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भाग 68

 


तेजसिंह वगैरह ऐयारों के साथ कुमार खोह से निकलकर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। एक रात रास्ते में बिताकर दूसरे दिन सबेरे जब रवाना हुए तो एक नकाबपोश सवार दूर से दिखाई पड़ा जो कुमार की तरफ ही आ रहा था। जब इनके करीब पहुंचा, घोड़े से उतर जमीन पर कुछ रख दूर जा खड़ा हुआ। कुमार ने वहां जाकर देखा तो तिलिस्मी किताब नजर पड़ी और एक खत पाई जिसे देख वे बहुत खुश होकर तेजसिंह से बोले -
“तेजसिंह, क्या करें, यह वनकन्या मेरे ऊपर बराबर अपने अहसान के बोझ डाल रही है। इसमें कोई शक नहीं कि यह उसी का आदमी है तो तिलिस्मी किताब मेरे रास्ते में रख दूर जा खड़ा हुआ है। हाय इसके इश्क ने भी मुझे निकम्मा कर दिया है! देखें इस खत में क्या लिखा है।”
यह कह कुमार ने खत पढ़ी :
“किसी तरह यह तिलिस्मी किताब मेरे हाथ लग गई जो तुम्हें देती हूं। अब जल्दी तिलिस्म तोड़कर कुमारी चंद्रकान्ता को छुड़ाओ। वह बेचारी बड़ी तकलीफ में पड़ी होगी। चुनार में लड़ाई हो रही है, तुम भी वहीं जाओ और अपनी जवांमर्दी दिखाकर फतह अपने नाम लिखाओ।
-तुम्हारी दासी...
वियोगिनी”
कुमार - तेजसिंह तुम भी पढ़ लो।
तेजसिंह - (खत पढ़कर) न मालूम यह वनकन्या मनुष्य है या अप्सरा, कैसे - कैसे काम इसके हाथ से होते हैं!
कुमार - (ऊंची सांस लेकर) हाय, एक बला हो तो सिर से टले!
देवी - मेरी राय है कि आप लोग यहीं ठहरें, मैं चुनार जाकर पहले सब हाल दरियाफ्त कर आता हूं।
कुमार - ठीक है, अब चुनार सिर्फ पांच कोस होगा, तुम वहां की खबर ले आओ तब हम चलें क्योंकि कोई बहादुरी का काम करके हम लोगों का जाहिर होना ज्यादा मुनासिब होगा।
देवीसिंह चुनार की तरफ रवाना हुए। कुमार को रास्ते में एक दिन और अटकना पड़ा, दूसरे दिन देवीसिंह लौटकर कुमार के पास आए और चुनार की लड़ाई का हाल, महाराज जयसिंह के गिरफ्तार होने की खबर, और जीतसिंह की ऐयारी की तारीफ कर बोले - ”लड़ाई अभी हो रही है, हमारी फौज कई दफे चढ़कर किले के दरवाजे तक पहुंची मगर वहां अटककर दरवाजा नहीं तोड़ सकी, किले की तोपों की मार ने हमारा बहुत नुकसान किया।”
इन खबरों को सुनकर कुमार ने तेजसिंह से कहा, “अगर हम लोग किसी तरह किले के अंदर पहुंचकर फाटक खोल सकते तो बड़ी बहादुरी का काम होता।”
तेज - इसमें तो कोई शक नहीं कि यह बड़ी दिलावरी का काम है, या तो किले का फाटक ही खोल देंगे, या फिर जान से हाथ धोवेंगे।
कुमार - हम लोगो के वास्ते लड़ाई से बढ़कर मरने के लिए और कौन - सा मौका है? या तो चुनार फतह करेंगे या बैकुण्ठ की ऊंची गद्दी दखल करेंगे,दोनों हाथ लड्डू हैं।
तेज - शाबाश, इससे बढ़कर और क्या बहादुरी होगी, तो चलिए हम लोग भेष बदलकर किले में घुस जायं। मगर यह काम दिन में नहीं हो सकता।
कुमार - क्या हर्ज है रात ही को सही। रात - भर किले के अंदर ही छिपे रहेंगे, सुबह जब लड़ाई खूब रंग पर आवेगी उसी वक्त फाटक पर टूट पड़ेंगे। सब ऊपर फसीलों पर चढ़े होंगे, फाटक पर सौ - पचास आदमियों में घुसकर दरवाजा खोल देना कोई बात नहीं है।
देवी - कुमार की राय बहुत सही है, मगर ज्योतिषीजी को बाहर ही छोड़ देना चाहिए।
ज्यो - सो क्यों?
देवी - आप ब्राह्मण हैं, वहां क्यों ब्रह्महत्या के लिए आपको ले चलें, यह काम क्षत्रियों का है, आपका नहीं।
कुमार - हां ज्योतिषीजी, आप किले में मत जाइये।
ज्यो - अगर मैं ऐयारी न जानता होता तो आपका ऐसा कहना मुनासिब था, मगर जो ऐयारी जानता है उसके आगे जवांमर्दी और दिलावरी हाथ जोड़े खड़ी रहतीहैं।
देवी - अच्छा चलिए फिर, हमको क्या, हमें तो और फायदा ही है।
कुमार - फायदा क्या?
देवी - इसमें तो कोई शक नहीं ज्योतिषीजी हम लोगों के पूरे दोस्त हैं, कभी संग न छोड़ेंगे, अगर यह मर भी जायेंगे तो ब्रह्मराक्षस होंगे, और भी हमारा काम इनसे निकला करेगा।
ज्यो - क्या हमारी ही अवगति होगी? अगर ऐसा हुआ तो तुम्हें कब छोड़ूंगा तुम्हीं से ज्यादे मुहब्बत है।
इनकी बातों पर कुमार हंस पड़े और घोड़े पर सवार हो ऐयारों को साथ ले चुनार की तरफ रवाना हुए। शाम होते - होते ये लोग चुनार पहुंचे और रात को मौका पा कमंद लगा किले के अंदर घुस गये।