्चर्य! इस सफलता के लिए बधाई।'
विजय प्रसन्न हो रहा था। उसी समय बाथम ने फिर कहा, 'विजय बाबू, मैं घोषणा करता हूँ कि आप भारत के एक प्रमुख चित्रकार होंगे! क्या आप मुझे आज्ञा देंगे कि मैं इस अवसर पर आपके मित्र को कुछ उपहार दूँ?'
विजय हँसने लगा। बाथम ने अपनी उँगली से हीरे की अँगूठी निकाली और घण्टी की ओर बढ़ानी चाही। वह हिचक रहा था। घण्टी हँस रही थी। विजय ने देखा, चंचल घण्टी की आँखों में हीरे का पानी चमकने लगा था। उसने समझा, यह बालिका प्रसन्न होगी। सचमुच दोनों हाथों में सोने की एक-एक पतली चूड़ियों के अतिरिक्त और कोई आभूषण घण्टी के पास न था। विजय ने कहा, 'तुम्हारी इच्छा हो तो पहन सकती हो।' घण्टी ने हाथ फैलाकर ले ली।
व्यापारी बाथम ने फिर गला साफ करते हुए कहा, 'विजय बाबू, स्वतन्त्र व्यवसाय और स्वावलम्बन का महत्त्व आप लोग कम समझते हैं, यही कारण है कि भारतीयों के उत्तम गुण दबे रह जाते हैं। मैं आज आप से यह अनुरोध करता हूँ कि आपके माता-पिता चाहे जितने धनवान हों, परन्तु उस कला को व्यवसाय की दृष्टि से कीजिये। आप सफल होंगे, मैं इसमें आपका सहायक हूँ। क्या आप इस नये मॉडल पर एक मौलिक चित्र बनायेंगे?'
विजय ने कहा, 'आज विश्राम करूँगा, कल आपसे कहूँगा।'