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जानवरों के स्मारक

हमारा देश ही कई प्रकार की विचित्रताओं से भरा पूग है जिसकी सानी विश्व में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती, पर राजस्थान इन विचित्र- कथाओ में अपनी विशिष्ट विलक्षणता लिये है। सतियों के स्मारक के लिये तो यह प्रांत त्यात ही घट सताओं के स्मारक भी यहां पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। मानव हित के लिये किये गये विशिष्ट कार्यों के लिये यहां का मनुष्य किसी को आदर देने में कभी नहीं चुका।

गांवों के देवरों में प्रतिष्ठित देवी-देवता और लोक जीवन में प्रचलित कथा--आख्यान गीत-गाथा इसके साक्षी हैं कि जिसने भी यहां पर हित के लिये अपने प्राणों को उत्सर्ग कर दिया वह सदा-सदा के लिये अमर हो गया। यह बात मनुष्य के साथ ही नहीं, जानवर तक के साथ घटित हुई मिलती है। किन्ही जानवरों में मानवीय किंवा देवीय गुणों को परख कर तदनुसार उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने की भी यहा बड़ी प्राचीन परम्परा रही है। कई सांडों, नंदरों, गायो, कुत्तों, सांपों के ऐसे कथा-किस्से मिलेंगे जिनके सुकृत्यों के फलस्वरूप यहां के लोगों ने उनकी मृत्यु के पश्चात् उनके स्मारक बनाये हैं|

समाधियां खड़ी की है। बड़े-बड़े भोज दिये हैं। शव-यात्राएं निकाली हैं। बस्तियों का नामकरण किया है। मंदिर प्रतिष्ठित किये हैं, हवन कीर्तन किये हैं। जानवरों को भोजन पर न्यौता है और उनकी अस्थियां तक गंगाजी मे प्रवाहित की हैं। इससे यह स्पष्ट है कि हमारे यहां गुण-पूजा को प्रधानता सदेव दी जाती रही है चाहे वह जानवर भी क्यों न हो गाय को हमारे यहा माता कहा गया है। प्राचीन शास्त्रों में भी इसके कई उल्लेख मिलते हैं। बहिन-बेटी को शादी के पश्चात् गाय दी जाती है। वछ बारस का लो त्यौहार ही गाय पूजन का है। गायों के साथ-साथ बछड़ों का भी हमारे यहां बड़ा प्यार-आदर है। दीवाली पर हीड गाई जाती है जिसमें गौ-पुत्र को सर्वाधिक महत्व-गौरव दिया जाता। मिलते हैं।

बहिन-बेटी को शादी के पश्चात् गाय दी जाती है। वछ बारस का त्यौहार  ही लो  गाय पूजन का है। गायों के साथ-साथ बछड़ों का भी हमारे यहां बड़ा प्यार-आदर है। दीवाली पर हीड गाई जाती है जिसमें गौ-पुत्र को सर्वाधिक महत्व-गौरव दिया जाता स्मारक जानवर के २७ है। दीवाली के दूसरे दिन गाव गाव बैलो की विशेष पूजा की जाती है। चौपों में गाये भडकाई जाती हैं और उन्हें लपसी-चावल का भोजन कराया जाता है।

जन्नपुर जिले के सुमेरपुर के निकटवर्ती गाव बीसलपुर में गाय-बछडे का बडा भव्य मन्दिर बनाया गया है जिस पर चालीस हजार रूपये खर्च किये गये हैं। इस मन्दिर के पीछे भी एक अजीब घटना-प्रसंग जुड़ा हुआ हे। सन ७४ की जलझूलनी एकादशी को इस गाव की महिलाओं ने पांच दिवसीय उपवास किया और एक गाय तथा बछड़े का पूजन किया| आखिरी दिन उपवास खोलने के एक घटे पहले वह गाय मृत्यु को प्राप्त हुई।

