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श्रीविष्णुपुराण - चतुर्थ अंश - अध्याय ६


 
मैत्रेयजी बोले - 
भगवन् ! आपने सूर्यवंशीय राजाओंका वर्णन तो कर दिया, अब मैं सम्पूर्ण चन्द्रवंशीय भूपतियोंकी वृतान्त भी सुनना चाहता हूँ । जिन स्थिरकीर्ति महराजोंकी सन्तातिका सुयश आज भी गान किया जाता है, हे ब्रह्मन ! प्रसन्न मुखसे आप उन्हींक वर्णन मुझसे कीजिये ॥१-२॥
श्रीपराशरजी बोले - 
हे मुनिशार्दूल ! परम तेजस्वी चन्द्रमाके वंशका क्रमशः श्रवण करो जिसमें अनेकों विख्यात राजालोग हुए हैं ॥३॥
यह वंश नहूष, ययाति, कार्तवीर्य और अर्जुन आदि अनेकों अति बल - पराक्रमशील कान्तिमान् क्रियावान और सदगुणसम्पन्न राजाओंसे अलंकृत हुआ है । सुनो मैं उसका वर्णन करता हूँ ॥४॥
सम्पूर्ण जगत्‌के रचयिता भगवान् नारायणके नाभिकमलसे उप्तन्न हुए भगवान् ब्रह्माजीके पुत्र अत्रि प्रजापति थे ॥५॥
इन अत्रिके पुत्र चन्द्रमा हुए ॥६॥
कमल योनि भगवान् ब्रम्हाजीने उन्हें सम्पूर्ण ओषधि, द्विजजन और नक्षत्रगणके आदिपत्यपर अभिषिक्त कर दिया था ॥७॥
चन्द्रमाने राजसूय - यज्ञका अनुष्ठान किया ॥८॥
अपने प्रभाव और अति उत्कृष्ट आधिपत्यके अधिकारी होनेसे चन्द्रमापर राजमद सवार हुआ ॥९॥
तब मदोन्मत्त हो जानेके कारण उसने समस्त देवताओंके गुरु भगवान् बृहस्पतिजीकी भार्या तारको हरण कर लिया ॥१०॥
तथा बृहस्पतिजीकी प्रेरणासे भगवान् ब्रह्माजीके बहुत कुछ कहने- सुनने और देवर्षियोंके माँगनेपर भी उसे न छोड़ा ॥११॥
बृहस्पतिजीसे द्वेष करनेके कारण शुक्रजी भी चन्द्रमाके सहायक हो गये और अंगिरासे विद्या - लाभ करनेके कारण भगवान् रुद्रने बृहस्पतिकी सहायता की ( क्योंकि बृहस्पतिजी अंगिराके पुत्र हैं ) ॥१२-१३॥
जिस पक्षमें शुक्रजी थे उस ओरसे जम्भ और कुम्भ आदि समस्त दैत्य - दानवादिने भी ( सहायता देनेमें ) बड़ा उद्योग किया ॥१४॥
तथा सकल देव-सेनाके इन्द्र बृहस्पतिजीके सहायक हुए ॥१५॥
इस प्रकार ताराके लिये उनमें तारकामय नामक अत्यन्त घोर युद्ध छीड़ गया ॥१६॥
तब रुद्र आदि देवगण दानवोंके प्रति और दानवगण देवताओंके प्रति नाना प्रकारके शस्त्र छोड़ने लगे ॥१७॥
इस प्रकार देवासुर संग्रामसे क्षुब्ध चित्त हो सम्पूर्ण संसारने ब्रह्माजीकी शरण ली ॥१८॥
तब भगवान् कमल योनिने भी शुक्र, रुद्र, दानव और देवगणको युद्धसे निवृत्त कर बृहस्पतीजीको तारा दिलवा दी ॥१९॥
उसे गर्भिणी देखकर बृहस्पतिजीने कहा - ॥२०॥
" मेरे क्षेत्रमें तुझको दूसरेका पुत्र धारण करना उचित नहीं है: इसे दूर कर, अधिक धृष्टता करना ठीक नहीं" ॥२१॥
बृहस्पतीजीके ऐसा कहनेपर उस पतिव्रताने पतिके वचनानुसार वह गर्भ इषीकास्तम्ब ( सींककी झाड़ी ) में छोड़ दिया ॥२२॥
उस छोड़े हुए गर्भने अपने तेजसे समस्त देवताओंके तेजको मलिन कर दिया ॥२३॥
