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जगन्नाथ कि जन्मकथा

पुराने जमाने की बात है। इंद्रधुन कलिंग देश का राजा था। उसे एक दिन समुदर की सैर करने का शौक हुआ। राजा का शौक पूरा न हो तो और किसका हो? तुरंत हंस के आकार का एक सुंदर जहाज बनाया गया। राजा अपनी स्त्री और मंत्रियों के साथ उस पर चढ़ कर समुंदर की सैर करने निकला। जहाज ने लंगर उठाया।

मस्तूल से पाल ताना गया और जहाज तीर की तरह लहरों को चीरता निकल पड़ा। लेकिन न जाने, जहाज किस बुरी साइत में चला था...! बीच समुंदर में जाते-जाते बड़ा भारी तूफान आ गया। हवा के झोंकों से पाल की धज्जियाँ उड़ गई। मस्तूल टूट गया और जहाज सूखे पते की तरह डोलने लगा। जहाज के सब लोगों के प्राण नखों में समा गए।

खलासियों ने जहाज को किनारे लगाने की बड़ी कोशिश की। लेकिन उनकी एक न चली। थोड़ी देर बाद पहाड़ जैसी एक ऊँची तरंग उठी और पल में जहाज को निगल गई...! जहाज पर जितने लोग थे सभी जल-गर्भ में जाकर सदा के लिए सो गए।

महाराज इंद्रधुन गोते खा ही रहे थे कि उन्हें एक कुंदे का सहारा मिल गया। वे तैर कर जान बचाने की कोशिश करने लगे। थोड़ी देर बाद उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि, उस कुंदे का दूसरा सिरा पकड़ कर और कोई तैर रहा है।

उन्होंने पूछा, “कौन है...!”

“मै रानी हूँ..।” जवाब आया।

यह सुन कर महाराज को पहले तो बड़ी खुशी हुई...! लेकिन तुरंत मन में विचार उठा कि आखिर हम कितनी देर तक इस तरह तैरते रहेंगे।

उन्होंने रानी से कहा, “चाहे जो कुछ भी हो, कुंदे को छोड़ना मत। अगर भगवान की कृपा हुई तो हम दोनों इसी के आखिर हुआ भी सहारे पार लग जाएँगे।”

ऐसा ही। उसी कुंदे के सहारे तैरते हुए वे दोनों किनारे पहुँच गए। और कोई होता तो उस कुंदे को यहीं छोड़ कर अपनी राह पकड़ता। लेकिन राजा और रानी ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने समझा कि, भगवान ने ही उस कुंदे के रूप में उनकी जान बचाई है। इसलिए उन दोनों ने बड़ी श्रद्धा के साथ उस कुंदे की प्रदक्षिणा की और उसे हाथ जोड़ कर प्रणाम किया।

तब महाराज ने रानी से कहा, “इसी कुंदे के कारण आज हम दोनों की जान बची है। यह कोई मामूली कुंदा नहीं है। इसलिए हम इस कुंदे से दो देव मूर्तियाँ बनवा कर उन्हें मन्दिर में रखेंगे और उनकी पूजा करेंगे। क्यों, यह अच्छा होगा न ?”

रानी ने जवाब दिया, “आपको तो अच्छी बात सूझ गई। हम जरूर ऐसा ही करेंगे। इसी कुंदे ने तो हमारी जान बचाई है।”

राजा और रानी उस कुंदे को लिया कर अपने महल में पहुँच गए। दूसरे दिन तक राज भर में यह बात फैल गई कि, एक लकड़ी के कुंदे ने राजा की जान बचाई है। इसलिए राजा उस से दो देव मूर्तियाँ बनयाना चाहते हैं। बस अब क्या था? देश के कोने कोने से शिक्षी लोग आकर राजा के दरबार में जमा हो गए।

हर कोई कहता था कि, मूर्तियाँ बनाने का काम मुझी को सौंप दीजिए। उन सब को देख कर राजा बड़ी चिंता में पड़ गया कि, आखिर मूर्तियाँ बनाने का काम सौंपा जाए तो किसे उसे कैसे मालूम हो कि, सब से अच्छा शिल्पी कौन है? इसलिए उसने सब से कह दिया कि में इसका निर्णय कल करूंगा? उस रात राजा को भगवान ने स्वप्न में दर्शन देकर कहा,

“हे राजा..! उस कुंदे से देव-मूर्तियाँ बनाने का काम उन शिल्पियों में से किसी को न सौंपना वे उसके योग्य नहीं हैं। कल तुम्हारे दरबार में एक बूढ़ा शिल्पी आएगा। उसी को यह काम सौंपना।”

इतना कह कर वे अन्तर्धान हो गए। दूसरे दिन सचमुच ही एक बूढ़े शिल्पी ने राजा के दरबार में आकर कहा,

“राजन्..! मैं एक शिल्पी हूँ। मैंने सुना है कि आप दो मूर्तियाँ बनवाना चाहते हैं। मैं आपकी सेवा के लिए तैयार हुं।”