गाव वालों ने सोचा कि गाय बडी पुण्य वाली थी। पूर्व जन्म मे उसके द्वारा किये गये अच्छे कार्यों के फलस्वरूप उसे महिलाओं का पूजापा मिला और उपवास के दौरान उसने शरीर छोड़ा अत: उसकी स्मृति को अमर रखा जाना चाहिये। इसी भावना ने वहा मन्दिर का निर्माण ऋगया और उसमें गाय-बछड़े की पत्थर की बनी प्रतिमा प्रतिष्ठित की गई। आस-पास के लोग आज भी बड़े श्रद्धाभाव से मन्दिर के दर्शन करते हैं और गाय- बछडे के प्रति सम्मान के भाव ग्रहण करते हैं।

गाय बरछन्द्र के साथ साथ सांड को भी बड़ी पूज्य भावना से देखा जाता मारवाड में तो इन साडों को लोग प्रतिदिन नियमित रूप से मिठाई आदि खिलाते भी देखे गये हैं। कभी किसी दुकान में यदि किसी सांड ने कोई चीज खाली तो भी दुकानदार उसके प्रति बुरी भावना नहीं लायेगा। शेखावाटी के फतहपुर में तो सांड का एक स्मारक बना हुआ है जिसके साथ एक शिलालेख तक एक सेठ ने लगवाया था।

कहते हैं, साड की मृत्यु पर यहां के एक सेठ ने ऐसा मृत्युभोज किया जिसमें सात तरह की मिठाइया बनवाई गई और सारे नगर को जीमने के लिये बुलाया गया। उसी समय एक बडे चबूतरे पर सांड की मूर्ति स्थापित की गई और शिलालेख लगवाया गया जिसे आज भी पडा जा सकता है। उस पर अंकित लेख इस प्रकार है|

श्री गोपीनाथजी गुलराजजी सिंघानिया माह सुदी १३ शुक्रवार स. १९३० श्रीजी सरण हुआ उमर वर्ष ५० का जिकालर साड छोड्यो जै साड को स्वर्गवास हुयो भादवा सुदी १५ गुरुवार सं. १९४५ न जै सांड को यो च्युतरो करायो। कई जगह सांड की मृत्यु हो जाने पर उसकी गाजे-बाजे के साथ शव यात्रा निकाली जाती है। ऐसी स्थिति में उसे कफन ओढाकर भैंसा गाडी में लादकर पूरे कस्बे में घुमाया जाता है।

पुष्प गुलाल से उसे सम्मान-श्रद्धा भाव दिये जाते हैं। धूप अगरबत्ती की जाती है| बीकानेर के पुनास गांव के लोगों ने तो सांड की मृत्यु पर उसकी समाधि बनाई और चौतरफा वृक्ष लगाये नाथद्वारा में तो एक बार एक साड की शव यात्रा निकाल कर उसे दो बोरी नमक के साथ दफनाया।

उदयपुर के अभा, नमशान घाट मे सती की चबूतरी के पास सांड की चबूतरी बनी हुई है। सभा के गुलान्य भाग में महागणा फतहसिह (१८८४-१९३०) की कुतिया की छतरी है: इस नया बिग्राहसी धूमधाम से खास ओदी के महत के कुत्ते से हुआ। इस कुते का स्मारक के किनारे खास ओदी पर बना हुआ है। धूणी पर दोनों के विवाह का फोट भी लगा रखा है। वर्तमान में यहां के महंत प्रयागदासजी है।

कुत्तों की मृत्यु पर तो तालाब तथा छतरी तक बनाये गये हैं। जोधपुर में एक बणजारे ने अपने प्रिय पात्र रातिया नामक कुत्ते की यादगार में एक नाड़ा नालाब व छतरी बनाई। यही इलाका जब बस्ती में परिवर्तित हुआ तो उसका नामकरण ही रातिया तथा नाडा के सम्मिलित रूप मे “रातानाडा” हो गया जो आज भी इसी नाम से जाना जाता है, कहा जाता है कि यहा के बालसमद उद्यान में जोधपुर के राजपरिवार के कुनो के कई स्मारक हैं।

