पाँचवाँ भाग : बयान - 2
पाठक अभी भूले न होंगे कि कुंअर इन्द्रजीतसिंह कहां हैं। हम ऊपर लिख आए हैं कि उस मकान में जो तालाब के अन्दर बना हुआ था, कुंअर इन्द्रजीतसिंह दो औरतों को देखकर ताज्जुब में आ गए। कुमार उन औरतों का नाम नहीं जानते थे मगर पहचानते जरूर थे, क्योंकि उन्हें राजगृह में माधवी के यहां देख चुके थे और जानते थे कि ये दोनों माधवी की लौंडियां हैं। परन्तु यह जानने के लिए कुमार व्याकुल हो रहे थे कि ये दोनों यहां कैसे आईं क्या इस औरत से, जो इस मकान की मालिक है, और उस माधवी से कोई सम्बन्ध है इसी समय उन दोनों औरतों के पीछे-पीछे वह औरत भी आ पहुंची जिसने इन्द्रजीतसिंह के ऊपर अहसान किया था और जो उस मकान की मालिक थी। अभी तक इस औरत का नाम मालूम नहीं हुआ, मगर आगे इससे काम बहुत पड़ेगा, इसलिए जब तक इसका असल नाम मालूम न हो कोई बनावटी नाम रख दिया जाय तो उत्तम होगा, मेरी समझ में तो कमलिनी नाम कुछ बुरा न होगा।
जिस समय कुंअर इन्द्रजीतसिंह की निगाह उन दोनों औरतों पर पड़ी, वे हैरान होकर उनकी तरफ देखने लगे। उसी समय दौड़ती हुई कमलिनी भी आई और दूर ही से बोली -
कमलिनी - कुमार, इन दोनों हरामजादियों का कोई मुलाहिजा न कीजिएगा और न किसी तरह की जुबान ही दीजिएगा। अपनी जान बचाने के लिए ही दोनों आपके पास आई हैं।
इन्द्रजीतसिंह - क्या मामला है ये दोनों कौन हैं?
कमलिनी - ये दोनों माधवी की लौंडियां हैं और आपकी जान लेने आई थीं। मेरे आदमियों के हाथ गिरफ्तार हो गईं।
इन्द्रजीतसिंह - तुम्हारे आदमी कहां हैं मैंने तो इस मकान में सिवाय तुम्हारे किसी को भी नहीं देखा!
कमलिनी - बाहर निकलकर देखिये, मेरे वे सिपाही यहीं मौजूद हैं जिन्होंने इन्हें गिरफ्तार किया।
इन्द्रजीतसिंह - अगर ये गिरफ्तार होकर आई हैं तो इनके हाथ-पैर खुले क्यों हैं?
कमलिनी - इसके लिए कोई हर्ज नहीं। ये मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं, जब तक कि मैं जागती हूं या अपने होश में हूं।
इन्द्रजीतसिंह - (उन दोनों की तरफ देखकर) तुम क्या कहती हो?
एक - (कमलिनी की तरफ इशारा करके) ये जो कुछ कहती हैं, ठीक है। परन्तु आप वीर पुरुष हैं, आशा है कि हम लोगों का अपराध क्षमा करेंगे!
कुंअर इन्द्रजीतसिंह इन बातों को सुनकर सोच में पड़ गये। उन्हें उन दोनों औरतों की और कमलिनी की बातों का विश्वास न हुआ, बल्कि यकीन हो गया कि ये लोग किसी तरह का धोखा देना चाहती हैं। आधी घड़ी तक सोचने के बाद कुमार बंगले के बाहर निकले तो देखा कि तालाब के बाहर लगभग बीस सिपाही खड़े आपस में कुछ बातें कर रहे और घड़ी-घड़ी इसी तरफ देख रहे हैं। कुमार वहां से लौट आये और कमलिनी की तरफ देखकर बोले -
इन्द्रजीतसिंह - खैर, जो तुम्हारे जी में आये करो, हम इस बारे में कुछ नहीं कह सकते।
कमलिनी - करना क्या है, इन दोनों का सिर काटा जायगा।
इन्द्रजीतसिंह - खुशी तुम्हारी। मैं जरा इस तालाब के बाहर जाना चाहता हूं।
कमलिनी - क्यों?
इन्द्रजीतसिंह - यह समय मजेदार है। जरा मैदान की हवा खाऊंगा और उस घोड़े की भी खबर लूंगा जिस पर सवार होकर आया था।
कमलिनी - इस मकान की छत पर चढ़ने से अच्छी और साफ हवा आपको मिल सकती है। घोड़े के लिए चिन्ता न करें, या फिर ऐसा ही है तो सबेरे जाइयेगा!
