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भाग 70

 


तिलिस्म के दरवाजे पर कुंअर वीरेन्द्रसिंह का डेरा खड़ा हो गया। खजाना पहले ही निकाल चुके थे, अब कुल दो टुकड़े तिलिस्म के टूटने को बाकी थे,एक तो वह चबूतरा जिस पर पत्थर का आदमी सोया था दूसरे अजदहे वाले दरवाजे को तोड़कर वहां पहुंचना जहां कुमारी चंद्रकान्ता और चपला थीं। तिलिस्मी किताब कुमार के हाथ लग ही चुकी थी, उसके कई पन्ने बाकी रह गये थे, आज उसे बिल्कुल पढ़ गए। कुमारी चंद्रकान्ता के पास पहुंचने तक जो - जो काम इनको करने थे सब ध्यान में चढ़ा लिए, मगर उस चबूतरे के तोड़ने की तरकीब किताब में न देखी जिस पर पत्थर का आदमी सोया हुआ था, हां उसके बारे में इतना लिखा था कि 'वह चबूतरा एक दूसरे तिलिस्म का दरवाजा है जो इस तिलिस्म से कहीं बढ़ - चढ़ के है और माल - खजाने की तो इन्तहा नहीं कि कितना रखा हुआ है। वहां की एक - एक चीज ऐसे ताज्जुब की है कि जिसके देखने से बड़े - बड़े दिमाग वालों की अक्ल चकरा जाय। उसके तोड़ने की तरकीब दूसरी ही है, ताली भी उसकी उसी आदमी के कब्जे में है जो उस पर सोया हुआ है।'
कुमार ने ज्योतिषीजी की तरफ देखकर कहा, “क्यों ज्योतिषीजी! क्या वह चबूतरे वाला तिलिस्म मेरे हाथ से न टूटेगा?”
ज्यो - देखा जायगा, पहले आप कुमारी चंद्रकान्ता को छुड़ाइए।
कुमार - अच्छा चलिए, यह काम तो आज ही खत्म हो जाय।
तीनों ऐयारों को साथ लेकर कुंअर वीरेन्द्रसिंह उस तिलिस्म में घुसे। जो कुछ उस तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था खूब ख्याल कर लिया और उसी तरह काम करने लगे।
खंडहर के अंदर जाकर उस मालूमी दरवाजे[1] को खोला जो उस पत्थर वाले चबूतरे के सिरहाने की तरफ था। नीचे उतरकर कोठरी में से होते हुए उसी बाग में पहुंचे जहां खजाने और बारहदरी के सिंहासन के ऊपर का वह पत्थर हाथ लगा था जिसको छूकर चपला बेहोश हो गई थी और जिसके बारे में तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था कि 'वह एक डिब्बा है और उसके अंदर एक नायाब चीज रखीहै।'
चारों आदमी नहर के रास्ते गोता मारकर उसी तरह बाग के उस पार हुए जिस तरह चपला उसके बाहर गई थी और उसी की तरह पहाड़ी के नीचे वाली नहर के किनारे - किनारे चलते हुए उस छोटे - से दलान में पहुंचे जिसमें वह अजदहा था जिसके मुंह में चपला घुसी थी।
एक तरफ दीवार में आदमी के बराबर काला पत्थर जड़ा हुआ था। कुमार ने उस पर जोर से लात मारी, साथ ही वह पत्थर पल्ले की तरह खुल के बगल में हो गया और नीचे उतरने की सीढ़ियां दिखाई पड़ीं।
मशाल बाल चारों आदमी नीचे उतरे, यहां उस अजदहे की बिल्कुल कारीगरी नजर पड़ी। कई चरखी और पुरजों के साथ लगी हुई भोजपत्र की बनी मोटी भाथी उसके नीचे थी जिसको देखने से कुमार समझ गये कि जब अजदहे के सामने वाले पत्थर पर कोई पैर रखता है तो यह भाथी चलने लगती है और इसकी हवा की तेजी सामने वाले आदमी को खींचकर अजदहे के मुंह में डाल देती है।
बगल में एक खिड़की थी जिसका दरवाजा बंद था। सामने ताली रखी हुई थी जिससे ताला खोलकर चारों आदमी उसके अंदर गए। यहां से वे लोग छत पर चढ़ गए जहां से गली की तरह एक खोह दिखाई पड़ी।
किताब से पहले ही मालूम हो चुका था कि यही खोह की - सी गली उस दलान में जाने के लिए राह है जहां चपला और चंद्रकान्ता बेबस पड़ी हैं।
