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अध्याय -आठ ओ, बादल! सुन जरा..

ओ, बादल! सुन जरा...

खामोश आकर्षणों की दुनिया बेतरतीव रंगो से निर्मित होती है, जहाँ समय या किसी बेला का कोई प्रतिबंध नहीं होता। मन ही मन सिर्फ मिलन का अरमान अंगड़ाई लेने लगता है। फिर चाहे प्रेम हो, राग रंग हो, तरंग हो, या सम्मोहित कर देने वाला नाद हो। इच्छाएँ, मिलन के मादक खुशबू तक बेचैन कर देती है...और खुशबु के सम्मान ही फूलों से लिपटी रहती है। जब-तक फूल होगा खुशबू भी साथ होगी। कल्पनाओं में कुछ अनकहे से अक्स बनने लगते हैं जो न टूटते हैं, न बिखरते हैं सिर्फ बढ़ते हैं।

रंगों में, तरंगो में, चाहतों की उमंगों में
मचलती हवाओं में एक पाती आया है
चन्द्रमा से फिसलकर, प्रेमकाव्य का बाती आया है
कुछ अक्स बने हैं दिलों में, कुछ हृदय के ध्वनित शिराओं में
चंद रंगीन शब्द से लिखा पत्र, मुलकाती आया है
मत होना अधीर प्रिय, यह मिलन उत्पाती आया है।

शोहदा को इतना भी होश नहीं है कि चलते समय अपने कमरे का दरवाजा बंद किया या नहीं। वह यंत्रवत बढ़ने लगा। कहाँ,  किधर को जा रहा है, उसे खुद भी होश नहीं है। गंतव्य  दिशाहीन है। बाहर स्वच्छ आकाश में पुरा चाँद अपनी प्रखर रौशनी को पुरी नीरवता के साथ सारी धरती पर दूध की तरह उड़ेल रही है। चन्द्रमा की चाँदनी में यत्र-तत्र-सर्वत्र पेड़-पौधे, नदी-तालाब, जंगल-पर्वत सभी डूबे हुए हैं। सड़क, गली-मुहल्ले सभी उस निर्मल आभा में और भी उज्ज्वल, स्निग्ध और अलौकिक नजर आ रहा है। घने वृक्ष की पत्तियों से छन-छन कर चाँद की रौशनी ऐसे आ रही है जैसे आनंद के पुष्पों के साथ स्वर्गिक सुख की वृष्टि हो रही हो। निश्चय ही यह दृश्य ऐसे लोक की अनुभूति करवा रहा है जहाँ पहुँच कर एक कवि हृदय, या शब्दों का चीतेरा, या कला का साधक एक ईमानदार रचना का सृजन कर लें। जहाँ अनुपम ललित निबंध लिखा जा रहा था, जहाँ कविता की मोहक पंक्तियाँ नीम के पत्ते की तरह झर रही थी। 

शोहदा के बढ़ते हुए कदम वहाँ रुक गये जहाँ झाड़ियों से घीरे एक छोटे से झरने का सोता फुट रहा था। बहता हुआ झरना उस मौन और सघन रात्रि में एक अद्वितीय संगीत रच रहा था। एक ऐसे वाद का स्वर उभरता हुआ महसूस हुआ उसे, जो अवरणीय है, अतुलनीय है, आश्चर्यजनक आकर्षण में पुरी तरह जकड़ा हुआ। शोहदा को याद आया यही वो स्थान है जहाँ प्रीति बहुत ही कमनीयता के साथ बैठती है, जल किलोलें करती है। अपने जीवन में अपने लिए, एक आकर्षण का जादू उत्पन्न करती है। शोहदा बहुत ही तत्परता के साथ वहीं पर बैठ कर कुछ कंकड़ों को टटोलने लगा। वह महसूस कर रहा था, उन तमाम कंकड़ों में प्रीति का कोमल और रेशमी स्पर्श, जो उसके हथेलियों को गुदगुदा रहा था, फिसल रहा था। उसे बड़ा ही सुकून मील रहा था। वह उन कंकड़ों को अनायास ही चूमने लगा। वह उसमें प्रीति के स्पर्श की कोमलता को महसूस कर रहा था, उसकी चपलता को अनुभव कर रहा था। उसे याद आया कल जो भी प्रीति के साथ संवाद हुआ, क्या वह सचमुच उसे भुला पाएगा। 

