चित्रकूट का किला
'गढ़ तो चित्तौड़गढ' का नाम तो सभी जानते हैं मगर चित्तौड़ से भी प्राचीन किला तो चित्रकूट है जिसे लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व चन्द्रगुप्त मौर्य ने बसाया था। इतिहास में मौर्यवंश बड़ा प्रसिद्ध है। राजा मोरध्वज से इसका प्रारंभ हुआ। मोरध्वज उत्तराखण्ड का था, जिसने धार पर चढ़ाई कर राजपद पाया। रधु भी इसी मौर्यकुल में हुए। तेरहवीं पीढी में चन्द्रगुप्त हुआ। अपने भाइयां से झगड़ा होने के कारण वह निकल पडा। यह कह कर कि यदि एक अलग चित्रकूट न बसाऊं तो असल मरद मत कहना। चन्द्रगुप्त की इसी वाणी ने चित्रकूट को जन्म दिया। चित्तौड के किले पर वर्तमान में जो 'डियर पार्क' है वही चित्रकूट है। यह अजीब संयोग ही रहा कि जब से चित्रकूट की नींव पडी, तब से यहा रक्त ही बहता रहा है। जौहर और जुद्ध (युद्ध) का ही तो इतिहास है यहां।
एक से एक बढ चढकर वीर वीरांगनाएं यहां हुई। सुबह नाश्ते में पूरा पाड़ा खा जाने वाले महाबलि खुरसाण यहा हुए। दस हाथियों का बल लिये जयमल जैसे युद्धवीर हुए। गोरा बादल जैसे शूरमा हुए। जवाहर बाई जैसी वीराणी हुई। पत्ता जैसे दमखमवाले वीर और उनकी मा, पत्नी और बहन ने जो कमाल युद्ध के दौरान दिखाया, इतिहास उसे कहा अपनी कलम दे पाया। ऐसे चित्रकूट-चित्तौड़ को मिटाने कई आये, पर वे स्वयं मिट गये। चित्रकूट चित्तौड आज भी अमर है। चित्तौड़ का किला एक गाय की तरह है। चित्रकूट उसका मुख है गोमुख। इस गोमुख में प्रवेश देते हुए चौकीदार ने हमसे कहा-
“जानवरो का बड़ा खतरा है।जा तो रहे हो मगर पूरी सावधानी बरतना।”
भीतर धुसते ही जगली सुअरों की आहट और आक्रामक रवैया। हम आगे बढ ही नही पाये। चौकीदार ने हाक पिलाई और लट्ठ बजाया। हमे इशारा दिया, बोला- 'रास्ते रास्ते चले जाओ। जरा होशियार रहना। नील गाय, अजगर, रीछ कुछ भी मिल सकता है। हम बढ़ते रहे। और कोई नही था देखने वाला। सुबह-सुबह हम ही थे। चौकीदार को क्या मालूम कि हमे वह सब नही देखना है जिसे सब लोग देखने का उत्सुक रहते हैं। हम तो वह देखने आये है जिसे कोई नही देखता। कोई जानता भी नही। सीधे चलते-चलते आखिर छोर तक। खंडहर, चट्टानें और वहां की रचना देखी।
लगा जेसे सारा वातावरण एक सुव्यवस्थित पुरातन किला होने की मौन कथा लिये मुखरित होना चाहता है तब कितना गाजगूंज भर समय रहा होगा यहा बैठक का। एक ही चट्टान का विशाल पोखरा देखा। इसी पर बैठक मंडती थी और अमल तमाखु के साथ बडी-बडी मत्रणाएं चलती थी। पूरा किला ऊपर से उबड़ खाबड ध्वसाशेष लिएपर भीतर से, अन्तर की अजीब सी भूलभूलैया गुप्त कूट। यह अन्तरवासा है जिसमे नारिया रहती थी। दुश्मन उनका भेद तक नहीं पा सकता था। तीन-तीन मजिले ४/१९ बासे- रनिवास!
उनमे पहुंचने के कठिन रास्ते। हवादान। पानी की गुपचुप नालिया। भोजन पहुचाने के चीरे। हुक्का पानी लेने, चौकरी सी करने और चौपाल जोड़ने की चौकिया। सैनिक हर समय तैयार रहते। घोडे दौडते रहते । आदेश-निदेश चलते रहते। तोपें बन्दूकें चलती। ऊपर राममंदिर के खडहर।
राम के वंशज होने से। अधिकतर लड़ाइया राजपूत राजपूत के बीच लड़ी गई। मुसलमान तो बहुत बाद में आये। लडाई होती मुख्यतः नारी प्राप्त करने को। योद्धा मर जावे, नारी मर जावे परन्तु उसका शील भंग न हो पाये, इसीखातिर जौहर होते। इसी खातिर केसरिया धारण किया जाता। नानी बारी (छोटी खिड़की) जिससे सैनिक निकल शत्रुओं पर टूट पडते और कोई दुश्मन गर्दन झुका भीतर प्रवेश करने का दुस्साहस करता तो उसका सर कलम कर दिया जाता। कैसे बनाये गये होगे ये सब। किसने बनाये होंगे।
दुर्ग गृह निर्माण की कला कितनी उन्नत उत्कर्ष परथी। कौन होते थे ये नक्काश। अर्किटेक्ट| यहीं एक दीवाल में तीन प्रस्तर प्रतिमाएं लगी देखीं जिनके वक्षस्थल कटे हुए है। दुश्मन का पहला वार ही नारी के वक्षस्थल पर होता। जब प्रतिमाओं के यह स्थिति कर दी जाती तब साक्षात नारी पर कितने हुए होंगे प्रतिमाओं से थोड़ी दूर धेरधुमेर वट वृक्ष, जिसके नीचे शिवलिंग स्थापित किया हुआ है। न जाने कब से भृरत- सूखे शिवलिग को हमने सबसे पहले अमल-पानी की धार दी। बद की महिमा का क्या कहना। करोडों बीज नष्ट होते है तक एक बड फलता है। बारह बार करना धेगव मे पसरे बड की उम्र ही हजार बरस होती है। उसके बाद उसकी बडवाई जान फिर वड का रूप धारण करती है।
यह जड़ कोई सामान्य जड नहीं होती: केक पालाल तर इसकी पहुच होती है। परकोटे से दिखती थोडी दूर बडी चर्चित मोहर मगरी। मजदूरों द्वारा अकबर ने तैयार करवाई यह मगरी। मजदूर एक-एक टोकरी मिट्टी की डालते और बदले में एक स्वर्ण मुद्रा मोहर पाते। ऐसे आदमियों के, औरतों के जत्थे के जत्थे उलट पढ़ते। गांव के गाव उलट पड़ते। आसपास के दूर-दूर तक के। ये मजदूर टोकरी लेकर एक सिरे से आते। टोकरी डालते, मोहर पाते और दूसरे सिरे से निकलते वक्त मौत के घाट उतार दिये जाते।
मोहर और मृतकों के कितन ढेर लगे होंगे तब...!! अकबर किले की ऊंचाई तक यह मगरी खड़ी कर वहां से परकोटा उड़ा किले तक पहुंचना चाहता था। डियरपार्क मे माईडियर चित्रकूट का यह वैभव आज अपने व्यतीत भव की गौरव गरिमा से अनुष्ठानित रूपाकारों का बेरूप बना अजान पड़ा है। कब कौन ऐतिहासिक अध्येता, खंडहरवेत्ता, पुरातत्ववेत्ता इसकी सुध लेगा।