राजा पुरूरवा
राजा पुरूरवा ब्रह्मा के पुत्र थे अत्रि, जिनके नेत्रों से चन्द्रमा का जन्म हुआ। ब्रह्माजी ने चन्द्रमा को ब्राह्मण औषधि और नक्षत्रों का स्वामी बना दिया। चन्द्रमा ने त्रिलोकी विजेता हो राजसूय यज्ञ किया। बलपूर्वक एक बार चन्द्रमा ने वृहस्पति पत्नी तारा को हर लिया। वृहस्पति ने अनेक बार पत्नी-तारा को लौटाने की प्रार्थना चन्द्रमा से की, पर, बात बनी नहीं। शुक्राचार्य जी ने वृहस्पति के द्वेष से चन्द्रमा का साथ पकड़ा और महादेव ने अपने विद्यागुरु अंगिरा-पुत्र वृहस्पति का साथ लिया। इन्द्र ने सभी देवों के साथ वृहस्पति का पक्ष लिया। तारा को लेकर देवासुर संग्राम एक हो ही गया! अंगिरा जी ने ब्रह्मा से हस्तक्षेप करने को कहा। ब्रह्माजी ने चन्द्रमा को डाटा और तारा को वृहस्पति के हवाले कर दिया। तारा उस समय गर्भवती थी।
वृहस्पति सन्तान कामी थे। अत: उस पुत्र को अपना घोषित किये, चन्द्रमा ने अपना कहा। फिर चन्द्रमा और वृहस्पति में ठन गयी। ब्रह्माजी ने हस्तक्षेप फिर किया और तारा से अकेले में पूछा-किसकी संतान है तुम्हारे गर्भ में! लजाती तारा ने कहा-'चन्द्रमा की।' अत: चन्द्रमा को बालक मिला। ब्रह्मा जी ने बालक का नाम बुध रखा। बुध द्वारा इला के गर्भ से पुरूरवा का जन्म हुआ। एक दिन इन्द्र की सभा में पुरूरवा के रूप, गुण, उदारता, शील, वैभव और शौर्य की अनुशंसा नारद जी के मुंह से सुनकर उर्वशी अप्सरा पुरूरवा को अपनी आँखों से देखने पुरूरवा के पास पहुँची। देवांगना को अपने पास देखकर पुरूरवा भी आह्लादित हो उठे। उर्वशी को मित्रावरुण के शाप से मृत्युलोक आना पड़ा था। दोनों के बीच मधुर संभाषण हुआ। उर्वशी ने अपनी अनुरक्ति पुरूरवा और पुरूरवा ने अपना प्रेम उर्वशी में व्यक्त किया। देवांगना मृत्युलोक के इस शौर्य पर निछावर थी! पर, मानिनी उर्वशी ने पुरूरवा के बीच शर्त रखी, जिसमें धरोहर रूप में भेंड के दो बच्चे राजा पुरूरवा को सौंपे रक्षार्थ और बोली-मृत्युलोक में वह भोजन में मात्र घृत खाया करेगी और रतिक्रिया के समय को छोड़ अन्य किसी समय पुरूरवा वस्त्रहीन न दिखें उर्वशी को। कामशास्त्रोक्त रीति से चैत्ररथ, नन्दनवन आदि में दोनों विहार करने लगे। वर्षों बीत चले। इधर लम्बी अवधि तक इन्द्र ने उर्वशी को नहीं देखा। उसे लाने के लिये गन्धों को इन्द्र ने भेजा। आधी रात के अन्धेरे में गन्धों ने उर्वशी के पास आकर दोनों धरोहर मेमनों को चुरा लिया और चलते बने। पुत्रवत पालित मेमनों की 'बें-बें' ध्वनि सुनते ही उर्वशी आवेश में बोलने लगी-'अरे! पुरूरवा तो शावकों को बचा नहीं पा रहा है। यह दिन में मर्द बनता है, रात में स्त्रियों की तरह डर कर सोया है।' हाथी को बिंधे अंकुश की तरह उर्वर्शी के व्यंग्य बाणों से बिंधे पुरूरवा क्रोधित हो तलवार ले निर्वस्त्र ही मेमनों के पीछे दौड़ पड़े। गन्धर्व मेमने छोड़ वहीं बिजली की तरह चमकने लगे, जिनके प्रकाश में उर्वशी ने नग्नावस्था में पुरूरवा को देख लिया। शर्त भंग हो चुकी थी। मृत्युलोक देवलोक से छल लिया गया था! उर्वशी जा चुकी थी। पुरूरवा व्याकुल हो गये।