तदनन्तर उस बालककी सुन्दरताके कारण बृहस्पति और चन्द्रमा दोनोंको उसे लेनेके लिये उत्सुक देख देवताओंने सन्देह हो जानेके कारण तारासे पूछा - ॥२४॥
" हे सुभगे ! तू हमको सच - सच बता, यह पुत्र बृहस्पतिका है या चन्द्र्माका ? " ॥२५॥
उनके ऐसा कहनेपर ताराने लज्जावश कुछ भी न कहा ॥२६॥
जब बहूत कुछ कहनेपर भी वह देवताओंसे न बोली तो वह बालक उसे शाप देनेके लिये उद्यत होकर बोला - ॥२७॥
अरि दुष्टा माँ ! तु मेरे पिताका नाम क्यों नहीं बतलाती ? तुम व्यर्थ लज्जावतीकी मैं अभी ऐसी गति करुँगा जिससे तू आजसे ही इस प्रकर अत्यन्त धीरे - धीरे बोलना भूल जायगी " ॥२८-३०॥ 
तदनन्तर पितामह श्रीब्राह्माजीने उस बालकको रोककर तारासे स्वयं ही पूछा ॥३१॥
" बेटी ! ठिक - ठिक बता यह पुत्र किसका है - बृहस्पतिका या चन्द्रमाका? " इसपर उसने लज्जापुर्वक कहा, ' चन्द्रमाका ' ॥३२॥
तब तो नक्षत्रपति भगवान चन्द्रने उस बालकको हृदयसे लगाकर कहा - " बहुत ठीक, बहुत ठीक, बेटा ! तुम बड़े बुद्धिमान हो" अरे उनका नाम, 'बुध' रख दिया । इस समय उनके निर्मल कपोलोंकी कान्ति उच्छ्‌वसित और देदीप्यमान हो रही थी ॥३३॥
बुधने जिस प्रकार इलासे अपने पुत्र पुरुरवाको उत्पन्न किया था उसका वर्णन पहले ही कर चुके हैं ॥३४॥
पूरुरवा अति दानशील, अति याज्ञिक और अति तेजस्वी था । ' मित्रावरूणके शापसे मुझे मर्त्युलोकमें रहना पड़ेगा' ऐसा विचार करते हुए उर्वशी अप्सराकी दृष्टि उस अति सत्यवादी, रूपके धनी और मतिमान् राजा पुरुरवापर पड़ी ॥३५॥
देखते ही वह सम्पूर्ण मान तथा स्वर्ग-सुखकी इच्छाको छोड़कर तन्मयभावसे उसीके पास आयी ॥३६॥
राजा पुरुरवाका चित्त भी उसे संसारकी समस्त स्त्रियोंमे विशिष्ट तथा कान्ति- सुकुमारता, सुन्दरता, गतिविलास और मुसकान आदि गुणोंसे युक्त देखकर उसके वशीभूत हो गया ॥३७॥
इस प्रकार वे दोनों ही परस्पर तन्मय और अनन्यचित्त होकर और सब कर्मोको भूल गये ॥३८॥
निदान राजाने निःसंकोच होकर कहा - ॥३९॥
" हे सुभ्रु ! मैं तुम्हारी इच्छा करता हूँ, तुम प्रसन्न होकर मुझे सुभ्रु ! मैं तुम्हारी इच्छा करता हूँ, तुम प्रसन्न होकर मुझे प्रेम - दान दो । " राजाके ऐसा कहनेपर उर्वशीने भी लज्जावश स्खलित स्वरमें कहा - ॥४०॥
" यदि आप मेरी प्रतिज्ञाको निभा सकें तो अवश्य ऐसा हि हो सकता है । " यह सुनकर राजाने कहा - ॥४१॥
अच्छा, तुम अपनी प्रतिज्ञा मुझसे कहो ॥४२॥
इस प्रकार पूछनेपर वह फिर बोली - ॥४३॥
" मेरे पुत्ररूप इन दो मेषों ( भेड़ों ) को आप कभी मेरी शय्यासे दूर न कर सकेंगे ॥४४॥
मैं कभी आपको नग्न न देखने पाऊँ ॥४५॥
और केवल घृत ही मेरा आहार होगा - ( यही मेरी तीन प्रतिज्ञाएँ हैं ) " ॥४६॥
तब राजाने कहा - ऐसा ही होगा। " ॥४७॥
