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श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय ५


 
श्रीमैत्रेयजी बोले- 
हे द्विजराज ! सर्गके आदिमें भगवान् ब्रह्माजीने पृथिवी, आकाश और जल आदिमें रहनेवाले देव, ऋषि, पितृगण, दानव, मनुष्य, तिर्यक और वृक्षादिको जिस प्रकार रचा तथा जैसे गुण, स्वभाव और रूपवाले जगत्‌की रचना की वह सब आप मुझसे कहिये ॥१-२॥
श्रीपराशरजी बोले - हेअ मैत्रेय ! भगवान् विभुने जिस प्रकार इस सर्गकी रचना की वह मैं तुमसे कहता हूँ; सावधान होकर सुनो ॥३॥
सर्गके आदिमें ब्रह्माजीके पूर्ववत्‌ सृष्टिका चिन्तन करनेपर पहले अबुद्धिपूर्वक ( अर्थात् पहले-पहल असावधानी हो जानेसे ) तमोगुणी सृष्टिका आविर्भाव हुआ ॥४॥
उस महात्मासे प्रथम तम ( अज्ञान ) , मोह, महामोह ( भोगेच्छा ), तामिस्त्र ( क्रोध ) और अन्धातामिस्त्र ( अभिनिवेश ) नामक पत्र्चपर्वा ( पाँच प्रकारकी ) अविद्या उप्तन्न हुई ॥५॥
उसके ध्यान करनेपर ज्ञानशून्य बाहर भीतरसे तमोमय और जड नगादि ( वृक्ष-गुल्म-लता-वीरुत्-तृण ) रूप पाँच प्रकारका सर्ग हुआ ॥६॥
( वराहजीद्वारा सर्वप्रथम स्थापित होनेके कारण ) नगादिको मुख्य कहा गया है, इसलिये यह सर्ग भी मुख्य सर्ग कहलाता है ॥७॥
उस सृष्टिको पुरुषार्थकी आसाधिका देखकर उन्होने फिर अन्य सर्गके पुरुषार्थकी असाधिका देखकर उन्होंने फिर अन्य सर्गके लिये ध्यान किया तो तिर्यक् - स्त्रोत- सृष्टि उप्तन्न हुई । यह सर्ग ( वायुके समान ) तिरछा चलनेवाला है इसलिये तिर्यक् स्त्रोत कहलाता है ॥८-९॥
ये पशु, पक्षी आदि नामसे प्रसिद्ध हैं - और प्रायः तमोमय ( अज्ञानी ),विवेकरहित अनुचित मार्गका अवलाम्बन करनेवाले और विपरीत ज्ञानको ही यथार्थ ज्ञान माननेवाले होते हैं । ये सब अहंकारी, अभिमानी, अट्ठाईस वधोंसे युक्त* आन्तरिक सुख आदिको ही पूर्णतया समझनेवाले और परस्पर एकदूसरेकी प्रवृत्तिको न जाननेवाले होते हैं ॥१०-११॥
उस सर्गको भी पुरुषार्थका असाधक समझ पुनः चिन्तन करनेपर एक और सर्ग हुआ । वह ऊर्ध्व-स्त्रोतनामक तीसरा सात्विक सर्ग ऊपरके लोकोंमे रहने लगा ॥१२॥
वे ऊर्ध्व स्त्रोत सृष्टिमें उप्तन्न हुए प्राणी विषय-सुखके प्रेमी, बाह्य और आन्तरिक दृष्टिसम्पन्न, तथा बाह्म और आन्तरिक ज्ञानयुक्त थे ॥१३॥
यह तीसरा देवसर्ग कहलाता है । इस सर्गके प्रादुर्भूत होनेसे सन्तृष्टचित्त ब्रह्माजीको अति प्रसन्नता हुइ ॥१४॥
फिर, इन मुख्य सर्ग आदि तीनो प्रकारकीक सृष्टीयोंमें उप्तन्न हुए प्राणियोंको पुरुषार्थका असाधक जान उन्होंने एक और उत्तम साधक सर्गके लिये चिन्तन किया ॥१५॥
उन सत्यसंकल्प ब्रह्माजीके इस प्रकार चिन्तन करनेपर अव्यक्त ( प्रकृति ) से पुरुषार्थका साधक अर्वाक्स्त्रोत नामक सर्ग प्रकट हुआ ॥१६॥
इस सर्गके प्राणे, नीचे ( पृथिवीपर ) रहते हैं इसलिये वे 'अर्वाक् स्त्रोत' कहलाते हैं । उनमें सत्त्व, रज और तम तीनोंहीकी अधिकता होती है ॥१७॥
