अस्वीकार
"वह क्या है ?" राजा ने उत्सुकता से पूछा।
युवक तपस्वी ने उत्तर दिया, “महर्षि ने यह कहलवाया है कि अपनी बेटी शकुन्तला के साथ आपके विवाह से बहुत प्रसन्न हैं। उनकी बेटी के लिए आपसे अधिक योग्य पति कौन हो सकता था। शकुन्तला भी हर तरह से आपके योग्य है। इसलिए उन्होंने अपने आशीर्वाद के साथ उसे आपके पास भेजा है।"
"हे ईश्वर !" दुष्यन्त चिल्लाये, “इस सबका क्या अर्थ है? मैंने किसी तपस्वी की पुत्री से विवाह नहीं किया है। मुझे किसी शकुन्तला का स्मरण नहीं है।"
"वह अब इस घर की है," दूसरा तपस्वी युवक बोला, "राजन्, क्या आप यह नहीं जानते कि विवाहित कन्या सदा अपने पिता के घर नहीं रह सकती। विवाह के बाद पति का घर ही उसका होता है।”
"तुम यह कहना चाहते हो कि मैंने इस कन्या से विवाह किया है ?" दुष्यन्त चिल्लाये, “तुम ज़रूर पागल हो गये हो ? मैंने तो अपने जीवन में इस कन्या को कभी देखा तक नहीं है।"
"मुझे क्षमा कीजिए महाराज, मुझे तो ऐसा लगता है कि आप पागल हो गये हैं|” तपस्वी युवक बोला, “आप अपनी वधू को जिसे आपने स्वयं चुना है कैसे अस्वीकार कर सकते हैं ?"
राजा का यह व्यवहार देखकर शकुन्तला को बड़ी पीड़ा हुई। वह खड़ी-खड़ी चुपचाप रोती रही। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि उसके पति उसके साथ ऐसा अपमानजनक व्यवहार क्यों कर रहे हैं? जो उस पर इतना मोहित था अब उसे कैसे दुतकार रहा है।
माता गौतमी ने उसे धीरे से छुआ और कहा, “मेरी बच्ची अपना घुंघट उठा दो और इसे अपना मुख देखने दो। तब वह अवश्य तुम्हें पहचान लेगा।"
शकुन्तला ने धूंघट उठाकर आंसू भरी आंखों से राजा की ओर देखा, लेकिन राजा ने उसे अब भी नहीं पहचाना।
"मेरे विचार से मैंने तुम्हें कभी नहीं देखा है|" दुष्यन्त बोले, “लेकिन हां, यह मानता हूँ कि इतनी सुन्दर लड़की भी मैंने पहले कभी नहीं देखी। लेकिन मैंने इससे विवाह कभी नहीं किया। फिर मैं इसे अपनी रानी कैसे मान सकता हूँ।"
"मेरे देव, इतने क्रूर मत होइये|” शकुन्तला बोली। उसका हृदय दुख से फटा जा रहा था।"शायद मैं अब आपके लिए कुछ नहीं हूँ लेकिन आप हमारे विवाह से क्यों इन्कार कर रहे हैं। आपने मुझे वचन दिया था। क्या उसका अब आपके लिए कोई अर्थ नहीं है?"
“सुन्दर कन्या,” राजा क्रुद्ध होकर बोले, "तुम्हारे लिए मेरे बारे में ऐसी कहानी गढ़ना ठीक नहीं है। तुम अच्छी तरह से जानती हो कि जो तुम कह रही हो वह सत्य नहीं है।"
"आर्य, आपने मुझ से यह सब कहने का साहस कैसे किया ?" शकुन्तला चिल्लाई।
फिर उसने सारी कहानी कह सुनाई कि जब राजा आश्रम में गया था तो क्या-क्या हुआ था। लेकिन राजा ने फिर भी यही सोचा कि यह सब मनगढन्त है। अपने आंसुओं को पीकर शकुन्तला ने कहानी सुनाना जारी रखा।
"फिर आप हमारी तरह ही आश्रम में रहे और अन्त में मुझ से विवाह का प्रस्ताव किया। मैंने आपसे विनती की कि बाबा के यात्रा से लौटने तक रुक जाइए। आपने कहा कि आप और प्रतीक्षा नहीं कर सकते क्योंकि राजधानी में कुछ ज़रूरी काम हैं। आपने मुझ से गुप्त रूप से विवाह करने के लिए कहा और मैं मान गई। आप कुछ दिन और वहां ठहरे और फिर वहां से चले आये। चलने से पहले आपने अपनी अंगूठी स्वयं मेरी उंगली में पहनायी और वायदा किया कि आप जल्दी ही अपना सुनहरा रथ मुझे लेने के लिए भेजेंगे। आप ये सब वायदे कैसे भूल गये। नहीं, नहीं, आप वास्तव में ऐसा नहीं कह रहे हैं। आप केवल मज़ाक कर रहे हैं कि मुझे जानते ही नहीं। कृपा करके मुझे ऐसे तंग मत कीजिए।"
"सुन्दरी, मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ|” दुष्यन्त बोले, "कि मैं इतना संयत कभी नहीं था जितना इस समय हूँ। मुझे अब भी जो कुछ तुमने कहा है उस पर बिलकुल विश्वास नहीं आता। क्या तुम्हारे पास कोई ऐसी वस्तु है, जिससे तुम अपनी कहानी की सचाई प्रमाणित कर सको?"
"अच्छा, तब,” शकुन्तला बोली, “अपनी अंगूठी को देखो जिस पर आपका नाम खुदा हुआ है। क्या यह भी झूठ है ?"
"बहुत अच्छा, मुझे दिखाओ,” राजा ने कहा।
लेकिन जब शकुन्तला ने अपनी अंगुली देखी तो पाया कि अंगूठी गायब है। उसने सब जगह अंगूठी ढूंढ़ी लेकिन वह कहीं नहीं मिली।