ये स्मारक इस परिवार के स्वामिभक्त कुते टेनी, पिटगी, ब्यूटी, शामर, किवी, फार्म, काजी, चांग, मायल, मिसचीफ मेकर आदि के है। जनवरी सन् ७७ में नसीराबाद के सायर ओली बाजार में शेरसिंह नामक कने की मृत्यु पर बैंडबाजो तथा फूल गुलाल की उछाल के साथ शवयात्रा निकाली। पूरे वार दिन तक उसका शोक मनाया गया। बारहवें दिन नगर के तमाम कुत्तों को गल्लो। गुलगुल्ली तथा रसगुलो का भोजन कराया गया। इस दिन सुबह भजन कीर्तन हुए। एक कुकर सिह नामक कुत्ते को शेरसिंह का उत्तराधिकारी बनाया गया।

फलस्वरूप उसके पगडी बधाई की रस्म पूरी की गई। रात को अच्छी रोशनी की गई। इस अवसर पर कुत्ते की यादगार को बनाये रखने के लिय फोटो तक खिंचवाये गये। उदयपुर के गुलाब बाग में भी कुतिया की स्मृति में किसी महारानी की बनाई हुई छतरी है। बन्दर को हनुमान का रूप माना जाता है। इसकी मृत्यु पर तो सजी सजाई डोल निकाली जाती है जिसमे बन्दर बैठा हुआ रखा जाता है। कई जगह रात्रि जागरण तथा हवन आदि किये जाते हैं। समाधि देने पर चबूतरा बनाया जाता है और दाह संस्कार पर चन्दन नारियल दिये जाते हैं। रेवाडी के चौक बाजार में हनुमानजी की मूर्ति के चरणों में शरीर छोड़ने वाले बन्दर को जगनगेट के पास वाली ठठेरों की बगीची में समाधिस्थ किया गया।

कुचेरा में तो एक बन्दर की विद्युत करंट से मृत्यु होने पर उसकी डोली निकाली गई। कहते हैं कि मरते वक्त उसके मुंह से 'राम' शब्द सुनाई दिया। इस बन्दर को यहा से लीराई ले जाया गया और किसी तरह उसकी यादगार बनाये रखने के लिये एक समिति का निर्माण किया गया जिसने करन्ट बालाजी के नाम से एक मन्दिर का निर्माण किया के २९ सापों की मृत्यु पर भी इसी तरह के विचित्र क्रियाकर्म किये जाते है।

जैसलमेर मे तो साप को कफन देकर समाधिस्थ करते है..!!! भवानी मंडी के निवासी रामप्रताप तेली ने तो अपने कुए पर रह रहे सर्पराज की मृत्यु होने पर उसे चदन का दाग दिया और विधिवत् क्रियाकर्म करने के उपरान्त उसके अवशेष लेकर हरिद्वार की यात्रा की और गगाजी मे उसकी अस्थिया प्रवाहित की।

साधारण जनता में ही समाधियों का प्रचलन नहीं रहा, राजा-महाराजाओं ने भी अपने प्रिय जानवरों की यादगार में स्मारको का निर्माण कराया। मुगल बादशाह अकबर को एक हथिनी बहुत प्रिय थी जिस पर बैठकर वे शिकार को जाया करते थे। इस हथिनी ने कई बार बादशाह की रक्षा की। जब वह मर गई तो बादशाह ने फतहपुर सीकरी में इसकी स्मृति में एक मीनार बनवाई जो हिरण मीनार के नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रकार बीकानेर के महाराजा अनूपसिंह के स्मारक के पास मोरों का स्मारक भी अपने मे बडी दिलचस्प घटना है।

