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अथ सोशल डिस्टेनसिंग महात्म्य

दूरी मजबूरी है लेकिन बेहद जरूरी है । मनुष्य को सामाजिक प्राणी बताने वाले अरस्तू को कोरोना की अति सामाजिकता का भान रहा होता तो जरूर उसने सोशल डिस्टेनसिंग की किसी थ्योरी को ऐड ऑन किया होता । सामाजिक दूरी के इस कांसेप्ट ने नए प्रकार के विश्लेषणों का आह्वान कर दिया है । दूरियों का यूँ अपरिहार्य हो जाना आज के लिए समसामयिक परिघटना लग सकती है लेकिन ध्यान से देखे तो इन दूरियों ने सदियों से एक नायाब संतुलन साध रखा है ।

ये दूरियां जो अभिव्यक्त तो होती है किसी विच्छोह की पीड़ा लिए हुए मानो लेकिन अपने गर्भ में वो बांध कर रखती है उस प्रत्येक कण को जो एक दूसरे से दूरियों के माध्यम से ही जुड़ा है ।

इस ब्रह्मण्ड का हर एक पिंड बैठा है एक निश्चित दूरी पर , और इन दूरियों ने साध रखा है जाने कितनी आकाशगंगाओं को , हमारे हिस्से की मंदाकिनी के गर्भ से फूटता अपना सौरमंडल , और इसके मध्य बैठे सूर्यदेवता ने इन्ही दूरियों से अपनी  अपनी प्रकृतिवश साध रखा है नवग्रहों को । अपनी अपनी धूरी पे विचरते ये पिंड साध ही तो रहे हैं एक भव्य सामाजिक दूरी ।

सदियों पहले मानव सभ्यता ने ये बोध पा लिया था कि पृथ्वी तो गोल है और ध्रुवों पर चपटी सी । लेकिन आर्कटिक और अंटार्कटिका के रूप में उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव के मध्य का अवर्णित आकर्षण बांध कर रखता है इस समूची धरा को जिसके मध्य नृत्यरत हैं पंच महासागर , अविचल सप्त महाद्वीप , असंख्य प्रगतिशील  प्रजातियां , ऊंचे पर्वत, बहती नदियां, निर्मित नहरें, सुंदर झीलें, लबालब तालाब । सभी एक दूसरे से विलग और निराली सौन्दर्यता से आप्लावित ।

दूर ही तो हैं पृथ्वी और अम्बर, जिनके मध्य पनपता है एक संबंध नीर के नीरद बनने का और इस दूरी से जनती पिपासा विवश कर देती है किसी बादल को बरस पड़ने को । और इसी अंतराल में जन्म लेता है जीवन , सजने लगती है सभ्यताऐं ,लोलित हो उठती है इहलौकिकता ।

दूरियां निर्मित हुई त्रेता युग में भी मर्यादा शिरोमणि राम के द्वारा ।जहां पितृ आज्ञा का पालन कर चौदह बरस के लिए परिजनों और सुख सुविधाओं से दूरी साध ली तो वही एक दुर्लभ अंतराल मापा भी, अपने प्रेम के लिए चित्रकूट से लंका तक , जिसके निमित्त उपसंहार हुआ पृथ्वी पर  पनपती विचरती नकारात्मक शक्तियों का । लेकिन ये दूरियां समाप्त कैसे हो सकती थी , अतः एक अवांछित अंतराल श्रीराम जानकी के मध्य पुनः रचित हुआ ,जो तत्कालीन समाज मांग रहा था ।

द्वापर में जनकल्याण के निमित्त ही कदाचित दूरी साधनी पड़ी श्रीकृष्ण को भी गोकुल से ,राधा से , एक ऐसी गाथा के लिए जो अनगिनत बार कही जा चुकने के बाद भी मानो अगेय है किसी बिन बरसे अम्बुद की तरह ।

जो ये शिक्षित कर रही होती है कि उम्र का हर अंतराल हरेक पड़ाव कुछ नवीन प्रयोजन मांगता है । ये दूरी लास्य और हास्य के शैशव अवस्था से सृजन और विनाश के प्रौढ़ रूप में तब्दील होने तक कि यात्रा से भी परिचित कराती है ।

दूरियों की स्थानीयता से इतर युगों तक की दूरी भी प्रासंगिक हुई मां मीरा द्वारा जो विष का प्याला पीकर भी अमृत बरसाती रही , साथ ही जिन्होंने मान लिया था कि इस तथाकथित अंतराल की यात्रा के कण कण में ही उनके प्रेमिल कान्हा निवसित हैं । दूरियों का  इससे क़रीबी चित्रण और क्या हो सकता है भला ।

दूरी मूर्त हो या अमूर्त , समय की हो या स्थान की , शरीर की या आत्मा की , शून्य से आकार की । इन दूरियों का मापन ही गति है जीवन है मुक्ति है तो मोक्ष भी यही है । बस दूरियां स्थायी नही होनी चाहिए । इनका दोलन अपरिहार्य है ।  दूरियां कम हो ज्यादा हो ,मिटती रहे या मिटने की प्रक्रिया में हो । जीवन का वास्तविक सौंदर्य इन्ही दूरियों में वाबस्ता है ।

Writer - Ritesh Ojha
Place - Delhi, India
Contact - aryanojha10@gmail.com

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रितेश ओझा
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