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अनोखा त्याग

बझाल नामक शहर में श्री गौरांग नाम के एक बडे भक्त हो गए हैं। वे एक भक्त ही नहीं, बल्कि बड़े भारी पंडित भी थे। तर्क शास्त्र में उन की बराबरी करने वाला कोई न था। एक दिन श्री गौरांग किसी काम पर पड़ोस के एक गाँव की ओर जा रहे थे। बीच में एक नदी पड़ती थी। गौरांग एक नाव पर चढ़ गए और नदी पार करने लगे। नाव पानी को चीरती हुई धीरे धीरे आगे बढ़ने लगी।

यहाँ का दृश्य बडा मनोहर था। नदी के दोनों किनारों पर घने पेड़ों की कतारें खड़ी थीं। दूर से पहाड़ों की चोटियाँ दिखाई देती थीं। चारों ओर हरियाली छाई हुई थी। नदी का पानी आइने सा साफ था और उस में किनारे के पेड़ों की परछाई दीख पड़ती थी। गौरांग इस दृश्य को देख कर तन्मय हो गए। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा और वे बाहरी दुनिया को मूल गए।

इस हालत में किसी ने गौरांग की पीठ थपथपा कर उन्हें जगाया। गौरांग चौंक कर चारों ओर देखने लगे। नाव पर चढ़ते वक्त ये अपने विचारों में डूबे हुए थे| इसलिए उन्होंने और किसी ओर ध्यान नहीं दिया था। अब जब उन्होंने पीछे फिर कर देखा तो उन्हें अपने बचपन का साथी और सहपाठी गदाधर दिखाई दिया। उन्होंने कहा,

“अरे..! गदाधर..! तू यहाँ कैसे?? गुरूजी का आश्रम छोड़ने के बाद यह हमारी पहली मुलाकात है। भाई..! तुम्हें देखकर तो में फूला नहीं समाता।”

दोनों मित्र बचपन की बातें याद करते करते अपनी सुध-बुध भूल गए।

“अच्छा, तुम्हें याद है, तुम ने गुरूजी से क्या वादा किया था? तुमने कहा था कि, ‘मैं एक ऐसा तर्कशास्त्र लिखूँगा जिसे देख कर सारा संसार दाँतों तले उँगली दबा लेगा।’ बोलो...! याद है न??” गदाधरने पूछा।

“गदाधर भाई...! हाँ, याद है...! और मैं ने अपना वादा पूरा भी किया है। लो, यह देखो..! तुम इसे पढ़ कर बहुत खुश हो जाओगे।” यह कहते हुए गौरांग ने एक पुस्तक गदाधर के हाथ ने में दे दी।

गदाधर यह पुस्तक खोल कर बढे उत्साह के साथ पढ़ने लगा। पहले उस के मुँह पर आश्चर्य के चिह्न दिखाई दिए। लेकिन पीछे उस पर उदासी झलकने लगी। थोड़ी देर के बाद वह आगे न पढ़ सका। के उसने किताब बंद कर के गौरांग को लौटा दी। उस के मुँह से कोई बात न निकली।

“यह क्या गदाधर यह उदासी कैसी...! इस में ऐसी कौन सी बात है, जिस से तुम्हें इतना दुख पहुँचा है मैं तो तुम्हारा मित्र हुँ...! अगर कोई बात हो तो तुम मुझ से कह सकते हो न..??” गौरांग ने पूछा।

गदाधर ने कोई जवाब न दिया। उलटे उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। वह चुपचाप मुँह फेर कर आँसू पोंछने लगा। पर उसके आँसु नहीं रुके..!

“लाखों किताबें पढ़ने और सैकड़ों किताबें लिखने से क्या फायदा है, जब कि में एक मित्र का दुख दूर नहीं कर सकता! हम बचपन में कितने मुखी थे एक दूसरे को देखने से उस समय हमें कितनी खुशी होती थी| क्या हम आज भी उसी तरह सुखी नहीं हो सकते..! बोलो, क्या तुम मुझे अपने दिल की बात न बतलाओगे???" गौरांग ने पूछा|

आखिर गदाधर चुप न रह सका। उसने कहा,

“क्या कहूँ..? गौरांग...! में कौन सा मुँह लेकर यह बात सुनाऊँ..! तो भी सुनो..! मैं ने भी जीवन भर तपस्या करके तर्कशास्त्रपर एक पुस्तक लिखी है। लेकिन आज तुम्हारी किताब पढ़ने के बाद मुझे पता चला कि, मेरी लिखी किताब किसी काम की नहीं है। हाय..! अब मैं सोचता हूँ कि मेरी सारी मेहनत बेकार गई। ऐसी पुस्तक न में अब तक लिख सका और न आगे कभी लिख ही सकूँगा।"