कहते हैं जब महाराजा अनूपसिंह की मृत्यु के बाद उनका दाहसंस्कार किया जा रहा था तो पास ही के एक वृक्ष से एक-एक कर कई मोर कूद कर चिता में जल मरे। लोग जब इन मोरो को बचाने लगे तो कहते हैं चिता से आवाज गूजी इन्हें मत बचाओ, जलने दो । ये पिछले जन्म के राज परिवार के सदस्य है। जलने से ही इनकी सद्गति होगी। ऐसी स्थिति में उन मोरों का भी वहा स्मारक बनवा दिया गया।

तमिलनाडू के रामनाथपुरम जिले की एक पहाडी के शिखर पर एक हाथी के दात का स्मारक बना हुआ है। कहते हैं पहाडी पर बने शिव मंदिर में प्रतिदिन हाथी आया करता था जिसके एक ही दात था। जब वह मर गया तो शिव भक्तों ने उसका एक स्मारक बनाकर उस दांत की भी वहीं स्थापना कर दी। यह तो हमारे देश की बात हुई पर विदेशों में भी ऐसे स्मारक देखने को मिलते है।

अमेरिका के एक गांव में एक बार पकी फसल पर भयानक टिड्डी दल उमड पडा। लोग-बाग बहुत परेशान हुए। उसी समय देवयोग से चीलों का समूह आ पडा जिसने टिड्डी दल का खातमा कर दिया। इस पर गांव वालों ने चीलो का अहसान माना और एक स्मारक बना दिया। यह बात कोई १२५ वर्ष पुरानी कही जाती है। इसी प्रकार रोम में एक बार रात्रि को टाइवर नदी में बाढ़ आ गई। इसकी सूचना नालासी लोग जा गले पर सापती मामालेका साधित रोमलनाडू के रामनाथपुरम जिले की एक पहाडी के शिखर पर एक हाथी के दात बना हुआ है।

कहते हैं पहाडी पर बने शिव मंदिर में प्रतिदिन हाथी आया सके एक ही दात था। जब वह मर गया तो शिव भक्तों ने उसका एक स्मारक दांत की भी वहीं स्थापना कर दी। तो हमारे देश की बात हुई पर विदेशों में भी ऐसे स्मारक देखने को मिलते है। एक गांव में एक बार पकी फसल पर भयानक टिड्डी दल उमड पडा। बहुत परेशान हुए। उसी समय देवयोग से चीलों का समूह आ पड़ा जिसने का खातमा कर दिया।

इस पर गांव वालों ने चीलो का अहसान माना और बना दिया। यह बात कोई 125 वर्ष पुरानी कही जाती है। प्रकार रोम में एक बार रात्रि को टाइवर नदी में बाढ़ आ गई। इसी दुराण मुग्रेने जोर से बांग डी जिसके फल स्वरूप लोग जागो| रोमवासी मुगों की इस करामात से बड़े प्रभावित हुए और अकी स्मृति में नदी पर एक पुल बनवा दिया।

जानवरों के प्रति मनुष्य का यह प्रेम और ममत्व यह सिद्ध करता है कि गुणों की पूजा का प्रत्येक प्राणी अधिकारी है चाहे वह जानवर ही क्यों न हो। महाराणा प्रताप का प्यारा साथी चेतक भी प्रताप ही की तरह अमर हो गया। हल्दी घाटी के मैदान में बनी उसकी समाधि प्रताप के प्रति उसकी स्वामिभक्ति और शौर्य वीरत्व के कई इतिहास पृष्ठ खोल देती है। सच तो यह है कि पशुओं के बिना मनुष्य अपना जीवन सूना मानना है।

मनुष्य की यदि कोई मजबूरी नहीं हो तो कोई मनुष्य ऐसा नहीं मिलेगा जो अपने साथ कोई न कोई जानवर नहीं रखना चाहेगा।

जानवरों के स्मारक

वीरभद्र
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