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पाप को रोको

महासुपिन जातक की गाथा – [सांड़, वृक्ष, गाएँ, बैल, घोड़ा, कांसा, स्यारी, घड़ा, पुष्करिणी, कच्चा चन्दन, तूंबे डूबते हैं, शिलाएँ तैरती हैं, मेंढकियाँ काले सर्पों को निगलती हैं, राजहंस कौओं के पीछे चलते हैं (और) भेड़िये बकरियों से डरते हैं।]

वर्तमान कथा – स्वप्नों का फल
एक बार कोशल के राजा ने रात्रि के पिछले पहर में एक साथ सोलह स्वप्न देखे। इन स्वप्नों को देख वह भयभीत हो गया। प्रभात होने पर उसने ब्राह्मणों को बुलाकर सोलहों स्वप्न सुनाए। ब्राह्मण स्वप्न सुनकर हाथ मलने लगे। राजा ने पूछा, “हे द्विजवरो! इन स्वप्नों का क्या फल होगा?”

ब्राह्मण बोले, “राज्य, भोग सम्पत्ति और जीवन – तीनों पर अथवा तीन में से किसी एक पर संकट अवश्य आएगा।”
राजा ने पुनः पूछा, “ये स्वप्न स-उपाय हैं अथवा निरुपाय?”

ब्राह्मणों ने कहा, “यद्यपि ये स्वप्न कठोर और निरुपाय हैं, फिर भी हम इनका उपाय करेंगे। यदि ऐसा न कर सकें तो फिर हमारी विद्या ही किस काम की।”

“क्या उपाय करेंगे आप”, राजा ने चिन्तापूर्वक पूछा। ब्राह्मणों ने कहा, “हम लोग यज्ञ करेंगे।”

राजा ने स्वीकार कर लिया। राज-भवन में चारों ओर चहल-पहल प्रारम्भ हो गई।

महारानी मल्लिका देवी को जब यह समाचार मिला तो उन्होंने इस विषय में भगवान बुद्ध का आदेश प्राप्त करने की सलाह दी। महाराज ने तथागत की सेवा में उपस्थित होकर अपने स्वप्नों की बात कही और उनके विषय में क्या करना उचित है, यह जानने की जिज्ञासा की।

भगवान बुद्ध ने कहा, “राजन्! स्वप्न का फल क्या होगा यह निश्चय पूर्वक कोई नहीं कह सकता। मैं इस समय केवल इतना ही कह सकता हूँ कि अभी मेरे और तुम्हारे जीवन-काल में इस स्वप्न के कुपरिणामों का कोई भय नहीं है। परन्तु भविष्य में जब धर्म का बिलकुल नाश हो जायगा और पाप बुद्धि सर्वत्र फैल जायगी, तब इनके भयंकर परिणाम देखने को मिलेंगे।”

इतना कहकर भगवान ने सब स्वप्नों के फल राजा को बताए और कहा, “जिस प्रकार तूने ये सोलह स्वप्न देखे हैं, इसी प्रकार पूर्व जन्मों में और राजाओं ने भी देखे थे। उस समय भी ब्राह्मणों ने यज्ञों द्वारा उनकी शान्ति बताई थी; परंतु मेरे परामर्श से वे हिंसक यज्ञ रोक दिये गए थे।”

इतना कहकर उन्होंने “पाप को रोको” नामक पूर्व-जन्म की एक कथा इस प्रकार सुनाई।

अतीत कथा – पाप फैलने से रोको
वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त ने एक बार इसी प्रकार के सोलह स्वप्न देखे थे। ब्राह्मणों ने निर्णय दिया कि यज्ञों द्वारा ही इन स्वप्नों का कुफल टाला जा सकेगा। इन यज्ञों के पुरोहित का एक शिष्य था माणवक। माणवक हिंसात्मक यज्ञ-विधानों का विरोधी था। उसने कहा, “आचार्य! आपने मुझे तीनों वेद पढ़ाए; परंतु उनमें मुझे कहीं यह लिखा न मिला कि एक जीव के मारने से अन्य जीव सुखी हो सकते हैं।”

पुरोहित ने कहा, “इन यज्ञों द्वारा हमें बहुत धन मिलेगा। क्या तू राजा का धन बचाना चाहता है?”

माणवक को अपने लोभी गुरु के प्रति अश्रद्धा हो गई। एक दिन वह राजोद्यान में घूम रहा था कि सहसा वहाँ बोधिसत्व के दर्शन हो गए। उसने उनसे ब्राह्मणों के हिंसात्मक यज्ञों की चर्चा की और कहा, “भन्ते! राजा तो बहुत भला है; परंतु ये ब्राह्मण उसे डुबो रहे हैं।”

बोधिसत्व ने माणवक से कहा, “यदि तुम्हारा राजा मेरे पास आएगा तो मैं उसे यथार्थ ज्ञान दूंगा।” माणवक द्वारा बोधिसत्व के प्रगट होने का समाचार सुन, राजा तुरन्त उनकी सेवा में उपस्थित हुआ और प्रणाम कर अपने स्वप्नों की बात छेड़ी।

बोधिसत्व ने कहा, “पाप की वृद्धि होने पर अकल्पित घटनाएँ अवश्य घटित होंगी। उनके फलों से बचने का एक ही उपाय है कि पाप को फैलने से रोका जाय। ये ब्राह्मण जो यज्ञादि कर्म करवाते हैं, इनसे पशु वध आदि के द्वारा पाप की वृद्धि ही होती है। इनके द्वारा पाप से मुक्ति कैसे मिल सकती है? अतः पाप को रोको।”

राजा ने बोधिसत्व को प्रणाम किया और उस दिन से हिंसक यज्ञ विधान बंद करा दिये। जब तक वह जीवित रहा, उसके राज्य में कोई ऐसा उपद्रव नहीं हुआ जैसा कि स्वप्नों के फलस्वरूप होने का भय था।