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पिक्चर अभी बाकी है ~

याद हो आती है वो पहली फ़िल्म जिसे देखने के दौरान मानो शरीर  की सुध बुध तक खो गयी थी । कथानक की  बढ़ती गति में नायिका राधा का नई नवेली दुल्हन के रूप में अवतरण और घर की जिम्मेवारियों को निभाते हुए एक कुशल गृहणी की तरह परिवर्तित हो जाना ,मानो सब कुछ अपने घर के भीतर ही घटित हो रहा था । राधा के रूप में अभिनेत्री नरगिस जिंदगी के तमाम थपेड़ो से दो चार होते हुए नारी व्यक्तित्व के नए आयामों को स्पर्श करती हैं । एक नवयुवती से लेकर एक मां बनने के साथ साथ मदर इंडिया के रूप में उसका व्यक्तित्व एक मिसाल की तरह आज भी प्रासंगिक हो उठता है , भारतीय संस्कृति के आदर्शों के व्यावहारिक रूप की इतनी सुंदर प्रस्तुति विरले ही मिलती है ।समूची फ़िल्म पचास साठ के दशक के जिंदगी की जद्दोजहद को तो दर्शाती ही है लेकिन ये भी जतलाती है कि जिंदगी धूप में तपकर और छांव में साधकर ही निखरती है । अंधेरे और उजाले का चक्र एक निष्णात सच्चाई है ।


जंजीर , शोले ,दीवार से लेकर अस्सी और नब्बे के दशक में बदलती सिनेमाई तस्वीर एकल  नही थी ये अपने साथ समाज को भी बदल रही थी या दूसरे शब्दों में कहे तो समाज का ही प्रतिविम्बन कर रही थी । अस्सी के दशक के राजनीतिक भूचाल और व्यवस्था के प्रति आक्रोश का प्रस्फुटन जहां अमिताभ बच्चन , विनोद खन्ना सरीखे नायक प्रदर्शित कर रहे थे । तो नब्बे के दशक में उदारीकरण और वैश्वीकरण ने निर्माता निर्देशकों को विश्व दर्शन करवाने के लिए खिड़कियां खोल दी थी । शिफॉन की साड़ी में नृत्यरत नायिका और सुटधारी नायक स्विट्ज़रलैंड में दृश्यमान होकर व्यवसायिक सफलता की गारन्टी माने जाने लगे थे ।
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 अदाकारों का पूरा चरित्र समाज पर और समाज के लोगों पर इस तरह प्रभाव छोड़ता आया है कि जहां केश सज्जा और वस्त्र परिधान समाज के एक व्यापक हिस्से द्वारा अनुसरित किया जाता रहा है वही नायक की मानवीय कमजोरियों को भी खुद में ढाल कर पूजित किया गया , देवदास के नायक का सीने पर हाथ रख कर खाँसना भी एक ट्रेंड बन कर छा जाना सोचने और विवश कर देता है । 

हर कालखंड का सिनेमा कॉमर्शियल और क्लासिकल यानी कल्पना और यथार्थ का संश्लेषण दर्शाता है । कल्पना उस कल्पित भविष्य की जिसमे अंधेरे का नामोनिशान ना हो सर्वत्र उजाला पसरा रहे तो यथार्थ उस कठोर भूतल से अवगत कराता है जिसमें बिना अंधेरों के उजाला एक स्याह झूठ की मानिंद प्रतीत होता है , वर्तमान शिल्पकारों में  करन जौहर कल्पना तो अनुराग कश्यप यथार्थ के इन दो धाराओं के शीर्षतम प्रस्तुतिकर्ता के रूप में देखे जा सकते हैं ।


 चाहे जो भी हो , हिंदुस्तान की पहली फ़िल्म आलम आरा और सत्यवादी हरिश्चन्द्र से शुरू हुई इस यात्रा ने अपने तकरीबन सौ सवा सौ काल के दरमियान समाज को करीब से ना सिर्फ बदलते देखा है बल्कि स्वयं भी इस बदलाव को जीया है । और समाज का कोई तबका इससे अछूता रहा हो ऐसा कोई भी चरित्र विरले ही देखने को मिलता है , गैंग ऑफ वासेपुर के प्रबल चरित्र रामाधीर भी "मैं सिनेमा नही देखता" बोलने के लिए सिनेमाई पर्दे के सहारा ले रहे होते हैं  । यहां तक कि युग प्रवर्तक मोहनदास गांधी की के अबोधता के ऊपर भी पहली फ़िल्म हरिश्चन्द्र के नायक चरित्र ने बोधता की गहरी छाप छोड़ी थी । 

