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एक ऐसे गगन के तले

पैरों के निशां नश्वर होते हुए भी ऐसा बहुत कुछ छोड़ जाते है जिनका अनुसरण या अंगीकरण या फिर उनका तिरस्करण भी भावी पीढ़ियों के लिए अपरिहार्य हो जाता है ।

भारत में ये वो दौर था जब एक पूरी सदी समापन की ओर थी , अर्थात पूरी की पूरी शताब्दी ने क्या खोया और क्या पाया को जानने समझने और हर उल्लेखनीय संश्लेषणो के विश्लेषण का दौर । एक ऐसा दौर जिसे तकरीबन हर क्षेत्र में उल्लेखनीय पड़ावों के लिए जाना जाता रहा है ।
अंतराष्ट्रीय राजनीति में द्विध्रुवीय विश्व मे से एक ध्रुव की दमक क्षीण हो चुकी थी , रसिया की कमर टूट चुकी थी ,स्वयं को टुकड़ो में बंटा पाकर मानो वो शीत युद्ध का एक लंबा योद्धा होते हुए भी रणभूमि में घुटने टेक चुका था । आने वाले कुछ सालों के लिए मानो विश्व की दरोगाई निर्विवाद रूप से अब अमेरिकन डण्डे के हुकूमत के नीचे थी । बर्लिन की दीवार को धूल धूसरित देख मानो पूंजीवाद और समाजवाद गलबहियां करने को तैयार हो रहे थे । जी हां हम  भूमिका दे रहे है उस नाइंटीज की जब बहुत कुछ ऐसा घटित हो रहा था जो किन्ही मायनो में अभूतपूर्व था तो किन्ही क्षेत्रों में शिखरतम की प्राप्ति कर रहा था । 

भारत मे यह दशक राजनीतिक बिसात से लेकर अर्थ के रथ तक , धर्म के नए अर्थों से लेकर कला के सम्मोहन तक , साहित्य की कशमकश उसकी विवशता हो या सिनेमा और संगीत के नए रंगों से साक्षात्कार , इस सबके द्वारा एक नए प्रकार का ही समाज गढ़ा जा रहा था । जिनकी यादों की खुशबू से उस दौर से गुजरा हर दिलो दिमाग लबरेज होगा ही । साथ ही यह दौर एक ऐसी लकीर खींच रहा था जिसके द्वारा जहां इसके पूर्ववर्ती और परिवर्ती पीढ़ियों में एक सेतु निर्मित हो रहा था जो कितना संश्लेषित था या कितना विश्लेषित ये अलग विमर्श का मुद्दा है । वही इस दौर में कुछ पल्लवित पोषित और स्वसृजित हो रहे नवांकुर भी थे जिन्होंने उस दौर के रचनात्मकता और सृजनात्मक मूल्यों को हृदयों में अंगीकार कर रहे थे और आज भी वो गहरे तक मानवीयता के वो मूल्य उनमें कही गहरे तक अंतस्थ हैं । 

अर्थ के क्षेत्र में कहना गलत नही होगा कि ये दौर क्रांतिकारी था , भारतीय अर्थ-रथ के अश्व निढाल और बेहाल हो रहे थे , ना केवल घोटक बल्कि पूरा का पूरा स्यंदन ही जीर्णकाय हुआ पड़ा था । ऐसे समय मे उदारवाद , वैश्वीकरण का स्वीकरण और उसका अंगीकरण मानो एक नैसर्गिक विवशता ही थी । तमाम वैश्विक उत्पाद अपनी मादकता से भारतीय बाजारों और बाजारू हो रहे जनमानस को मदान्ध कर हावी हो जाने के लिए थे । मानो आर्थिक खिड़कियों के साथ ऐसी जाने कितनी खिड़कियां खुलने लगी थी जिसके गुण और दोषों की विवेचना करने का होश किसी को नही था । विश्व समुदाय द्वारा सौंदर्य प्रतियोगिताओं में विश्व सुंदरी और ब्रहांड सुंदरिया मानो अचानक से सपेरों के देश भारत मे अवतरित हो रही थी । आखिर मल्टीनेशनल कंपनियों को वो चेहरे रचने थे जिनकी चकाचौंध में सौंदर्य प्रसाधनों से लेकर हर मौलिक दैनिक देशी वस्तुओं का स्थानांतरण जो करना था । नीम के दातुन की जगह कोलगेट ,विदेशी शैम्पू और पश्चिम की कृत्रिम खुशबू से पूरा  भारतीय बाजार जैसे मदहोश हुआ जा रहा था । बहरहाल~ देश की राजनीति का हाल तो साल दर साल रंग बदलता है फिर ये तो एक पूरा का पूरा दशक ही था । ऐसे में राजनीति की बिसात पर किसकी शह किसकी मात हो रही थी ये जानना भी दिलचस्प होगा, आइये देखें~ 