इसलिये वे दुःखबहुल, अत्यन्त क्रियाशील एवम बाह्म-आभ्यन्तर ज्ञानसे युक्त और साधक हैं । इस सर्गके प्राणी मनुष्य हैं ॥१८॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार अबतक तुमसे छः सर्ग, कहे । उनमें महत्तत्वको ब्रह्माका पहला सर्ग जानना चाहिये ॥१९॥
दूसरा सर्ग तन्मात्राओंकास है, जिसे भुतसर्ग भी कहते हैं और तीसरा वैकारिक सर्ग है जो ऐन्द्रियिक ( इन्द्रिय सम्बन्धी ) कहलाता है ॥२०॥
इस प्रकार बुद्धीपूर्वक उप्तन्न हुआ यह प्राकृत सर्ग हुआ । चौथा मुख्यसर्ग है । पर्वत-वृक्षादि स्थावर ही मुख्य सर्गके अन्तर्गत हैं ॥२१॥
पाँचवाँ जो तिर्यक्‌स्त्रोत बतलाया उसे तिर्यक ( कीट पतंगादि ) योनि भी कहते हैं । फिर छठा सर्ग ऊर्ध्व स्त्रोताओंका है जो देवसर्ग कहलाता है । उसके पश्चात् सातवाँ सर्ग अर्वाक् - स्त्रोताओंका है, वह मनुष्य सर्ग है ॥२२-२३॥
आठवाँ अनुग्रह सर्ग है । वह सात्त्विक और तामसिक है । ये पाँच वैकृत ( विकारी ) सर्ग हैं और पहले तीन प्राकृत सर्ग कहालाते हैं ॥२४॥
नवाँ कौमार- सर्ग है जो प्राकृत और वैकृत भी है । इस प्रकार सृष्टी रचनामें प्रवृत्त हुए जगदीश्वर प्रजापतिके प्राकृत और वैकृत नामक ये जगत्‌के मूलभूत नौ सर्ग तुम्हें सुनाये । अब और क्या सुनन जगत्‌के मूलभूत नौ सर्ग तुम्हें सुनाये । अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥२५-२६॥
श्रीमैत्रेयजी बोले - 
हे मुने ? आपने इन देवादिकोंके सर्गोका संक्षेपसे वर्णन किया । अब, हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं इन्हें आपके मुखारविन्दसे विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ॥२७॥
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! सम्पूर्ण प्रजा अपने पुर्व शुभाशुभ कर्मोसे युक्त है; अतः प्रलयकालमें सबका लय होनेपर भी वह उनके संस्कारोंसे मुक्त नहीं होती ॥२८॥
हे ब्रह्मन ! ब्रह्माजीके सृष्टि कर्ममें प्रवृत्त होनेपर देवताओंसे लेकर स्थावरपर्यन्त चार प्रकारकी सृष्टि हुई । वह केवल मनोमयी थी ॥२९॥
फिर देवता, असुर, पितृगण और मनुष्य- इन चारोंकी तथा जलकी सृष्टी करनेकी इच्छासे उन्होंने अपने शरीरका उपयोग किया ॥३०॥
सृष्टि-रचनाकी कामनासे प्रजापतिके युक्तचित्त होनेपर तमोगुणकी वृद्धि हुई ।न अतः सबसे पहले उनकी जंघासे असुर उप्तन्न हुए ॥३१॥
तब, हे मैत्रेय ! उन्होंने उस तमोमय शरीरको छोड़ दिया, वह छोडा़ हुआ तमोमय शरीर ही रात्रि हुआ ॥३२॥
फिर अन्य देहमें स्थित होनेपर सृष्टिकी कामनावाले उन प्रजापतिको अति प्रसन्नता हुई, और हे द्विज ! उनके मुखसे सत्त्वप्रधान देवगण उप्तन्न हुए ॥३३॥
तदनन्तर उस शरीरको भी उन्होंने त्याग दिया । वह त्यागा हुआ शरीर ही सत्त्वस्वरूप दिन हुआ । इसीलिये रात्रिमें असुर बलवान् होते हैं और दिनमें देवगणोंका बल विशेष होता है ॥३४॥
फिर उन्होंने आंशिक सत्त्वमय अन्य शरीर ग्रहण किया और अपनेको पितृवत् मानते हुए ( अपने पार्श्व भागसे ) पितृगणकी रचना की ॥३५॥
