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कुंभा महल

चित्तौड में जितने महल-अवशेष है उनमें कुंभा महल सबसे अधिक विशाल, फैला हुआ और भव्याकृति लिये है। भोज जब मीराबाई से विवाह कर लौटे तो सूरजपोल दरवाजे पर बडा सत्कार करने के पश्चात इसी महल में उनका बघावणा हुआ। यह बधावणा विशेष उमग और हरख लिये था। इसके दो कारण थे। एक तो यह कि भोजजी जब विवाह करने गये तो उनके साथ पांच ही व्यक्ति थे। युद्ध का वातावरण होने से अधिक नहीं जा पाये। दूसरा यह कि वे शादी ही नहीं करना चाहते थे पर उन्होंने सब का मन रखा। फिर वे ज्येष्ठ पुत्र भी थे। राणा सांगा तो इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने भोजजी को रहने के लिये कुंभा महल ही बख्शीश में दे दिया। यह महल नौ खंडिया था। पूरे महल के नीचे अन्तरखड है। जब संकट आ धेरता तब सबके सब भीतर की ओर चले जाते। इससे दुश्मन को कोई भेद नहीं मिल पाता। जहां मीरा रहती उसी के सामने दासियां रहती।

महल में महाराणा कुंभा ने जो था वह अभी भी अपनी लवि दे रहा है लाल रंग हमने मीराबाई के रहने का महल देखा। स्नान धर देखा जिसका पानी भीतर ही पक्की नालियो में होकर निकलता। एक ओर खडहर के रूप में बाहर से आने वाली दासियों ठुकरानियों के बने निवास भी देखे। वह भुवारा भी देखा जिसमें किसी दासी को चुगलखोर अथवा धोखेबाज होने पर डाल दिया जाता जो ठेठ नीचे अंधेरे गुप्प में जाकर धुट-घुट कर अपनी इहलीला समाप्त कर देती। इनके अतिरिक्त हाथियों के ठाण, खजाने, सभा मडप, मुजग करने का विशेष चौक (चबूतरा) भी देखा। वह तलधर भी देखा जिसमें तीन बार जौहर हुए। हमने इसके भीतर जाकर वह जौहर की राख अपने मस्तक पर लगाई।

यही जमीन मे गड़ा एक बड़ा सा लौहखंभ देखा। वस्तुत. यह लौहखभ नही होकर तोप का गोला था जिसे दुश्मन ने दागा था महल उडाने के लिए परन्तु आगे मदिर होने के कारण महल तो बच गया पर मंदिर ध्वस्त हो गया और गोला लौहखभ बन जमीन पर जा गड़ा जो आज हिलाये भी नहीं हिलता। यही महल के एक ओर जमीन की एक लंबी पूरी लाल पट्टी है। ऐसा लगता है जैसे छोटे-छोटे पत्थर कणों को गाढा रंग दे यहा बिछा दिया गया है।

पूछने पर कल्लाजी ने बताया कि हाथियों को यहा मद में मस्त कर आपस में खूब लड़ाया जाता था। यह लडाई इतनी भयंकर होती कि हाथी लहूलुहान हो जाते। उसी लहू से यह जमीन और ये कंकड सने हुए है। यही महल के अहाते में बनी देवनारायण की मंदरी देखी। लोकदेवता के रूप में थरपित देवनारायण की गुजरों में तो बडी जबर्दस्त मानता है। पड बांचने वाले भोये देवनारायण की पड़ फैलाकर कई रातों तक विशिष्ट गीतगाथा के साथ उसका गायन वाचन नर्तन करते हैं। इन्हीं देवनारायण ने महाराणा प्रताप को शक्ति स्वरूप चेटक घोडा दिया था।

भीलवाड़ा के श्रीलालजोशी ने देवनारायण की पडबनाने में बड़ा नाम कमाया। उनके पडचित्र पर भारत सरकार ने पाच रुपये का एक रंगीन डाक टिकिट भी जारी किया।