आज सिनेमा ने स्वयं को कई अन्य आयामों में विस्तारित कर लिया है । इंटरनेट पर भी वेब सीरीज का एक समानांतर स्वरूप विस्तृत हो रहा है , सेक्रेड गेम्स, मिर्ज़ापुर , रंगबाज़ , अपहरण , असुर आदि आदि  , अभिव्यक्ति के किस पहलू को ये धारा स्पर्श कर रही है । ये देखना वाक़ई दिलचस्प होगा । ये प्रश्न ठीक वैसे ही है जैसे भोजपुरी विद इस भाषा के अश्लील शब्दों की प्रस्तुति को लेकर ऊहापोह की स्थिति में रहते हैं कि इसे भाषा और संस्कृति का प्रचार समझा जाये या दुष्प्रचार .... ? ...ये पहलू अलग विमर्श की मांग करता है ...

वास्तव में सिनेमा और समाज के इस संश्लेषण का विश्लेषण उस दौर के गुजरने के बाद विश्लेषित किया जाता रहा है ।


बहरहाल  सूचनाएं व्यापक स्वरूप अख्तियार कर रही है । इन प्रवाहों की वास्तविक दशा क्या होगी  ये तो आने वाला वक़्त ही निर्धारित करेगा । सिनेमा वस्तुतः एक अभिव्यक्ति है समाज की , व्यक्ति की । ये अभिव्यक्ति यदि नैसर्गिक रहे तो आने वाला समाज ऋणी रहेगा  अपनी पूर्व संततियों के लिए ,हम पूर्वजों के लिए , एक ऐसी धरोहर के लिए जिसमे समाज की वास्तविक सच्चाई विद्यमान रही , जो निर्मुक्त रही अपने कालखंड की राजनीति से , निर्बाध रूप से जिसने समाज के हर पहलू को सलीके से स्पर्श किया । ठीक वैसे जैसे साहित्य भी रहा है । वरना लोदी के समय मे कबीर का राग ना सुना जा पाता, मुग़लिया खंड मे तुलसी और नानक मुखर ना हुए होते । अंग्रेजी शासन में प्रेमचंद और निराला अभिव्यक्त नही हो पाते । हालांकि कुछ तस्वीरें अभी भी धुँधली और स्याह है ,जिनसे गुजरते वक़्त यूँ भान होता है कि अभिव्यक्ति का गला घोंटा गया है उसके नैसर्गिक बहाव को अवरोधित किया गया है । कुछ पन्ने फाड़े गए कुछ इबारतें स्याह कर दी गयी है । 

सिनेमा की विधा समाज से एक सरल संवाद करती हुई विधा है । इन अर्थों में इसकी जिम्मेवारी भी काफी बड़ी हो जाती है , यह विधा इन उत्तरदायित्वों को अपने कंधो पर ढो लेगी इसका पूरा विश्वास हम सभी को है । हम सभी को भी ऐसा समाज निर्मित करना होगा ।  चलचित्र से कल का चित्र सुंदर और मनोहारी निर्मित होगा ऐसा यकीन सुधिजनों को भी है ~