पितृगृणकी रचना कर उन्होनें उस शरीरको भी छोड़ दिया । वह त्यागा हुआ शरीर ही दिन और रात्रिके बीचमें स्थित सन्ध्या हुई ॥३६॥
तत्पश्चात् उन्होंने आंशिक रजोमय अन्य शरीर धारण किया; हे द्विजश्रेष्ठ ! उससे रजः प्रधान मनुष्य उप्तन्न हुए ॥३७॥
फिर शीघ्र ही प्रजापतिने उस शरीरको भी त्याग दिया, वही ज्योत्स्ना हुआ, जिसे पूर्व सन्ध्या अर्थात प्राप्तःकाल कहते है ॥३८॥
इसीलिये, हे मैत्रेय ! प्रातःकाल होनेपर मनुष्य और सायंकालके समय पितर बलवान् होते हैं ॥३९॥
इस प्रकर रात्रि, दिन, प्रातःकाल और सायंकाल ये चारों प्रभु ब्रह्माजीके शरीर हैं और तीनों गुणोंके आश्रय हैं ॥४०॥
फिर ब्रह्माजीने एक और रजोमात्रात्मक शरीर धारण किया । उसके द्वरा ब्रह्माजीसे क्षुधा उप्तन्न हुई और क्षुधासे कामकी उप्तत्ति हुई ॥४१॥
तब भगवान् प्रजापतिने अन्धकारमें स्थित होकर क्षुधाग्रस्त सृष्टिकी, रचना की । उसमें बडे़ कुरूप और दाढी़ मूँछवाले व्यक्ति उप्तन्न हुए । वे स्वयं ब्रह्माजीकी ओर ही ( उन्हें भक्षण करनेके लिये ) दौड़े ॥४२॥
उनमेंसे जिन्होंने यह कहा कि ऐसा मत करो, इनकी रक्षा कर, वे 'राक्षस' कहलाये और जिन्होंने कहा 'हम खायेंगे' वे खानेकी वासनावाले होनेसे ' यक्ष ' कहे गये ॥४३॥
उनकी इस अनिष्ट प्रवृत्तिको देखकर ब्रह्माजीके केश सिरसे गिर गये और फिर पुनः उनके मस्तकपर आरूढ़ हुए । इस प्रकार ऊपर चढनेके कारण वे सर्प कहलाये और नीचे गिरनेके कारण ' अहि' कहे गये । तदनन्तर जगत् रचयिंता ब्रह्माजीने क्रोधित होकर क्रोधयुक्त प्राणियोंकी रचना की: वे कपिश ( कालापन लिये हुए पीले ) वर्णके, अति उग्र स्वभाववाले तथा मांसाहारी हुए ॥४४-४५॥
फिर गान करते समय उनके शरीरसे तुरन्त ही गन्धर्व उप्तन्न हुए । हे द्विज ! वे वाणीका उच्चारण करते अर्थात् बोलते हुए उत्पन्न हुए थे, इसलिये ' गन्धर्व ' कहलाये ॥४६॥
इन सबकी रचना करके भगवान् ब्रह्माजीने पक्षियोंको, उनके पूर्व कर्मोसे प्रेरित होकर स्वच्छन्दतापूर्वक अपनी आयुसे रचा ॥४७॥
तननन्तर अपने वक्षःस्थलसे भेड़ मुखसे बकरी, उदर और पार्श्वभागसे गौ, पैरोंसे घोडे़ हाथी, गधें वनगाय, मृग, ऊँट, खच्चर और न्यंक आदि पशुओंकी रचना की ॥४८-४९॥
उनके रोमोंसे फल मूलस्वरू ओषधियाँ उप्तन्न हूई । हे द्विजोत्तम ! कल्पके आरम्भमें ही ब्रह्माजीने पशु और ओषधि आदिकी रचना करके फिर त्रेतायुगके आरम्भमें उन्हें यज्ञादि कर्मोंमें सम्मिलित किया ॥५०॥
गौ, बकरी, पुरुष, भेड़, घोड़े, खच्चर और गधे ये सब गाँवोंमे रहनेवाले पशु हैं । जंगली पशु ये हैं- श्वापद ( व्याघ्र आदि ), दो खुरवाले ( वनगाय आदि), हाथी बन्दर और पाँचवें पक्षी, छठे जलके जीव तथा सातवें सरीसृप आदि ॥५१-५२॥
फिर अपने प्रथम ( पूर्व ) मुखसे ब्रह्माजीने गायत्री, ऋक्, त्रिवृत्सोम रथन्तर और अग्निष्टोम यज्ञोंको निर्मित किया ॥५३॥
दक्षिण - मुखसे यजु, त्रैष्टुप्‌छन्द, पत्र्चदशस्तोम, बृहत्साम तथा उक्थकी रचना की ॥५४॥