न मालूम, क्या सोचकर इन्द्रजीतसिंह चुप हो रहे। कमलिनी ने उन दोनों औरतों का हाथ पकड़ा और धमकाती हुई न जाने कहां ले गई, इसका हाल कुमार को न मालूम हुआ और न उन्होंने जानने का उद्योग ही किया।
यद्यपि इस औरत अर्थात् कमलिनी ने कुमार की जान बचाई थी, तथापि उन्हें विश्वास हो गया कि कमलिनी ने दोस्ती की राह पर यह काम नहीं किया, बल्कि किसी मतलब से किया है। उस मकान में गुलदस्ते के नीचे से जो चीठी कुमार ने पाई थी, उसके पढ़ने से कुमार होशियार हो गये थे तथा समझ गये थे कि यह मुझे किसी फरेब में फंसाना चाहती है और किशोरी के साथ भी किसी तरह की बुराई किया चाहती है। इसमें कोई शक नहीं कि कुमार इसे चाहने लगे थे और जान बचाने का बदला चुकाने की फिक्र में थे, मगर उस चीठी के पढ़ते ही उनका रंग बदल गया और वे किसी दूसरी ही धुन में लग गए।
कुमार चाहते तो शायद यहां से निकल भागते, क्योंकि उस औरत की तरफ से होशियार हो चुके थे, मगर इस काम में उन्होंने यह समझकर जल्दी न की कि इस औरत का कुछ हाल मालूम करना चाहिए और जानना चाहिए कि यह कौन है। पर कमलिनी को कुमार के दिल की क्या खबर थी, उसने तो सोच रखा था कि मैंने कुमार पर अहसान किया है और वे किसी तौर पर मुझसे बदगुमान न होंगे।
कुमार के पास इस समय सिवाय कपड़ों के कोई चीज ऐसी न थी जिससे वे अपनी हिफाजत करते या समय पड़ने पर मतलब निकाल सकते।
कुछ दिन बाकी था जब कुमार उस मकान की छत पर चढ़ गए और चारों तरफ के पहाड़, जंगल तथा मैदान के बाहर देखने लगे। कुमार को यह जगह बहुत ही पसन्द आई और उन्होंने दिल में कहा कि ईश्वर की इच्छा हुई तो सब बखेड़ों से छुट्टी पाकर किशोरी के साथ कुछ दिनों तक इस मकान में जरूर रहेंगे। थोड़ी देर तक प्रकृति की शोभा देखकर दिल बहलाते रहे, जब सूर्य अस्त हो गया तो कमलिनी भी वहां पहुंची और कुमार के पास खड़ी होकर बातचीत करने लगी।
कमलिनी - यहां से अच्छी बहार दिखाई देती है।
कुमार - ठीक है मगर यह छटा मेरे दिल को किसी तरह नहीं बहला सकती।
कमलिनी - सो क्यों?
कुमार - तरह-तरह की फिक्रों और तरद्दुदों ने मुझे दुखी कर रखा है, बल्कि यहां आने और तुम्हारे मिलने से तरद्दुद और भी ज्यादा हो गया।
कमलिनी - यहां आकर कौन-सी फिक्र बढ़ गई?
कुमार - यह तो तब कह सकता हूं जब कुछ तुम्हारा हाल मुझे मालूम हो। अभी तो मैं यह भी नहीं जानता कि तुम कौन हो और कहां की रहने वाली हो और इस मकान में आके रहने का सबब क्या है?
कमलिनी - कुमार, मुझे आपसे बहुत बातें कहनी हैं। इसमें कोई शक नहीं कि मेरे बारे में आप तरह - तरह की बातें सोचते होंगे, कभी मुझे खैरख्वाह तो कभी बद-ख्वाह समझते होंगे, बल्कि बदख्वाह समझने का मौका ही ज्यादा मिलता होगा। अक्सर उन लोगों ने जो मुझे जानते हैं, मुझे शैतान और खूनी समझ रखा है, और इसमें उनका कोई कसूर भी नहीं। मैं उन लोगों का जिक्र इस समय केवल इसीलिए करती हूं कि शायद उन लोगों ने, जो केवल दो-तीन ऐयार लोग हैं, कुछ चर्चा आपसे की हो।
कुमार - नहीं, मैंने किसी से कभी तुम्हारा जिक्र नहीं सुना।
कमलिनी - खैर, ऐसा मौका न पड़ा होगा। पर मेरा मतलब यह है कि जब तक मैं अपने मुंह से कुछ न कहूंगी, मेरे बारे में कोई भी अपनी राय ठीक नहीं कह सकता और...