गदाधर एक ठंडी साँस भर कर चुप हो रहा। इतने में काले काले बादल घिर आए। ऐसा मालूम होता था कि थोड़ी देर में जोर से पानी बरसने लगेगा। इन दोनों मित्रों के हृदय में भी तूफान चल रहा था। वे पानी की ओर देखते चुपचाप बैठे रहे। इधर गौरांग मन ही मन सोच रहा था कि गदाधर का दुख क्यों कर दूर किया जाए...! उसे कोई उपाय न सूझ रहा था। वह पुस्तक अपनी जाँघ पर रखे थोड़ी देर तक यों ही सोचता रहा। न जाने उसे अचानक क्या सूझा कि, उसने किताब उठाकर नदी में फेंक दी।

गदाधर चिल्लाया,

"गौरांग...! यह तुमने क्या किया?? क्या तुम ने समझा कि इससे मेरी उदासी दूर हो जायगी और मुझे खुशी होगी?? तुम्हारे इस त्याग से तुम्हारा यश तो अमर हो गया, लेकिन मेरे मुँह पर कालिख पुत गई। सचमुच मुझे तुम्हारी पुस्तक देखकर तुम से ईर्ष्या हुई थी, लेकिन पल भर के लिए क्या इतनी सी बात के लिए तुम ने संसार को एक अमूल्य पुस्तक से वंचित कर दिया मैं ने सोचा था कि, मैं अपनी पुस्तक, गंगा में बहा दूंगा। पर तुमने खुद ही यह काम किया। हाय..! तुम ने यह क्या किया अब हाथ मल भर कर पछताने से भी क्या होगा...?"

इस तरह यह बहुत शोक करने लगा। पर उस समय गौरांग के मुख पर एक दिव्य ज्योति खेल रही थी।

उस ने कहा, “गदाधर...! तुम कुछ भी सोच न करो...! हम दोनों गुरु-भाई हैं। इसलिए, पुस्तक चाहे मैं लिखूँ या तुम दोनों एक ही है। मैं चाहता हूँ कि, संसार में तुम्हारी ही किताब मशहूर हो जाए। पंडित लोग उसे पढ़े और तुम्हारा नाम सब जगह फैल जाए। फिर तुम बेकार क्यों सोचा करते, हो इस के अलावा जब मैं अपनी किताब लिख रहा था तो मेरे मन में सवाल उठा कि, में यह किताब क्यों लिख रहा हूँ..! मैं आज तक उस सवाल का जवाब ढूँढता ही रहा।”

“यह पुस्तक नदी में फेंक कर में सिर्फ तुम को ही नहीं, बल्कि अपने आप को भी खुश करना चाहता था। उस किताब को पानी में फेंक कर मैं ने अपने अहंकार का नाश कर दिया। अहंकार का नाश करने में ऐसी लाखों किताबें नष्ट हो जाय तो भी कोई हर्ज नहीं।"

“गदाधर...! तुम फिर एक बार हँस दो। मैं अपनी आँखों से एक बार फिर तुम्हारी हँसी देख लूँ, वही मेरे लिए सब से बडा सुख होगा।”

अब फिर दोनों के हृदय से दुख की, परछाई दूर हो गई और आनन्द का प्रकाश छा गया। दोनों फिर पानी में देखते चुपचाप बैठे रहे। पर फर्क यह था कि इस बार दोनों मित्र एक दूसरे के कंधे पर हाथ रख कर प्रेम के साथ हुए थे।

गौरांग ने कहा, "इस संसार में सब लोग सुखी और सन्तुष्ट हो। इस से बढ़कर मुझे और क्या चाहिए..! मेरा आदर्श यही है। तुम्हारे ओठों पर की हँसी देखने के लिए में ऐसी लाखों किताबें न्यौछावर कर सकता हूँ।” 

“गौरांग..! तुम्हारे त्याग का वर्णन करना मेरी सामर्थ्य से बाहर की बात है। मैं तो इतना ही कर सकता हूँ कि, तुम्हारे त्याग की महानता संसार भर में प्रगट कर दूँ” गदाधर ने अपनी कृतज्ञता जताई।

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