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श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय ९


 
श्रीपराशरजी बोले- 
आकाशमें भगवान् विष्णुका जो शिशुमार ( गिरगिट अथवा गोधा ) के समान आकारवाला तारामय स्वरूप देखा जाता है, उसके पुच्छ-भागमें ध्रुव अवस्थित है ॥१॥
यह ध्रुव स्वयं घुमता हुआ चन्द्रमा और सूर्य आदि ग्रहोंको घुमाता है । उस भ्रमणशील ध्रुवके साथ नक्षत्रगण भी चक्रके समान घूमते रहते हैं ॥२॥
सूर्य , चन्द्रमा, तारे, नक्षत्र और अन्यान्य समस्त ग्रहगण वायु-मण्डलमयी डोरीसे ध्रुवसे साथ बँधे हुए हैं ॥३॥
मैंने तुमसे आकाशमें ग्रहगणके जिस शिशुमारस्वरूपका वर्णन किया है, अनन्त तेजके आश्रय स्वयं भगवान्‌ नारायण ही उसके हृदयस्थित आधार हैं ॥४॥
उत्तारपादके पुत्र ध्रुवने उन जगत्पतिकी आराधना करके तारामय शिशुमारके पुच्छस्थानमें स्थिति प्राप्त की हैं ॥५॥
ध्रुवका आश्रय है और धुर्वमें सूर्यदेव स्थित हैं तथा हे विप्र ! जिस प्रकार देव, असुर और मनुष्यदिके सहित यह सम्पुर्ण जगत् सुर्यके आश्रित है, वह तुम एकाग्र होकर सुनो ।
सूर्य आठ मासतक अपनी किरणोंसे छः रसोंसे युक्त जलको ग्रहण करके उसे चार महीनोंमे बरसा देता है उससे अन्नकी उप्तत्ति होती है और अन्नहीसे सम्पूर्ण जगत् पोषित होती है ॥६-८॥
सूर्य अपनी तीक्ष्ण रश्मियोंसे संसारका जल खींचकर उससे चन्द्रमाका पोषण करता हैं और चन्द्रमा आकाशमें वायुमयी नांडि़योंके मार्गसे उसे ध्रुम, अग्नि और वायुमय मेघोंमें पहूँचा देता है ॥९॥
यह चन्द्रमाद्वारा प्राप्त जल मेघोंसे तुरन्त ही भ्रष्ट नहीं होता इसलिये 'अभ्र' कहलाता है । हे मैत्रेय ! कालजनित संस्कारके प्राप्त होनेपर यह अभ्रस्थ जल निर्मल होकर वायुको प्रेरणासे पृथिवीपर बरसने लगता हैं ॥१०॥
हे मुने ! भगवान् सूर्यदेव नदी, समुद्र, पृथिवी तथा प्राणियोंसे उप्तन्न - इन चार प्रकारके जलोंका आकर्षण करते हैं ॥११॥
तथा आकाशगंगाके जलको ग्रहण करके वे उसे बिना मेघादिके अपनी किरणोसे ही तुरन्त पृथिवीपर बरसा देते हैं ॥१२॥
हे द्विजोत्तम ! उसके स्पर्शमात्रमें पाप-पंकके धुल जानेसे मनुष्य नरकमें नहीं जाता । अतः वह दिव्यस्नान कहलाता है ॥१३॥
सूर्यके दिखलायी देते हुए, बिना मेघोंके हि जो जल बरसता है वह सूर्यकी किरणोद्वारा बरसाया हुआ आकाशगंगाका ही जल होता हैं ॥१४॥
कृत्तिका आदि विषम ( अयुग्म ) नक्षत्रोंमें जो जल सूर्यके प्रकाशित रहते हुए बरसता है उसे दिग्गजोंद्वारा बरसाया हुआ आकाशगंगाका जल समझना चाहिये ॥१५॥
( रोहिणी और आर्द्रा आदि ) सम संख्यावाले नक्षत्रोंमें जिस जलको सूर्य बरसाया है वह सूर्यश्मियोंद्वारा ( आकाशगंगासे ) ग्रहण करके ही बरसाया जाता हैं ॥१६॥
हे महामुने ! आकाशगंगाके ये ( सम तथा विषम नक्षोयोंमे बरसनेवाले ) दोनों प्रकारके जलमय दिव्य स्नान अत्यन्त पवित्र और मनुष्योंके पाप-भयको दूर करनेवाले हैं ॥१७॥
हे द्विज ! जो जल मेघोंद्वारा बरसाया जाता हैं वह प्राणियोंके जीवनके लिये अमृतरूप होता है और औषधियोंके पोषक करता है ॥१८॥
हे विप्र ! उस वृष्टिके जलसे परम वृद्धिको प्राप्त होकर समस्त औषधियाँ और फल पकनेपर सूख जानेवाले ( गोधूम, यव आदि अन्न ) प्रजावर्गके ( शरिरकी उप्तति एवं पोषण आदिके ) साधक होते हैं ॥१९॥
उनके द्वारा शास्त्रविद् मनीषिगण नित्यप्रति यथाविधि यज्ञानुष्ठान करके देवताओंको सन्तुष्ट करते हैं ॥२०॥
इस प्रकार सम्पूर्ण यज्ञ, वेद, ब्रह्माणादि वर्ण, समस्त देवसमूह और प्राणिगण वृष्टिके हि आश्रित हैं ॥२१॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! अन्नको उप्तन्न करनेवाली वृष्टि ही इन सबको धारण करती है तथा उस वृष्टिकी उप्तत्ति सूर्यसे होती है ॥२२॥
हे मुनिवरोत्तम ! सूर्यका आधार ध्रुव है, ध्रुवका शिशुमार है तथा शिशुमारके आश्रय श्रीनारायण हैं ॥२३॥
उस शिशुमारके हृदयमें श्रीनारायण स्थित हैं जो समस्त प्राणियोंके पालनकर्ता तथा आदिभूत सनातन पुरुष हैं ॥२४॥
इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे नवमोऽध्यायः ॥९॥
 

विष्णु पुराण द्वितीय सर्ग Vishnu Puran

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Chapters
श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय १ श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय २ श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय ३ श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय ४ श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय ५ श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय ६ श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय ७ श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय ८ श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय ९ श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय १० श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय ११ श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय १२ श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय १३ श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय १४ श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय १५ श्रीविष्णुपुराण - द्वितीय अंश - अध्याय १६