पश्चिम- मुखसे साम, जगतीछन्द, सप्तदशस्तोम, वैरूप और अतिरात्रको उप्तन्न किया ॥५५॥
तथा उत्तर मुखसे उन्होंने एकविंशतिस्तोम् , अथर्ववेद, आप्तोर्यामाण, अनुष्टुप्‌छन्द और वैराजकी सृष्टि की ॥५६॥
इस प्रकार उनके शरीरसे समस्त ऊँच नीच प्राणी उप्तन्न हुए । उन आदिकर्ता प्रजापति भगवान् ब्रह्माजीने देव, असुर पितृगण और मनुष्योंकी सृष्टी कर तदनन्तर कल्पका आरम्भ होनेपर फिर यक्ष, पिशाच , गन्धर्व, अप्सरागण, मनुष्य, किन्नर, राक्षस, पशु , पक्षी, मृग और सर्प आदि सम्पूर्ण नित्य एवं अनित्य स्थावर जड्गम जगत्‌की रचना की । उनमेंसे जिनके जैसे जैसे कर्म पूर्वकल्पोंमें थे पुनः-पुनः सृष्टि होनेपर उनकी उन्हीमें फिर प्रवृत्ति हो जाती है ॥५७-६०॥
उस समय हिंसा-अहिंसा, मृदुता- कठोरता, धर्म- अधर्म, सत्य मिथ्या - ये सब अपनी पूर्व भावनाके अनुसार उन्हें प्राप्त हो जाते हैं, इसीसे ये उन्हें अच्छे लगने लगते हैं ॥६१॥
इस प्रकर प्रभू विधाताने ही स्वयं इन्द्रियोंके विषय भूत और शरीर आदिमें विभिन्नता और व्यवहारको उप्तन्न किया है ॥६२॥
उन्हींने कल्पके आरम्भमें देवता आदि प्राणियोंके वेदानुसार नाम और रूप तथा कार्य विभागको निश्चित किया है ॥६३॥
ऋषियों तथा अन्य प्राणियोंके भी वेदनुकुल नाम और यथायोग्य कर्मोंको उन्हीने निर्दिष्ट किया है ॥६४॥
जिस प्रकर भिन्न भिन्न ऋतुओंके पुनः पुनः आनेपर उनके चिह्न और नाम रूप आदि पूर्ववत् रहते हैं उसी प्रकार युगादिमें भी उनकें पूर्व भाव ही देखे जाते हैं ॥६५॥
सिसृक्षा-शक्त ( सृष्टि - रचनाकी इच्छारूप शक्त ) से युक्त वे ब्रह्मजी सृज्य शक्ति ( सृष्टिके प्रारब्ध ) की प्रेरणासे कल्पोंके आरम्भमें बारम्बार इसी प्रकार सृष्टिकी रचना किया करते हैं ॥६६॥
* सांख्य कारिकामें अट्ठाईस वधोंका वर्णन इस प्रकार किया है - 
एकादशेन्द्रियवधाः सह बुद्धिवधैरशक्तिरुद्दिष्टा । सप्तदश वधा बुद्धेर्विपर्ययात्तुष्टिसिद्धीनाम् ॥
आध्यात्मिक्यश्चतस्त्रः प्रकृत्युपादानकालभाग्याख्याः । बाह्मा विषयोपरमात् पत्र्च च नव तृष्टयोऽभिमताः ॥
ऊहः शब्दोऽध्ययनं दुःखविघातास्त्रयः सुहृत्प्राप्तिः । दानत्र्च सिद्धयोऽष्टौ सिद्धेः पूर्वोऽड्कुशस्त्रिविधा ॥ (४९-५१)
ग्यारह इन्द्रियवध और तुष्टि तथा सिद्धिके विपर्ययसे सत्रह बुद्धी वध- ये कल अट्ठाईस वध अशक्ति कहलाते हैं । प्रकृति, उपादान, काल और भाग्य नामक चार अध्यात्मिक और पाँचों ज्ञानेंन्द्रियोंके बाह्य विषयोंके निवृत्त हो जानेसे पाँच बाह्य इस प्रकार कुल नौ तुष्टियाँ हैं तथा ऊहा, शब्द अध्ययन, ( आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक ) तीन दुःखविघात, सुहृत्प्राप्ति और दान ये आठ सिद्धियाँ हैं । ये ( इन्द्रियाशक्त, तृष्टि, सिद्धिरूप ) तीनों वध मुक्तिसे पूर्व विघ्ररूप हैं ।
अन्धत्व वधिरत्वादिसे लेकर पागलपनतक मनसहित ग्यारह इन्द्रियोंकी विपरित अवस्थाएँ ग्यारह इन्द्रियवध हैं ।