अब कुमारी चंद्रकान्ता से मुलाकात होगी, इस ख्याल से कुमार का जी धड़कने लगा। चपला की मुहब्बत ने तेजसिंह के पैर हिला दिये। खुशी - खुशी ये लोग आगे बढ़े। कुमार सोचते जाते थे कि 'आज जैसे निराले में कुमारी चंद्रकान्ता से मुलाकात होगी वैसी पहले कभी न हुई थी। मैं अपने हाथों से उसके बाल सुलझाऊंगा, अपनी चादर से उसके बदन की गर्द झाडूंगा। हाय, बड़ी भारी भूल हो गई कि कोई धोती उसके पहनने के लिए नहीं लाए, किस मुंह से उसके सामने जाऊंगा, वह फटे कपड़ों में कैसी दु:खी होगी! मैं उसके लिए कोई कपड़ा नहीं लाया इसलिए वह जरूर खफा होगी और मुझे खुदगर्ज समझेगी। नहीं - नहीं वह कभी रंज न होगी, उसको मुझसे बड़ी मुहब्बत है, देखते ही खुश हो जायगी, कपड़े का कुछ ख्याल न करेगी। हां, खूब याद पड़ा, मैं अपनी चादर अपनी कमर में लपेट लूंगा और अपनी धोती उसे पहिराऊंगा, इस वक्त का काम चल जायगा। (चौंककर) यह क्या, सामने कई आदमियों के पैरों की चाप सुनाई पड़ती है! शायद मेरा आना मालूम करके कुमारी चंद्रकान्ता और चपला आगे से मिलने को आ रही हैं। नहीं - नहीं, उनको क्या मालूम कि मैं यहां आ पहुंचा!'
ऐसी - ऐसी बातें सोचते और धीरे - धीरे कुमार बढ़ रहे थे कि इतने में ही आगे दो भेड़ियों के लड़ने और गुर्राने की आवाज आई जिसे सुनते ही कुमार के पैर दो - दो मन के हो गए। तेजसिंह की तरफ देखकर कुछ कहा चाहते थे मगर मुंह से आवाज न निकली। चलते - चलते उस दलान में पहुंचे जहां नीचे खोह के अंदर से कुमारी और चपला को देखा था।
पूरी उम्मीद थी कि कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को यहां देखेंगे, मगर वे कहीं नजर न आईं, हां जमीन पर पड़ी दो लाशें जरूर दिखाई दीं जिनमें मांस बहुत कम था, सिर से पैर तक नुची हड्डी दिखाई देती थीं, चेहरे किसी के भी दुरुस्त न थे।
इस वक्त कुमार की कैसी दशा थी वे ही जानते होंगे। पागलों की - सी सूरत हो गई, चिल्लाकर रोने और बकने लगे - ”हाय चंद्रकान्ता, तुझे कौन ले गया? नहीं, ले नहीं बल्कि मार गया! जरूर इन्हीं भेड़ियों ने तुझे मुझसे जुदा किया जिनकी आवाज यहां पहुंचने के पहले मैंने सुनी थी। हाय वह भेड़िया बड़ा ही बेवकूफ था जो उसने तेरे खाने में जल्दी की, उसके लिए तो मैं पहुंच ही गया था, मेरा खून पीकर वह बहुत खुश होता क्योंकि इसमें तेरी मुहब्बत की मिठास भरी हुई है! तेरे में क्या बचा था, सूख के पहले ही कांटा हो रही थी! मगर क्या सचमुच तुझे भेड़िया खा गया या मैं भूलता हूं? क्या यह दूसरी जगह तो नहीं है? नहीं - नहीं, वह सामने दुष्ट शिवदत्त बैठा है। हाय अब मैं जीकर क्या करूंगा, मेरी जिंदगी किस काम आवेगी, मैं कौन मुंह लेकर महाराज जयसिंह के सामने जाऊंगा! जल्दी मत करो, धीरे -धीरे चलो, मैं भी आता हूं, तुम्हारा साथ मरने पर भी न छोड़ूंगा! आज नौगढ़, विजयगढ़ और चुनारगढ़ तीनों राज्य ठिकाने लग गए। मैं तो तुम्हारे पास आता ही हूं, मेरे साथ ही और कई आदमी आवेंगे जो तुम्हारी खिदमत के लिए बहुत होंगे। हाय, इस सत्यानाशी तिलिस्म ने, इस दुष्ट शिवदत्त ने, इन भेड़ियों ने, आज बड़े - बड़े दिलावरों को खाक में मिला दिया। बस हो गया, दुनिया इतनी ही बड़ी थी, अब खतम हो गई। हां - हां, दौड़ी क्यों जाती हो, लो मैं भी आया!”