आज़ादी प्राप्त हुए चार दशक से ऊपर हो रहे थे , ऐसे में वाज़िब सवाल ये बनता था कि क्या हासिल किया हमने अंग्रेजी शासन से मुक्ति पाकर , ये  सवाल तो होने चाहिए थे पर जो हुआ वो नितांत अलग था , गोया वो भी एक पड़ाव था जिसने साबित किया कि अंग्रेज ने जो बीजा था उस वैमनस्य की भूमि कितनी ऊर्वर थी । 

जाति और सम्प्रदाय की राजनीति ने भारतीय विविधता के पामीर पर मानो हाहाकारी प्रहार किया था , जैसे एका की बन्द मुट्ठियाँ ढीली पड़ने लगती थी । सदी की शुरुआत से ही संग्रहित और लहलहाते चले आ रहे स्वतंत्रता संग्राम के अमिट मूल्य मानो जड़वत होते जा रहे थे । एक दशक पूर्व ही सत्ता को जेपी आंदोलन ने फिर से जन आंदोलन की वास्तविक ताकत से अवगत करा दिया था ,तथापि समाजवाद की उनकी ऊर्जा ने उत्तर भारतीय राज्यों में कुछ ऐसे राजनीतिक पुत्र पैदा किये जिन्होंने आने वाले दशकों में न केवल उत्तर बल्कि समूचे भारत की तस्वीर ही बदल दी ।

ऊर्जा का केंद्र रही गंगा घाटी और उसके मैदान जैसे निस्तब्ध थे समाजवादी पवित्रता के इस स्वांग पर , खैर बहुत कुछ होना बाकी था या होता जा रहा था ,सत्ता के गलियारों में मंडल कमंडल ,मंदिर मस्जिद की ऐसी हुक सर्वथा नयी थी । या शायद नया कुछ भी नही था बस एक प्रस्फुटन था , एक प्रस्फुटन राजस्थान के पोखरण में भी सुनाई दिया फिर से पचीस वर्षों बाद , जो ये ध्वनित कर रहा था कि बहरों को सुनाने के लिए धमाके अपरिहार्य हो ही जाते हैं ।

तमाम  बैश्विक प्रतिबंध लाद दिए गए । बावजूद इसके भारत ये हुंकार कर रहा था कि आने वाला समय और शताब्दि 'वसुधैव कुटुम्बकम' के साथ साथ 'शठे शाठयम समाचरेत' के तर्ज़ पर निर्वाहीत की जाएगी । संविधान ने यद्यपि भारतीय संस्कृति , स्वतंत्रता संग्राम के बेशकीमती मूल्यों को अंतस्थ किया था तथापि ये वो राजनीतिक बिसात तो कदापि नही थी जिसकी कल्पना निर्माताओं ने की थी । 

ये एक ऐसा दौर था जहां महान विभूतियों गांधी, सुभाष , तिलक, आज़ाद और भगत सिंह की सलाहियत और सीखों को अंगीकृत तो कदापि नही किया जा रहा था । हां ये जरूर था कि ये स्मरण के बजाय स्मारकों के ध्वंश और निर्माण का कालखंड था । बावजूद इसके कुछ वर्जनाएं टूट रही थी तो कुछ निर्मित भी हो रही थी । 

जी हाँ मनोरंजन का क्षेत्र । आकाशवाणी के साथ दूरदर्शन और खेल के साथ सिनेमा ये कुछ ऐसे क्षेत्र थे जिनका नॉस्टेल्जिया आज तक भुलाए नही भूलता । इन सभी पक्षो पर जरूर गुजरेंगे लेकिन एक नजर साहित्य के धरातल पर भी , क्या कुछ नई परतें बिछाई जा रही थी ! क्या कुछ ऐसा था जो सियासत से अलग था जिसने साहित्य के पटल को किन्ही मायनो में समृद्ध किया हो , देखते हैं~