उर्वशी के बिना उन्मत्त की तरह पृथ्वी में इधर- उधर भटकने लगे। एक दिन कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर उर्वशी को पांच अन्य प्रसन्नमुखी सखियों के साथ देखा पुरूरवा ने और बोले-'प्रिये ठहरो जरा! मेरा शरीर तुम्हारे बिना निष्प्राण है, जिसे भेड़िये ही खाकर संतुष्ट हो सकेंगे।' उर्वशी ने कहा-'स्त्रियों से कैसी मित्रता? भेड़िया और स्त्री दोनों निष्ठुर हैं। क्रूरता और चिढ़ तो स्त्रियों की नाक है। फिर भी तुम राजा हो, घबराओ मत। प्रति वर्ष के बाद एक रात तुम मेरे साथ रहा करोगे। तब तुम्हें और भी सन्तानें होंगी।' पुरूरवा ने देखा-उर्वशी गर्भवती है। एक वर्ष बाद जब राजा पुनः वहाँ गये, तब तक उर्वशी एक वीर पुत्र की माता हो चुकी थी। रातभर उर्वशी के पास रहने के बाद पुरूरवा पुनः विदा होते समय विरहाकुल हो गये। उर्वशी ने कहा- 'तुम इन गन्धर्वो की स्तुति करो। ये चाहें तो मुझको तुम्हें दे सकते हैं। राजा की स्तुति पर प्रसन्न गन्धर्वो ने राजा पुरूरवा को एक अग्नि स्थाली (अग्निस्थापन का पात्र) दी। राजा ने समझा यही उर्वशी है। हृदय से लगाकर एक वन से दूसरे वन वे घूमते रहे। होश आने पर वे उस स्थाली को वन में छोड़ महल लौट आये और रात में उर्वशी का ध्यान करते रहे। इस तरह त्रेतायुग आरंभ होते ही उनके हृदय से तीनों वेद प्रकट हुए।
फिर वे वहीं गये, जहाँ अग्निस्थली छोड़ी थी, वहाँ अब एक शमी वृक्ष के गर्भ में एक पीपल का पेड़ उग आया था। उससे दो अरणियाँ उन्होंने बनायीं। उर्वशी की कामना से नीचे की अरणिको उर्वशी, ऊपर की अरणि को पुरूरवा और बीच के काष्ठ को पुत्ररूप में चिन्तन करते हुए अग्नि प्रज्वलन के मंत्रों से मंथन किया। इससे 'जातवेदा' नामक अग्निप्रकट हुआ। राजा पुरूरवा ने त्रयी विद्या से आहवनीय, गार्हस्वत्य और दाक्षिणाग्नि-तीन भागों में बाँटकर अग्नि को पुत्ररूप में स्वीकार किया। फिर उर्वशी लोक की इच्छा से इन तीनों अग्नियों से श्रीहरि का यज्ञ किया। त्रेता के पूर्व ॐ कार ही एक मात्र वेद था। देवता मात्र नारायण थे। अग्नि भी तीन नहीं एक, वर्ण भी केवल एक 'हंस था। पुरूरवा राजा द्वारा ही त्रेता में वेदत्रयी और अग्नित्रयी का आविर्भाव हुआ। अग्नि को सन्तान रूप में स्वीकार कर पुरूरवा ने गन्धर्व लोक की प्राप्ति की।
स्त्रोत : फणीन्द्र नाथ चतुर्वेदी जी के निबंध