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जौहर के साक्षी कल्लाजी

जौहर के साक्षी कल्लाजी: चित्तौड में कुल्न सत्रह जौहर हुए। अतिम जौहर कल्लाजी के समय हुआ जिसमे ये स्वय मौजूद थे। यह एक ऐसा समय था जब अकबर की सेना के एक लाख मुसलमानो ने चित्तौड को चारों ओर से घेर रखा था। ऐसी स्थिति में किले पर खाने तक को नाज नही रहा। तब पेड़ की डालियां, पत्तिया और फल-फूल ही खाने के आहार बने पर जब यह सामग्री भी समाप्त हो गई तब क्या किया जाता। लगभग डेढ़ बरस का समय घोर कष्टों, यातनाओं और आफतों का बीता। एक बार तो कल्लाजी मुसलमान वेश धारण कर बारह कोस दूर तक गाव में गये और पाच सेर मकी छिपाकर, अपने दोनों पावों के बांधकर लाये। भंवराशाह से भंवरे भी आये जिन्होने दुश्मनों को तितर-बितर कर बुरी तरह खदेड़ा तब नाज के कुछ गाडे भरकर लाये गये पर इनसे भी कब तक काम चलता।

अगणित नारियों का जौहर: अन्ततोगत्वा यही तय किया गया कि दुश्मनों के हाथ जाने से तो अच्छा है जौहर कर लिया जाय ताकि नारिया तो अग्नि भेंट हों और पुरुष केसरिया बाना धारण कर आपस में मर मिटें। अत: जौहर की चिता तैयार की गई। इस जौहर में स्वयं कल्लाजी ने रोती बिलखती नारियों को पकड-पकड अग्नि भेंट की। इन नारियों के साथ बालिका को भी चिता दी गई ताकि एक भी बालिका  दुश्मन के हाथ पड़कर अपना सतीत्व भंग न कर सके। बालकों को अवश्य जहां तक बन पड़ा किसी के हाथ बाहर भिजवा दिया गया ताकि वे बड़े होकर अपना राजपूती वश कायम कर सकें। कहीं ऐसा न हो कि सारे ही राजपूत मारे जाय और उनका वंश ही जडमूल से नष्ट हो जाये। इस जौहर में अगणित नारिया जल मरीं। यह जौहर विजय स्तम्भ के पास वाले कुड में किया गया जो आज जौहर कुंड के नाम से जाना जाता है।

दासियों द्वारा कटार जौहर: इस जौहर के बावजूद दासियां तो लकड़ी के अभाव में चिता में सम्मिलित ही नहीं हो पाई। इतनी लकडी कहां से लाई जाती। अत: दासियों ने तय किया कि वे आपस में एक दूसरी को कटार भोंक कर अपने प्राण त्याग देंगी। यही हुआ। जौहर कुड के पास के मैदान में सभी दासियां एकत्र हुईं और कटार युद्ध द्वारा अपनी इहलीला समाप्त की। इस जौहर में दासियों की लाशों की ढेरी इतनी ऊची मगरी बन गई कि अकबर की सेना वह लाशे देखकर कांप उठी| 

जौहर कुड में जल मरने वाली नारियों का त्याग-समर्पण तो जग जाहीर है| मगर इन दासियो का त्याग-उत्सर्ग उनसे भी कई गुना ऊंचा है जिन्होने मातृभूमि की रक्षार्थ जीते जी अपने को ऐसे मरणोत्सव के लिए समर्पित कर दिया।