इतने ही में सीढ़ियों पर किसी के पैरों की आवाज मालूम हुई जिसे सुनकर दोनों चौंके और उसी तरफ देखने लगे।
कुमार - इस मकान में तो केवल तुम्हीं रहती हो?
कमलिनी - नहीं, और भी कई आदमी रहते हैं, मगर वे लोग उस समय नहीं थे जब आप आए थे।
दो लौंडियां आती हुई दिखाई पड़ीं। एक के हाथ में छोटा-सा गलीचा था, दूसरी के हाथ में शमादान और इनके पीछे तीसरी पानदान लिये हुए थी। गलीचा बिछा दिया गया, शमादान और पानदान रखकर लौंडियां हाथ जोड़े सामने खड़ी हो गईं। कमलिनी के कहने से कुमार गलीचे पर बैठ गए और कमलिनी भी पास बैठ गई। इस समय इन तीनों लौंडियों का वहां पहुंचकर बातचीत में बाधा डालना कुमार को बहुत बुरा मालूम हुआ, क्योंकि वे बड़े ही गौर से कमलिनी की बातें सुन रहे थे और इस बीच में उनके दिल की अजीब हालत थी। कुमार ने कमलिनी की तरफ देख के कहा, ''हां, तुम अपनी बातों का सिलसिला मत तोड़ो।''
कमलिनी - (लौंडियों की तरफ देखकर) अच्छा, तुम लोग जाओ! बहुत जल्दी खाने का बन्दोबस्त करो।
कुमार - अभी खाने के लिए जल्दी न करो।
कमलिनी - खैर, ये लोग अपना काम पूरा कर रखें, आप जब चाहें, भोजन करें।
कुमार - अच्छा हां, तब?
कमलिनी - (डिब्बे से पान निकालकर) लीजिए, पान खाइए।
कुमार ने पान हाथ में रख लिया और पूछा, ''हां, तब'?
कमलिनी - पान खाइए, आप डरिए मत, इसमें बेहोशी की दवा नहीं मिली है। हां, अगर आप ऐसा खयाल करें भी तो कोई बेमौका नहीं!
कुमार - (हंसकर) इसमें कोई शक नहीं कि इतनी खैरख्वाही करने पर भी मैं तुम्हारी तरफ से बदगुमान हूं। मगर तुम्हारी बातें अजब ढंग पर चल रही हैं। (पान खाकर) अब जो हो, जब तुमने मेरी जान बचाई है तो कब हो सकता है कि तुम अपने हाथ से मुझे जहर दो।
कमलिनी - (हंसकर) कुमार, यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि आप मुझ पर शक करें। माधवी की दोनों लौंडियों का मामला, जो अभी थोड़ी देर पहले हुआ, आप देख चुके हैं, मुझ पर शक करने का मौका आपको देगा। मगर नहीं, आप पूरा विश्वास रखिए कि मैं आपके साथ कभी बुराई न करूंगी। कई आदमी मेरी शिकायत आपसे करेंगे, आप ही के कई ऐयार असल हाल न जानने के कारण मेरे दुश्मन हो जायंगे, मगर सिवाय कसम खाकर कहने के और किस तरह आपको विश्वास दिलाऊं कि मैं आपकी खैरख्वाह हूं। आप यह भी सोच सकते हैं कि मैं आपके साथ इतनी खैरख्वाह क्यों हो रही हूं! दुनिया का कायदा है कि बिना मतलब कोई किसी का काम नहीं करता और मैं भी दुनिया के बाहर नहीं हूं, अस्तु मैं भी आपसे बहुत-कुछ उम्मीद करती हूं मगर उसे जुबान से कह नहीं सकती। अभी आपको मुझसे वर्षों तक काम पड़ेगा, जब आप हर तरह से निश्चिन्त हो जायंगे, आपकी किशोरी, जो इस समय रोहतासगढ़ में कैद है, आपको मिल जायगी। इसके अतिरिक्त एक और भी भारी काम आपके हाथ से हो लेगा, तब कहीं मेरी मुराद पुरी होगी, अर्थात् उस समय मुझे जो कुछ आपसे मांगना होगा, मांगूंगी। आप मेरी बात याद रखिएगा कि आप ही के ऐयार मेरे दुश्मन होंगे और अन्त में झख मारके मुझ ही से दोस्ती के तौर पर सलाह लेनी पड़ेगी। आप यह भी न समझिए कि मैं आज या कल से आपकी तरफदार बनी हूं, नहीं, बल्कि मैं महीनों से आपका काम कर रही हूं और इस सबब से सैकड़ों आदमी मेरे दुश्मन हो रहे हैं। दुश्मनों ही के डर से मैं इस तालाब में छिपकर बैठी रहती हूं क्योंकि जिन्हें इसका भेद मालूम नहीं है वे इस मकान के अन्दर पैर नहीं रख सकते। आप मुझे अकेली समझते होंगे, मगर मैं अकेली नहीं हूं, लौंडियां, सिपाही और ऐयार मिलाकर इस गई-गुजरी हालत में भी पचास आदमी मेरी ताबेदारी कर रहे हैं।
कुमार - वे लोग कहां हैं?