लेकिन वह शिल्पी बडा बूढ़ा था। वह तो बगैर लाठी के चल ही नहीं सकता था। इसलिए सभी दरबारी काना फूसी करने लगे कि यह क्या ख़ाक मूर्तियाँ बनाएगा लेकिन राजा ने अपने सपने की याद करके उसी को यह काम सौंपा। तब यहाँ और जितने शिल्पी थे सब मन ही मन राजा को कोसते हुए चले गए। लेकिन हर किसी के मन में अब भी यही आशा थी कि जब इस बूढ़े से काम नहीं होगा तो राजा मुझी को बुलाएँगे। उस बड़े शिल्पी ने पहले राजा के सामने कुछ शर्तें रखीं,

“जब तक मै ये मूर्तियाँ बनाता रहूँ तम तक कोई मेरे पास न आने पाए। में एक बन्द घर में बैठ कर मूर्तियाँ बनाऊँगा। जब मेरा काम सतम हो जाएगा तो में खुद किवाड़ खोल कर बाहर आ जाऊँगा। लेकिन इस बीच में कोई मुझे छेड़े। नहीं तो काम पूरा नहीं होगा।”

राजा ने उसकी शर्तें मान लीं। लेकिन दरबारियों ने मन में कहा, “देखें, यह बूढ़ा अँधेरे में बैठ कर कैसी मूर्तियाँ बनाता है? क्या यह डरता है कि, मूर्तियों को नजर लग जाएगी..!”

राजा ने शिल्पी के लिए एक घर बनवा दिया बड़ा उस कुंदे को लेकर घर में बैठ गया और अन्दर से सारे दरवाजे बंद कर लिए। यों कई दिन बीत गए। बड़ा खाना खाने के लिए भी घर से बाहर नहीं आता था। आखिर कुछ शिल्पियों के मन में इच्छा पैदा हुई कि जाकर देखें, बूढ़ा अंदर क्या कर रहा है।

उन्होंने घर के पास जाकर बड़ी देर तक किवाड़ के छेदों से कान लगा कर सुना। लेकिन उन्हें कहीं किसी तरह की आहट न सुनाई पड़ी। उस घर के अंदर सन्नाटा छाया हुआ था। तब उन्होंने राजा के पास जाकर कहा,

“महाराज..! उस बूढ़े ने आपको अच्छा चकमा दिया है। यह तो उस घर में है ही नहीं। उस घर से तो किसी तरह की आहट नहीं सुनाई देती। यह बूढ़ा सब की आँख बचा कर कभी का भाग गया होगा।”

लेकिन राजा को तो उस बूढ़े पर पूरा विश्वास था। इसलिए उसने उन चुग़लखोरों को खूब फटकारा। वे अपना सा मुँह लेकर चले गए। और कुछ दिन बीत गए। लेकिन बूढ़े के घर के किवाड़ अब भी नहीं खुले। तब फिर कुछ शिल्पियों ने जाकर राजा से कहा,

“राजन्...! बूढ़े के घर में तो बिलकुल सन्नाटा छाया हुआ है। कहीं बूढ़ा मूखों मर तो नहीं गया? उसे कुछ न कुछ जरूर हो गया होगा। नहीं तो यह अब तक मूर्तियाँ बना चुका होता।”

इस बार राजा को सचमुच शंका हो गई। इस तरह दिन-रात कान भरते रहने से राजा का धीरज भी टूट गया। तब राजा ने बूढ़े के घर के पास जाकर किया खटखटाए। लेकिन अन्दर से कोई जवाब नहीं आया। तब राजा ने निराश होकर जबर्दस्ती दरवाजा खुलवाया। लेकिन अन्दर जाकर देखने पर आश्चर्य...! न यहाँ यह बुढ़ा शिल्पी ही था और न वह लकड़ी का कुंदा ही। यहाँ दो सुन्दर मूर्तियाँ मात्र पड़ी हुई थी। उन मूर्तियों का रूप देख कर राजा मुग्ध हो गया। लेकिन इतने में उसे मालूम हुआ कि उन दोनों मूर्तियों के न हाथ हैं और न पर ये कैसी मूर्तियाँ हैं?? इतने में भगवान की उस मूर्ति ने कहा

“हे राजा..! तुमने नाहक उतावली की। अगर तुम थोड़े दिन और रुक जाते तो हम दोनों के हाथ-पैर भी बन जाते। तुम्हारी उतावली के कारण जब हमें बिना हाथ-पैर के ही रह जाना पड़ेगा।”

तब इन्द्र ने दंडवत करके कहा, “भगवान ! क्षमा कीजिए। मुझे शंका हो गई थी कि, वह बूढ़ा मर गया है। इसीलिए मैंने किवाड़ खुलवाए। लेकिन वह शिल्पी कहाँ है? यह कहीं नहीं दिखाई देता?”

“मै ही वह शिल्पी हु।” भगवान ने कहा।

अब महाराज को अपनी भूल मालूम हो गई। लेकिन अब ‘पछताए होत क्या, चिड़ियाँ चुग गई खेत !’ उन्होंने तुरंत सागर किनारे पूरी में, जहाँ उन्हें यह कुंदा मिला था, एक बड़ा भारी मंदिर बनवाया। उस मंदिर में उन्होंने दोनों मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई। उसी दिन से उड़ीसा का 'पूरी जगन्नाथ' बड़ा भारी तीर्थ-स्थान बन गया।

आज भी भारत के कोने-कोने से लाखों लोग हर साल जगन्नाथजी देखने जाते हैं।

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