इतना कह और पहाड़ी के नीचे की तरफ देख कुमार कूद के अपनी जान दिया ही चाहते थे और तीनों ऐयार सन्न खड़े देख ही रहे थे कि यकायक भारी आवाज के साथ दलान के एक तरफ की दीवार फट गयी और उसमें से एक वृद्ध महापुरुष ने निकलकर कुमार का हाथ पकड़ लिया।
कुमार ने फिरकर देखा लगभग अस्सी वर्ष की उम्र, लंबी - लंबी सफेद रूई की तरह दाढ़ी नाभी तक आई हुई, सिर की लंबी जटा जमीन तक लटकती हुई, तमाम बदन में भस्म लगाये। लाल और बड़ी - बड़ी आंखें निकाले, दाहिने हाथ में त्रिशूल उठाये, बायें हाथ से कुमार को थामे, गुस्से से बदन कंपाते तापसी रूप शिवजी की तरह दिखाई पड़े जिन्होंने कड़क के आवाज दी और कहा, “खबरदार जो किसी को विधावा करेगा!”
यह आवाज इस जोर की थी कि सारा मकान दहल उठा, तीनों ऐयारों के कलेजे कांप उठे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह का बिगड़ा हुआ दिमाग फिर ठिकाने आ गया। देर तक उन्हें सिर से पैर तक देखकर कुमार ने कहा :
“मालूम हुआ, मैं समझ गया कि आप साक्षात शिवजी या कोई योगी हैं, मेरी भलाई के लिए आये हैं। वाह - वाह खूब किया जो आ गए! अब मेरा धर्म बच गया, मैं क्षत्री होकर आत्महत्या न कर सका। एक हाथ आपसे लड़ूंगा और इस अद्भुत त्रिशूल पर अपनी जान न्यौछावर करूंगा? आप जरूर इसीलिए आये हैं, मगर महात्माजी, यह तो बताइये कि मैं किसको विधावा करूंगा? आप इतने बड़े महात्मा होकर झूठ क्यों बोलते हैं? मेरा है कौन? मैंने किसके साथ शादी की है, हाय! कहीं यह बात कुमारी सुनती तो उसको जरूर यकीन हो जाता कि ऐसे महात्मा की बात भला कौन काट सकता है?”
वृद्ध योगी ने कड़ककर कहा, “क्या मैं झूठा हूं? क्या तू क्षत्री है? क्षत्रियों के यही धर्म होते हैं? क्यों वे अपनी प्रतिज्ञा को भूल जाते हैं? क्या तूने किसी से विवाह की प्रतिज्ञा नहीं की? ले देख पढ़ किसका लिखा हुआ है?”
यह कह अपनी जटा के नीचे से एक खत निकालकर कुमार के हाथ में दे दी। पढ़ते ही कुमार चौंक उठे। ”हैं, यह तो मेरा ही लिखा है! क्या लिखा है? 'मुझे सब मंजूर है!' इसके दूसरी तरफ क्या लिखा है। हां अब मालूम हुआ, यह तो उस वनकन्या की खत है। इसी में उसने अपने साथ ब्याह करने के लिए मुझे लिखा था, उसके जवाब में मैंने उसकी बात कबूल की थी। मगर खत इनके हाथ कैसे लगी! वनकन्या से इनसे क्या वास्ता?”
कुछ ठहरकर कुमार ने पूछा, “क्या इस वनकन्या को आप जानते हैं?” इसके जवाब में फिर कड़क के वृद्ध योगी बोले, “अभी तक जानने को कहता है! क्या उसे तेरे सामने कर दूं?”
इतना कहकर एक लात जमीन पर मारी, जमीन फट गई और उसमें से वनकन्या ने निकलकर कुमार का पांव पकड़ लिया।
शब्दार्थ:


ऊपर जायें ↑ पहले लिख चुके हैं कि इसकी ताली तेजसिंह के सुपुर्द थी