नारी तू नारायणी ?
देश के हृदय में बसे मध्यप्रदेश के एक छोटे से शहर में जन्मी एक शिशु के रूप में इस बच्ची ने भी वो सारे परिवेश झेला, देखा और महसूस किया जो पुरुषवादी भारतीय समाज के कमोबेश हर लड़की को करना पड़ता है । वंश चलाने की चाह में पांच भाई बहनों के बीच रानी तीसरे बच्चे के रूप में आई । लेकिन जैसा कि होता आया है देवी लक्ष्मी की पूजा करने वाला ये समाज वास्तविक लक्ष्मी को कभी वो सम्मान नही दे पाता । लक्ष्मी की मूर्ति की अराधना तो ये समाज पूरे विधि विधान से करता है लेकिन लक्ष्मी के रूप में आई बिटिया उस सम्मान की हकदार कभी नही हो पाती जो वास्तव में उसे होना चाहिए । फिर वो तो सत्तर के दशक के समाज था , जिसके पास बेटी को लेकर कोई उम्मीदें तो कदापि नही हो सकती थी , फिर हुआ भी वही , समाज के तंज और अभाग्य का दोष उस प्रसूता के हिस्से भी आया जिसने इस भविष्य की लक्ष्मी को जन्म दिया था ।
समाज के तंज और तिरस्कार के बीच पनप रही एक लता ने उन तमाम दुश्वारियों और अपमानों को सहा जिसकी कल्पना तो हम आप सभ्य समाज के उपासक तो कर सकते हैं पर उसकी अनुभूति शायद वही कर सकता है जिसने इसे स्वयं झेला हो ।
यदि मैं ज्यादा गलत नही कह रहा तो पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित परिवार और समाज मे अभिभावक का चेहरा किसी तानाशाह सरीखा ही होता है । जो लोकतंत्र के नाम पर रोटी कपड़े और मकान की पूर्ति कर अपनी इतिश्री मान लेता है । प्रायः पिता के प्यार के अंतराल को मां भर देती है परंतु रानी के हिस्से परिवार का ये प्रेम विरले ही मिला । ज्यादा बच्चों के परिवार में अक्सर बच्चे बस पल जाया करते हैं लेकिन कुछ संवेदनशील बच्चों को दरकार होती है कुछ अतिरिक्त देखभाल और भाव स्पर्श की । संवेदनशील और अंतर्मुखी ये बच्ची अपने भाव की भूख को कातर दृष्टि से मां और बाप में तलाशती रहती । माँ का बेटा कह देना ही जैसे उसे तृप्त कर जाता और वो हर कार्य को पूरे मनोयोग से करती ।
प्रेम की भूख इंसान से जाने क्या क्या कराती है । ओशो याद आते है जिनका मानना था कि इंसान सारी उम्र प्रेम की तलाश करता फिरता है । उसकी सारी बुभुक्षा प्रेम के लिए ही होती है --जारी