वह प्रीति के अनुनय विनय को सम्मान करता है, लेकिन चाह कर भी उसे भुला नहीं पा रहा है। यह भूलना कितना जटिल है कितनी बड़ी यंत्रणा। उसे महसूस हो रहा था, इतनी रात गये यहाँ तक खींचे चले आना क्या उसी का आकर्षण है, जिसे चाहकर भी वह त्याग नहीं पा रहा है। वह अनुभव कर रहा है जिस मादकता की आदिम खुशबू से सराबोर होकर वह यहाँ तक खींचता चला आया है, वास्तव में वह खुशबू इन्ही कंकड़ों से, इन्हीं लता गुल्मों से, इन्ही जल तरंगो से उठ रही है। पुरी तरह से मदहोश कर देनेवाला, तरंग के एक-एक कतरे पर पुरी तरह से चौंका देनेवाला, आश्चर्यलोक का शैर करा देने वाला।सहसा उसे आभास हुआ, झरने से गिरते फेनिल और सफ़ेद जलराशि के झाग में प्रीति भींग रही है, पुरी चपलता के साथ पानी में कौतुक करती मुस्कुरा रही है। उसे याद आया कई-कई बार हर उस स्थान पर प्रीति के चाहतों से वशिभूत होकर अक्सर चले आना और और वहाँ की चीजों को छूना, विशाल शिलाओं को स्पर्श करना ( जिस पर प्रीति बैठ कर सपने देखती है ) अनवरत उसे ताकते रहना, क्या प्रीति के लिए अनुराग नहीं है, फिर वह कैसे वीरक्त हो सकता है। कैसे उन अनुभूतियों को भूल सकता है जो प्रीति को लेकर अपने हृदय में पूरे उल्लास और पागलपन की हद तक संजोये हुए है। वह प्रीति से पुरी सजिंदगी और ईमानदारी के साथ बोला था -"मै उस छवि को, उस अनुभव को, उस कल्पना को कभी भी नहीं भुला पाऊँगा जो उसको लेकर अपने दिल में है।

रात्रि की नीरवता में पुरा गाँव सो रहा था। निःशब्द अपनी-अपनी स्वप्निल दुनिया में। चंद्रमा की दूधिया रौशनी पुरे हसरत के साथ जंगलों, पहाड़ों, नदियों, सरिताओं को चूम रही थी। बहुत धीरे - धीरे चलती हुई हवा अपनी शोख मुस्कानों से सिहरण पैदा कर रही थी। आसमान में बादलों के यत्र-तत्र टुकड़े पता नहीं किस उन्मुक्तता में चले जा रहे थे। उन बादलों में कई प्रकार की आकृतियाँ बन-बिगड़ रही कि, जिसे शोहदा बहुत ही तन्मयता के साथ देखे जा रहा था। सहसा उसके स्मृति में एक कविता स्मरण हो आया। वह उसे धीरे धीरे गुनगुनाने लगा-

बादल आवारा! सुन जरा
कहाँ, किसे मिलने आया, सुन जरा
मेरे पास है प्रेम कहानी
जीवन की है चादर धानी
ओ मतवाला!! सुन जरा

शोहदा उन बादलों में प्रीति का अस्क देखना चाहता है। पेड़ों के पत्तियों से सरसराते हुए, गुजरते हवाओं से अपने जीवन संगीत की निर्मल धुन सुनना चाहता है।
वह प्रकृति के सानिध्य में, अपने इच्छाओं के उधान में, अपनी भावनाओं में ही डूबता उतरता चलकदमी कर रहा है। जैसे कोई चुंबकीय शक्ति उसे टहला रहा था। अचानक बगल के घने झाडियों से एक ध्वनि उस मौन निस्तब्धता को भेदता चला गया और झाड़ियों से अचानक सरसराहट की आवाज आई। वह चौंक कर झाड़ीयों की तरफ देखने लगा। एक बिल्ली झाड़ी से निकली और बहुत तेजी के साथ शोहदा के सामने से भागती हुई दूर तक चली गई। शोहदा उस भागती हुई बिल्ली को बहुत देर तक स्पष्ट देखता रहा तब-तक, जब-तक की वह उसके आँखों से ओझल नहीं हो गया। शोहदा को अचानक अपने पड़ोस में रहने वाली तेतरी चाची की बात स्मरण हो आया। वह हमेशा कहा करती थी कि सामने से बिल्ली का रास्ता काटना 'अपशगून' होता है।