पिक्चर अभी बाकी है

रितेश ओझा
Chapters
पिक्चर अभी बाकी है ~ केसरी~ फिल्म समीक्षा -मैदान मूवी लापता लेडीज ; मनोरंजन में संदेश। मई 21, 2024 Uncategorized भागती दौड़ती हुई जिंदगी में कभी कभी एक ठिठकन काफी सुकून दे जाती है । जैसे लंबे वक्त से काम कर रही आंखो को बत्ती का गुल हो जाना मानो सौ वॉट की मुस्कान से भर जाता है । कुछ ऐसी ही ठिठकन कुछ ऐसी ही मुस्कुराहटों से भरी है लापता लेडीज। गोया तपते हुए रेगिस्तान में एक ठंडी बयार के मानिंद एक अलहदा मनोरंजन देती है “किरण राव” के निर्देशन में बुनी गई कहानी लापता लेडीज। जहां एनिमल ,गदर की हिंसा और भावोत्तेजक प्रदर्शन से इतर एक मासूम सी कहानी रची गई है । . किरण राव ने एक महिला निर्देशक के तौर पर उन तमाम मुद्दों को उठाकर एक व्यंगात्मक प्रेम कहानी प्रस्तुत की है जिन मुद्दों से दो चार करने में मंझे हुए निर्माता और निर्देशक भी पसीने पसीने हो जाते हैं । .देश के दूर दराज के क्षेत्रों में ही वास्तविक नारी सशक्तिकरण को मापा जाना चाहिए और इसकी शुरुआत भी वही से ही की जानी चाहिए । घूंघट प्रथा पर तगड़ी मार कहानी की शुरुआत में ही कर दी गई है ,और फिल्म का मिजाज़ सेट कर दिया गया है जब दो नई दुल्हनें घूंघट में चेहरा छुपाए अपने अपने दूल्हे से बिछड़ जाती हैं । और फिर शुरू होती है दुल्हन की खोज ।. . इस मनोरंजक खोज में स्त्री संबंधित सभी प्रासंगिक समस्याओं को ना केवल स्पर्श किया जाता है बल्कि हल्के फुल्के अंदाज में उनका अलहदा समाधान भी सुझाया गया है । वही दूसरी दुल्हन के रूप में प्रतिभा रांटा उस आधुनिक औरत के किरदार में हैं जो सामाजिक रूढ़ियों और बने बनाए प्रतिमानों को तोड़कर अपने लिए नए आकाश चुनने के लिए लड़ रही होती है । .दीपक की बीवी फूल गांव देहात की वो भोली लड़की है जिसे चूल्हा चौका की ही सीख मात्र दी गई है और जिसे ससुराल में भी इसी एकमात्र गुण के साथ भेजा जाता है , लेकिन रेलवे स्टेशन पर वो अपनी “गॉडमदर” मंजू के सहयोग से इस सीख को ही हथियार बना लेती है । औरत का आत्मनिर्भर होना उसे कितना आत्मविश्वास और सुकून से भर देता है वो इससे रूबरू होती है ।और उसका ट्रेन में खोना उसे सत्य से मिलवा देता है जो शायद वो बंद दीवारों के अंदर शायद ही कभी जान पाती । कभी कभी गलत पते पर पहुंचना भी सही पते से बेहतर साबित होता है ।. . इस दिलचस्प कहानी को आज के तकरीबन बीस बाईस साल पहले के परिवेश में रचा गया है ,जब मोबाईल फोन ताजा ताजा ही अस्तित्व में आया था । बावजूद इसके पूरी फिल्म में आप बेतार ही बेहतर संचार पाते हैं । पूरी फिल्म में हर किरदार अपनी भूमिका को लेकर जहां चुस्त और मुस्तैद नज़र आता हैं वहीं अभिनेता रवि किशन का यह वास्तव में अभिनय का स्वर्णिम काल चल रहा है मानो । अभिनय रूपी पिच पर इन दिनों वो जहां और जिस तरफ भी बल्ला घुमा रहे हैं वो इनके खाते में स्कोर का अंबार ही जुटा रही है । “मामला लीगल है ” जैसी बेहतरीन वेब सीरीज के बाद ये उनका एक और कल्ट अभिनीत प्रस्तुति है जो आपको उनकी हर स्क्रीन प्रेजेंस के साथ ही गुदगुदी देने लगता है । . . फिल्मों के माध्यम से रुपहले पर्दे पर कठिन सवालों के जवाबों को ऐसे चुटीले अंदाज में खोजना और उसे प्रस्तुत कर देना वाकई आश्चर्य में डाल देता है । कभी कभी कभी गंभीरता का लिबास सुधारों के गंभीर कदम को उठने ही नही देता । तो फिर इन मौजू सवालों के जवाब इस अंदाज में सामने आते हैं कि हम हतप्रभ ही हो जाते हैं । कुल मिलाकर सिनेमा की विधा ऐसे हर रोमांचक प्रस्तुति से स्वयं को और समृद्ध पाती है । आप भी देखिए, निराश नहीं होंगे ,क्या पता इस तंद्राशमन से लापता हो रही किसी वनिता को किसी लेडीज़ को सही पता आप भी दिखा सके ~ ऋतेश ओझा इसे शेयर करे: TwitterFacebook ←पिछला टिप्पणी करे Write a comment... टिप्पणी WordPress.com पर ब्लॉग. लापता लेडीज ; मनोरंजन की चाशनी में संदेश का स्वाद ~