साहित्य को समाज का दर्पण अनायास ही नही कहा जाता , हर समय का साहित्य अपने समय के चेहरे को सर्वाधिक स्पष्टतम रूप में दिखाता रहा है । शायद तभी कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तलम, मेघदूत और मालविकाग्निमित्रं में गुप्त काल का स्वर्णिम स्वरूप नजर आता है , उनके पात्र संस्कृत में संवाद करते नजर आते हैं तो पृथ्वीराज रासो में वीर रस का आस्वादन मानो उस काल को युद्धकाल के रूप में प्रदर्शित कर रहा होता है। , रूढ़िवादी मानसिकता को अपने दोहों से दोहरा कर रहे कबीर विकृत समाज को सत्य का पाठ पढ़ा रहे थे  तो समाज को आदर्श की राह दिखाते और रामराज्य की उपयोगिता को चरितार्थ करते तुलसी । 

नाइंटीज के दौर का साहित्य लेखन भी हर कालखंड की ही भांति राजनीति और समाज से अक्षुण्ण नही रह पाया । 

जिस दौर की चर्चा की हमने शुरुआत की वो दौर विहंगम संश्लेषण का दौर था । मंडल कमीशन और बाबरी मस्जिद की घटना ने इस दौर के साहित्य सृजन पर भी गहरे तक प्रभाव डाला । इसका प्रगटीकरण प्रियदर्शन की कहानी 'घर चले गंगाजी' में रिमोट क्षेत्रों में सिसक बिलख रहे आम आदमी की व्यथा में देखा जा सकता है या फिर रविंद्र कालिया की कहानियों में , जहां साम्प्रदायिकता पर करारे प्रहार से इस सियासती ताप को पूरे तरीके से अनुभूत किया जा सकता है ।

साथ ही भूमंडलीकरण और विश्व व्यापार संगठन की स्वीकार्यता ने भी इस दौर की कहानियों और उपन्यास विधा को पूरी तल्लीनता से आकार दिया । उपभोक्तावादी संस्कृति की भयावहता अखिलेश की कहानी 'यक्षगान' में सबसे मुखरतम रूप में दिखती है , जिंसमे कहानी की मुख्यपात्र सरोज को इस विभीषिका का भुक्तभोगी बनते दिखाया गया है ।डॉ.अमरनाथ भूमंडलीकरणके विषय में कहते है-'अपराधो में बृद्धि,मनोरंजन के व्यापार में शो बिजनेस के साथ-साथ मुक्त यौनाचार,उद्धाम संगीत और अश्लील साहित्य का हमारे यहाँ भी उद्योग बन चूका है। 

वैशवीकरण ने सामाजिक असमानता की खाई को अभूतपूर्व रूप से और चौड़ा किया , भला साहित्य स्वयं को मानवीय संवेदना के इस पहलू से स्वयं को अछूता कैसे रख पाता । इस असमानता को सबसे सटीक रूप में जयनंदन' कि कहानी 'पानी बिच मीन पियासी' में देखा जा सकता है। 

इन विमर्शों ने साहित्य के क्षेत्र में दलित विमर्श और स्त्री विमर्श के रूप में नई धाराओं से परिचित कराया जो पूर्व में साहित्यिक धरोहरों में मौजूद तो थी , लेकिन उन्हें परिभाषित कर नया चेहरा दिया जाने लगा था ।

यद्यपि राजनीति लेखक को अपना गुलाम बनाकर रखना चाहती है और ये द्वंद्व कोई नया द्वंद्व नही है सर्वथा प्रासंगिक रहा है । हर दौर के रचनाकारों को अपनी रचनात्मकता को संरक्षित कर सच्चे साहित्य के उपासक के रूप में बने रहने की चुनौती तो बानी ही रहेगी ज़ अन्यथा उनका लेखन प्रशस्ति मात्र ही जाना जाएगा । 

राजनीति और अर्थ के साथ साहित्य के गंभीर मुख मुद्राओं से इतर एक और भी विहंगम क्षेत्र था जिंसमे कुछ नए रंग भरे जा रहे थे , मनोरंजन के क्षेत्र में बहुत कुछ ऐसा घटित हो रहा था ,जिसकी चर्चा शायद सबसे बड़े और व्यापक रूप में की जानी चाहिए , कला और सृजनात्मकता की अभिव्यक्ति सबसे लोमहर्षक होती है जो बच्चे से लेकर जवान और वरिष्ठ वर्ग को भी सीधे जोड़ लेता है । आखिर क्यों ना हो मस्तिष्क की नीरसता से इतर यह हृदय पक्ष को स्पर्श और झंकृत जो करती है । आज के शोरगुल से इतर शान्ति के साथ संगीत ,सिनेमा और टेलीविज़न में क्या कुछ घट रहा था जो शायद" ना भूतो ना भविष्यति" सरीखा था , उसे देखने की हम  कोशिश करेंगे

~क्रमशः 
-ऋतेश ओझा

1990 के दौर का भारत

रितेश ओझा
Chapters
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