तदनन्तर राजा पुरूरवाने दिन - दिन बढ़ते हुए आनान्दके साथ कभी अलकापुरीके अन्तर्गत चैत्ररथ आदि वनोंमें और कभी सुन्दर पद्मखण्डोंसे युक्त अति रमणीय मानस आदि सरोवरोंमें विहार करते हुए साठ हजार वर्ष बिता दिये ॥४८॥
उसके उपभोगसुखसे प्रतिदिन अनुरागके बढ़ते रहनेसे उर्वशीको भी देवलोकमें रहनेकी इच्छा नहीं रहीं ॥४९॥
इधर, उर्वशीके बिना अप्सराओं, सिद्धों और गन्धर्वोंको स्वर्गलोक अत्यन्त रमणीय नहीं मालूम होता था ॥५०॥
अतः उर्वशी और पुरुरवाकी प्रतिज्ञाके जाननेवाले विश्वावसुने एक दिन रात्रिके समय गन्धवोंके साथ जाकर उसके शयनागारके पाससे एक मेषका हरण कर लिया ॥५१॥
उसे आकाशमें ले साते समय उर्वशीने उसका शब्द सुना ॥५२॥
तब वह बोली - " मुझ अनाथाके पुत्रको कौन लिये जाता है, अब मैं किसकी शरण जाऊँ ? " ॥५३॥
किन्तु यह सुनकर भी इस भयसे कि रानी मुझे नंगा देख लेगी, राजा नहीं उठा ॥५४॥
तदनन्तर गन्धर्वगण दूसरा भी मेष लेकर चल दिये ॥५५॥
उसे ले जाते समय उसका शब्द सुनकर भी उर्वशी हाय ! मैं अनाथा और भर्तृहीना हूँ तथा एक कायरके अधीन हो गयी हूँ । इस प्रकार कहती हुई वह आर्त्तस्वरसे विलाप करने लगी ॥५६॥
तब राजा यह सोचकर कि इस समय अन्धकार है ( अतः रानी मुझे नग्न न देख सकेगी ) . क्रोधपुर्वक 'अरे दुष्ट ! तु मारा गया' यह कहते हुए तलवार लेकर पीछे दौड़ा ॥५७॥
इसी समय गन्धर्वोनि अति उज्ज्वल विद्युत् प्रकट कर दी ॥५८॥
उसके प्रकाशमें राजाको वस्त्रहीन देखकर प्रतिज्ञा टुट जानेसे उर्वशी तुरन्त ही वहाँसे चली गयी ॥५९॥
गन्धर्वगण भी उन मेषोंको वहीं छोड़कर स्वर्गलोकमें चले गये ॥६०॥
किन्तु जब राजा उन मेषोंको लिये हुए अति प्रसन्नचित्तसे अपने शयनागारमें आया तो वहाँ उसने उर्वशीको न देखा ॥६१॥
उसे न देखनेसे वह उस वस्त्रहीन - अवस्थामें ही पागलके समान घूमने लगा ॥६२॥
घूमते - घूमते उसने एक दिन कुरुक्षेत्रके कमल - सरोवरमें अन्य चार अप्सरा ओंके सहित उर्वशीको देखा ॥६३॥
उसे देखकर वह उन्मत्तके समान ' हे जाये ! ठहर, अरी हृदयकी निष्ठुरे ! खड़ी हो जा, अरी कपट रखनेवाले ! वार्तालापके लिये तनिक ठहर जा' ऐसे अनेक वचन कहने लगा ॥६४॥
उर्वशी बोली - 
" महाराज ! इन अज्ञानियोंकी-सी चेष्टाओंसे कोई लाभ नहीं ॥६५-६६॥
इस समय मैं गर्भवती हूँ । एक वर्ष उपरान्त आप यहीं आ जावें, उस समय आपके एक पुत्र होगा और एक रात मैं भी आपके साथ रहूँगी । " उर्वशीके ऐसा कहनेपर राजा पुरुरवा प्रसन्न चित्तसे अपने नगरको चला गया ॥६७॥
तदनन्तर उर्वशीने अन्य अप्सराओंसे कहा - ॥६८॥
" ये वही पुरुषश्रेष्ठ हैं जिनके साथ मैं इतने दिनोंतक प्रेमाकृष्ट - चित्तसे भुंमण्डलमें रही थी ॥६९॥
इसपर अन्य अप्सराओंने कहा - ॥७०॥
" वाह ! वाह ! सचमुच इनका रूप बड़ा ही मनोहर है, इनके साथ तो सर्वदा हमारा भी सहवास हो " ॥७१॥
वर्ष समाप्त होनेपर राज पुरूरवा वहाँ आये ॥७२॥
उस समय उर्वशीने उन्हें ' आयु' नामक एक बालक दिया ॥७३॥