कमलिनी - उनमें से कई आदमियों को तो आप इसी जगह बैठे देखेंगे, बाकी सबको मैंने काम पर भेजा है। जब मैं आपकी खैरख्वाह हूं तो किशोरी की मदद भी जरूर ही करनी पड़ेगी, इसलिए मेरी एक ऐयार रोहतासगढ़ किले के अन्दर भी घुसकर बैठी है और किशोरी के हाल-चाल की खबर दिया करती है। अभी कल ही उसने एक चीठी भेजी थी, (कमर से चीठी निकालकर और कुमार के हाथ में देकर) लीजिए यही चीठी है, पहले आप इसे पढ़ लीजिए फिर और कुछ कहूंगी।
कुमार हाथ में चीठी लेकर गौर से पढ़ने लगे। यह वही चीठी थी जिस पर पहले कुमार की निगाह पड़ चुकी थी और जिसे एक गुलदस्ते के नीचे से निकालकर कुमार पढ़ चुके थे। कुमार ने चोरी से उस चीठी को पढ़ने का हाल कमलिनी से कहना मुनासिब न समझा और उसे इस तौर पर पढ़ गए जैसे पहली दफे वह चीठी उनके हाथ में पड़ी हो। परन्तु इस समय इस तरह कमलिनी उनकी दुश्मन नहीं है इस बात को वे अच्छी तरह समझ गए। मगर साथ-ही-साथ उनके दिल में एक दूसरी ही तरह की उत्कण्ठा बढ़ गई और वे यह जानने के लिए व्याकुल हो गए कि कमलिनी और इसकी ऐयारा ने रोहतासगढ़ किले में पहुंचकर क्या किया!
पाठक, शायद आप इस चीठी का मजमून भूल गए होंगे, मगर आप उसे याद करें या पुनः पढ़ जायं, क्योंकि उसके एक-एक शब्द का मतलब इस समय कमलिनी से कुमार पूछना चाहते हैं।
कुमार - मैं नहीं कह सकता और न मुझे मालूम ही है कि तुम इतनी भलाई मेरे साथ क्यों कर रही हो, तो भी मैं उम्मीद करता हूं कि तुम इस समय मुझे चिन्ता में डालकर दुःख न दोगी, बल्कि जो मैं पूछूंगा उसका ठीक-ठीक जवाब दोगी।
कमलिनी - आप मेरी तरफ से किसी तरह का बुरा खयाल न रखें। आज मैं इस बात पर मुस्तैद हूं कि अगर आपको कष्ट न हो तो रात भर जाग के बहुत कुछ हाल जो अब तक आपको मालूम नहीं है और आपके मतलब का है, आपसे कहूं और जो-जो सवाल आप करें, उनका जवाब दूं।
कुमार - मुझे तुम्हारे इस कहने से बड़ी खुशी हुई। अच्छा पहले इस बात का जवाब दो कि तुम्हारी वह ऐयारा, जो रोहतासगढ़ में है और इस चीठी के पढ़ने से जिसका नाम तारा मालूम होता है, रोहतासगढ़ में किस तौर पर है जहां तक मैं सोचता हूं वह भेष बदलकर नौकरी करती होगी।
कमलिनी - नहीं, उसने नौकरी नहीं की, बल्कि वहां इस तरह छिपकर रहती है कि वहां के किसी आदमी को उसका पता लग जाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है।
कुमार - अच्छा, तो उसने यह क्या लिखा है कि - 'किशोरी का आशिक भी यहां मौजूद है!'