आठ प्रकरकी प्रकृतिमेंसे किसीमें चित्तका लय हो जानेसे अपनेको मुक्त मान लेना प्रकॄति नामवाली तूष्टि है । संन्याससे ही अपनेको कृतार्थ मान लेना उपादान नामकी तृष्टि है । समय आनेपर स्वयं ही सिद्धि लाभ हो जायगी, ध्यानादि क्लेशकी क्या आवश्यकता है - ऐसा विचार ' भाग्य ' नामकी तुष्टि है । ये चारोंका आत्मासे सम्बन्ध है; अतः ये आध्यात्मिक तुष्टियाँ हैं । पदार्थोंके उपार्जन, रक्षण और व्यय आदिमें दोष देखकर उनसे उपराम हो जाना बाह्म तुष्टियाँ हैं । शब्दादि ब्राह्म विषय पाँच हैं, इसलिये ब्राह्म तुष्टियाँ भी पाँच ही हैं । इस प्रकार कुल नौ तुष्टियाँ है ।
उपदेशकी अपेक्षा न करके स्वयं ही परमार्थका निश्चय कर लेना 'ऊहा' सिद्धि है । प्रसंगवश कहीं कुछ सुनकर उसीसे ज्ञानिसिद्धि मान लेना शब्द सिद्धि है । गुरुसे पढ़्कर ही वस्तु प्राप्त हो गयी- ऐसा मान लेना ' अध्ययन सिद्धि है । आध्यात्मिकादि त्रिविध दूःखोंका नाश हो जाना तीन प्रकारकी 'दुःखविघात' सिद्धि है । अभीष्ट पदार्थकी प्राप्ति हो जाना 'सुहॄत्प्राप्ति' सिद्धि है । तथा विद्वान् या तपस्वियोंका संग प्राप्त हो जाना 'दान' नामिका सिद्धि है । इस प्रकार ये आठ सिद्धियाँ हैं ।
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे पत्र्चमोऽध्यायः ॥५॥
 

श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - 1

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श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय १ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय २ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय ३ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय ४ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय ५ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय ६ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय ७ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय ८ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय ९ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय १० श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय ११ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय १२ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय १३ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय १४ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय १५ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय १६ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय १७ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय १८ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय १९ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय २० श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय २१ श्रीविष्णुपुराण - प्रथम अंश - अध्याय २२