तथा उनके साथ एक रात रहकर पाँच पुत्र उप्तन्न करनेके लिये गर्भ धारण किया ॥७४॥
और कहा - हमारे पारस्परिक स्नेहके कारण सकल गन्धर्वगण महाराजको वरदान देना चाहते हैं अतः आप अभीष्ट वर माँगिये ॥७५॥
राज बोले -
" मैंने समस्त शत्रुओंको जीत लिया है, मेरी इन्द्रियोंकी सामर्थ्य नष्ट नहीं हुई है, मैं बन्धुजन, असंख्य सेना और कोशसे भी सम्पन्न हूँ, इस समय उर्वशीके सहवासके अतिरिक्त मुझे और कुछ भी प्राप्तव्य नहीं है । अतः मैं इस उर्वशीके साथ ही काल - यापर करना चाहता हूँ । " राजाके ऐसा कहनेपर गन्धर्वोने उन्हें एक अग्निस्थाली ( अग्नियुक्त पात्र ) दी और कहा - " इस अग्निके वैदिक विधिसे गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिणाग्निरूप तीन भाग करके इसमें उर्वशीके सहवासकी कामनासे भलीभाँति यजन करो तो अवश्य ही तुम अपना अभीष्ट प्राप्त कर लोगें । " गन्धर्वोंकि ऐसा कहनेपर राजा उस अग्निस्थालीको लेकर चल दिये ॥७६-७८॥
( मार्गमें ) वनके अन्दर उन्होंने सोचा - ' अहो ! मैं कैसा मूर्ख हूँ ? मैंने यह क्या किया जो इस अग्निस्थालीको तो ले आया और उर्वशीको नहीं लाया ' ॥७९-८०॥
ऐसा सोचकर उस अग्निस्थालीको वनमें ही छोड़कर वे अपने नगरमें चले आये ॥८१॥
आधीरत बीत जानके बाद निद्रा टुटनेपर राजाने सोचा - ॥८२॥
' उर्वशीकी सन्निधि प्राप्त करनेके लिये ही गन्धर्वोने मुझे वह सन्निधि प्राप्त करनेके लिये ही गन्धर्वोने मुझे वह अग्निस्थाली दी थी और मैंने उसे वनोंमें ही छोड़ दिया ॥८३॥
अतः अब मुझे उसे लानेके लिये जाना चाहिये ' ऐसा सोच उठकर वे वहाँ गये, किन्तु उन्होंने उस स्थालीको वहाँ न देखा ॥८४॥
अग्निस्थालीके स्थानपर राजा पुरुरवाने एक शमीगर्भ पीपलके वृक्षको देखकर सोचा ॥८५॥
'मैंने यहीं तो वह अग्निस्थाली फेंकी थी । वह स्थाली ही शमीगर्भ पीपल हो गयी है ॥८६॥
अतः इस अग्निरूप अश्वत्थको ही अपने नगरमें ले जाकर इसकी अरणि बनाकर उससे उप्तन्न हुए अग्निकी ही उपासना करूँ' ॥८७॥
ऐसा सोचकर राजा उस अश्वत्थको लेकर अपने नगरमें आये और उसकी अरणि बनायी ॥८८॥
तदनन्तर उन्होंने उस काष्ठको एक - एक अंगुल करके गायत्री - मन्त्नका पाठ किया ॥८९॥
उसके पाठसे गायत्रीकी अक्षर - संख्याके बराबर एक - एक अंगुलकी अरणियाँ हो गयीं ॥९०॥
उनके मन्थनसे तीनों प्रकारके अग्नियोंको उप्तन्न कर उनमें वैदिक विधिसे हवन किया ॥९१॥
तथा उर्वशीके सहवासरूप फलकी इच्छा की ॥९२॥
तदनन्तर उसी अग्निसे नाना प्रकरके यज्ञॊंका यजन करते हुए उन्होंने गन्धर्व लोक प्राप्त किया और फिर उर्वशीसे उनका वियोग न हुआ ॥९३॥
पूर्वकालमें एक ही अग्नि था, उस एकहीसे इस मन्वन्तरमें तीन प्रकारके अग्नियोंका प्रचार हुआ ॥९४॥
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेंऽशे षष्ठोऽध्यायः ॥६॥