"अपशगून" यह शब्द उसके मस्तिष्क में बजने लगा। क्या मतलब हो सकता है इसका? अचानक उसे ख्याल आया समय कितना होगा? तेजी से गुजरते समय का उसे अबतक अंदाजा भी नहीं रहा कि कब दिन शाम में और शाम रात्रि में ढल चुकी है। माँ का दिया हुआ खाना वह खाया भी है या नहीं। और देर रात्रि वह घर से बिना माँ को बताये निकल गया था बिना माँ को बताए। पता नहीं रात का कितना पहर बीत चुका होगा। शायद माँ उसे घर में नहीं देख कर कितना ब्याकुल हो रही होगी। पागलों कि तरह ढूंढती फिर रही होगी। वह अंदाजा लगाना चाह रहा था कि रात्रि कितनी बीत रही होगी। उसकी दृष्टि अपनी कलाइयों को घूरने लगी। लेकिन कलाई पर घड़ी नहीं थी। शायद टेबल पर नहीं! नहीं!! अलमीरा में, नहीं नहीं जाने कहाँ रखा है वह। इसका भी ज्ञान नहीं रहा शोहदा को। वह शून्य आँखों से आकाश की ओर देखने लगा। जैसे वहाँ कुछ तलाशना चाहता है। तारे टिमटिमाते हुए मुस्कुरा रहे थे। वहाँ उन असंख्य तारों में वह ध्रुवतारा को देखना चाहता था जिसे देखकर रात्रि के समय का अनुमान हो सके और जिसके बारे में कई बार उसकी माँ बतला चुकी थी। ध्रुवतारा पश्चिम क्षितिज की ओर जा चुका था। तारे मलीन से दिखाई दे रहे थे। उसे अंदाजा हुआ रात्रि का चौथा पहर बीत रहा है।

रात्रि की अंतिम बेला में रात्रि का अन्धकार गहरा जाता है। कुछ अधिक ही कालीमा और डरावनी लगने लगती है। उसे एक अज्ञात डर और भय ने उसके मन में ढेरों सवाल उत्पन्न कर दिया था। वह चारों ओर विक्षिप्त दृष्टि से और बहुत सतर्कता के साथ देखने लगा। 

हृदय में यदि संशय हो तो सुमधुर संगीत भी कारूणिक अलाप की तरह सुनाई देने लगता है। उस समय हमारी सभी ज्ञानेन्द्रियाँ सतर्क और जागरूक हो जाती है। एक छोटा सा अवरोध भी वीभत्स और खतरनाक लगने लगता है।

शोहदा को लगा जैसे उसके चारों तरफ असंख्य दैत्य उसपर हमला करने के लिए बेताव है, जिसे वह देख नहीं पा रहा है। तभी उसके कानों में एक कारूणिक और आत्मा को हिला देनेवाला आवाज सुनाई दिया। एक बेवस और भय से कातर चीख। जैसे किसी ने उसके गले में कोई फाँस लगा दिया हो और वह कसता हुआ जा रहा है। तब जैसे घुटी -घुटी चीख निकलती है, वही चीख गुंजा था शायद! शोहदा का दिल बैठ गया। यह चीख किसका हो सकता है? रात्रि के इस सघन अंधेरे में इस निर्जन और सुनसान स्थान पर कौन हो सकता है? जैसे कोई अपनी जिंदगी का आखिरी विलाप कर रहा हो, कुछ स्पष्ट नहीं हो रहा था। पुनः कुछ देर बाद एक और चीख गूँजा -"बचाओ!  मैं...मैं... मुझे छोड़ दो... छोड़ दो....ब...चा...ओ...!"
इस बार शोहदा पुरी तरह व्याकुल हो उठा। वह साफ समझ चुका था कि यह एक लड़की की चीख है। और बहुत पास से आ रही है। लेकिन कौन हो सकती है। अनायास ही उसके आँखों के सामने प्रीति का चेहरा घूमने लगा। पता नहीं किस भावना से उछल कर वह सीधा खड़ा हुआ और सतर्क नजरों से देखता हुआ आवाज की दिशा में तेजी से चल दिया।
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