कमलिनी - यह कटाक्ष माधवी के दीवान अग्निदत्त पर है, क्योंकि हम लोगों के हिसाब से वह किशोरी पर आशिक है! वह आपकी तरह सच्चा आशिक नहीं है, मगर बेईमान ऐयारों की तरह जरूर आशिक है।
कुमार - नहीं-नहीं, उसे तो हमारे आदमियों ने गिरफ्तार करके चुनार भेज दिया है!
कमलिनी - आपका यह खयाल गलत है। वह चुनार नहीं पहुंचा, न मालूम किस तरह उसने अपनी जान बचा ली है। इसका हाल आपको लश्कर में जाने या किसी को चुनारगढ़ भेजने से मालूम होगा।
कुमार - तो क्या वह भी रोहतासगढ़ पहुंच गया?
कमलिनी - पहुंच ही गया तभी तो तारा ने लिखा है।
कुमार - अच्छा, तो ये लाली और कुन्दन कौन हैं?
कमलिनी - आपकी और मेरी दुश्मन, इन दोनों को मामूली दुश्मन न समझिएगा।
कुमार - इसमें किशोरी के आशिक के बारे में लिखा है कि 'उसे किशोरी से बहुत-कुछ उम्मीद भी है' - इसका मतलब क्या है?
कमलिनी - सो ठीक अभी मालूम नहीं हुआ।
कुमार - यह जवाब तुमने बड़े खुटके का दिया।
कमलिनी - (हंसकर) आप चिन्ता न करें। किशोरी तन-मन-धन आपको समर्पण कर चुकी है, वह किसी दूसरे की न होगी।
कुमार - खैर, जब खुलासा हाल मालूम ही नहीं है तो जो कुछ सोचा जाय, मुनासिब है। इसमें लिखा है कि 'किशोरी ने भी पूरा धोखा खाया' - सो क्या?
कमलिनी - इसका भी हाल अभी नहीं मालूम हुआ। शायद आज-कल में कोई दूसरी चीठी आवेगी तो मालूम होगा। बल्कि और भी कुछ लिखा है, इशारा ही भर है, असल में क्या बात है सो मैं नहीं कह सकती।
कुमार - अच्छा, अब मैं तुम्हारा पूरा हाल जानना चाहता हूं और इसी के साथ रोहतासगढ़ में रहने वाली लाली और कुन्दन का वृत्तान्त भी तुम्हारी जुबानी सुनना चाहता हूं।
कमलिनी - मैं सब हाल आपसे कहूंगी और इसके अलावा एक ऐसे भेद की खबर भी आपको दूंगी कि आप खुश हो जायंगे, मगर इसके लिए आपको तीन-चार दिन तक और सब्र करना चाहिए। इसी बीच में तारा भी रोहतासगढ़ से आ जायेगी या मैं खुद उसे बुलवा लूंगी।
कुमार - इन सब बातों को जानने के लिए मैं बहुत बेचैन हो रहा हूं, कृपा करके जो कुछ तुम्हें कहना हो, अभी कहो।
कमलिनी - नहीं-नहीं, आप जल्दी न करें, मेरा दो-चार दिन के लिए टालना भी आप ही के फायदे के लिए है। आप यह न समझें कि मैं आपको जानबूझकर यहां अटकाना चाहती हूं। आप यदि मुझ पर भरोसा रखें और मुझे अपना दुश्मन न समझें तो यहां रहें। मैं लौंडियों की तरह आपकी ताबेदारी करने को तैयार हूं, और यदि मुझ पर एतबार न हो तो अपने लश्कर चले जायें, चार-पांच दिन के बाद मैं स्वयं आपसे मिलकर सब हाल कहूंगी।
कुमार - बेशक मैं तुम्हारे बारे में तरह-तरह की बातें सोचता था और तुम पर विश्वास करना मुनासिब नहीं समझता था, मगर अब तुम्हारी तरफ से मुझे किसी तरह का खुटका नहीं है। तुम्हारी बातों का मेरे दिल पर बड़ा ही असर हुआ। इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम सिवाय भलाई के मेरे साथ बुराई कभी न करोगी। मैं जरूर यहां रहूंगा और जब तक अपने दिल का शक अच्छी तरह न मिटा लूंगा, न जाऊंगा।
कमलिनी - अहोभाग्य! (हंसकर) मगर ताज्जुब नहीं कि इसी बीच में आपके ऐयार लोग यहां पहुंचकर मुझे गिरफ्तार कर लें।
कुमार - क्या मजाल है!