बुद्ध की शरण में अजातशत्रु
संजीव जातक की गाथा – [दुष्ट से मित्रता करो, विपत्ति में उसकी सहायता करो परंतु उस सिंह के समान, जिसे संजीव ने पुनरुज्जीवित किया था, वह तुम्हारे उपकारों और कष्टों को भुलाकर तुम्हारा भक्षण कर जायगा।]
वर्तमान कथा – बुद्ध की शरण में राजा अजातशत्रु
मगध का राजा अजात-शत्रु बडा क्रूर स्वभाव था। वह भगवान बुद्ध के कट्टर विरोधी देवदत्त का भक्त था। देवदत्त ऊपर से साधु था, परन्तु उसका मन सदा नीच कर्मों की ओर ही दौड़ता था। देवदत्त की सलाह से अजातशत्रु ने अपने पिता का वध कर डाला।
जब देवदत्त की मृत्यु का समाचार उसे मिला, तो राजा एकदम घबड़ा गया। अब उसे अपने किये हुए पापों का भयंकर रूप प्रत्यक्ष दिखाई देने लगा। प्रजा यद्यपि राजा से डरती थी, फिर भी हृदय से उसका आदर नहीं करती थी। एक दिन उसने अपने मंत्रियों से कहा, “मुझे एक ऐसे गुरु की बड़ी आवश्यकता है, जो मुझे समय पर उचित और अनुचित का बोध करा सके और अन्याय करने से रोक सके।”
मंत्रियों में बहुत-से देवदत्त के ही समर्थक थे। उन्होंने तत्कालीन विद्वान, पुराणकश्यप मक्खलि घोशाल, अजित-केश-कम्बल, काकायन, संजय बेलाढिपुत्र तथा निगंठनाथ पुत्र के नाम लिये। प्रधानमन्त्री जीवक जरा गंभीर स्वभाव का व्यक्ति था। वह चुप ही रहा। जब राजा ने उससे अपना मत प्रगट करने का अग्रह किया तब जीवक ने कहा, “हे राजन्, इस समय भगवान बुद्ध मेरे पाम्रकुंज में अपने तेरह सौ भिक्षुओं के साथ ठहरे हुए हैं। मेरा विचार है कि इस समय आपको उनके उपदेशों के सिवा अन्य किसी व्यक्ति के पास शान्ति नहीं मिलेगी।”
अजातशत्रु अपने पूर्व जीवन पर पश्चात्ताप कर रहा था। वह अब उस पुराने मार्ग पर चलता नहीं चाहता था। उसने जीवक के प्रस्ताव का स्वागत किया और भिक्षुओं के लिये उपयुक्त भेंट लेकर भगवान बुद्ध की सेवा में आम्रकुञ्ज में उपस्थित हुआ।
वहाँ भिक्षुओं के सरल पवित्र आचरणों का तथा बुद्ध के उपदेशों का उस पर बहुत प्रभाव पड़ा और बुद्ध की शरण में अजातशत्रु आ गया। वह बुद्ध का अनुगत हो गया। एक बार भिक्षुओं में चर्चा चली कि देवदत्त के द्वारा राजा को कितना पथभ्रष्ट किया गया। तब भगवान बुद्ध ने कहा, “अजातशत्रु ने इसी जन्म में भूल नहीं की है। इससे पूर्व भी उसने भयंकर भूल की थी।” ऐसा कहकर उन्होंने पूर्व जन्म की एक कथा इस प्रकार सुनाई–
अतीत कथा – शेर को जीवत करने का परिणाम
एक बार जब बनारस में ब्रह्मदत्त राज्य करता था, उस समय बोधिसत्व का जन्म एक धनी ब्राह्मण के घर हुआ। सयाने होने पर उन्होंने तक्षशिला में जाकर वेदों और शास्त्रों का अध्ययन किया। बनारस आकर उन्होंने अपना एक विद्यापीठ खोला, जहाँ ५०० ब्रह्मचारी भिन्न-भिन्न विषयों का अध्ययन करते थे। एक विद्यार्थी की जिज्ञासा पर बोधिसत्व ने उसे मृतक संजीविनी विद्या सिखा दी। इस विद्या को सीखने से उसका नाम ही संजीव पड़ गया।
एक दिन कुछ अन्य आश्रम-वासियों के साथ संजीव वन में लकड़ी लाने गया था। वहाँ उसे एक मरा हुआ सिंह दिखाई दिया। संजीव अपनी विद्या का प्रयोग करने की प्रबल लालसा को रोक न सका।
उसने अपने साथियों से कहा, “देखो, मैं अभी अपनी विद्या के द्वारा इस मरे हुए सिंह को जीवित किये देता हूँ।” उसके साथी संजीव के इस चमत्कारपूर्ण कार्य को देखना चाहते थे, परंतु इस डर से कि कहीं जीवित होकर सिंह उन्हीं पर आक्रमण न कर दे, वे कुछ दूर पर पेड़ों पर चढ़कर संजीव की विद्या का चमत्कार देखने लगे।
संजीव ने मन्त्रों का उच्चारण किया। एक डंडे से सिंह के शरीर को छुआ और कुछ और प्रयोग किये। धीरे-धीरे सिंह में चेतना आ गई। वह एक अंगड़ाई लेकर उठ बैठा। संजीव अपनी विद्या की सफलता पर बड़ा प्रसन्न था। उसने सिंह के शरीर पर हाथ फेरा, परन्तु सिंह भूखा था। उसने भयंकर गर्जना की और संजीव को अपने मुख में दाब कर मार डाला।
जब शिष्यगण लकड़ी लेकर आश्रम में आए तब उन्होंने बोधिसत्व से सब वृत्तान्त कहा। बुद्ध की शरण में अजातशत्रु के आने की पूर्वजन्म की कहानी का अंत करते हुए तथागत ने कहा – दुष्ट से मित्रता करो, विपत्ति में उसकी सहायता करो परंतु उस सिंह के समान, जिसे संजीव ने पुनरुज्जीवित किया था, वह तुम्हारे उपकारों और कष्टों को भुलाकर तुम्हारा भक्षण कर जायगा।
अंत में भगवान बुद्ध ने कहा, “अजातशत्रु ही पूर्व जन्म में संजीव था और इसने तब भी भयंकर भूल की थी।”