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तूफान

बह एक नेक औरत थी, जिसने मुझसे यह कहानी कही थी; और कहानी
क्या, जैसे उसने पापियों, नवयुवकों, और आधुनिकता के पीछे दीवाने लोगों
को एक चेतावनी-सी दी हो 
 “आसमान नीला और साफ था। 
 देखते-देखते काली घटाएं घिर
आई-काली-काली घनघोर घटाएं, जिनके अंतराल में एक भारी तूफान छिपा
था। पहले पहल तो वे दूर जंगल के उस पार क्षितिज पर उठती दिखाई
दी थीं, लेकिन जरा देर में ही गांव के ऊपर का सारा आकाश उनसे छा
गया। झंझा का तेज झोंका उन्हें भगाए लिए चला आ रहा था, जैसे कोड़े
की चोट से नटखट घोड़े को सरपट भगाया जा रहा हो। गुस्से में भरी हुई,
फूली-फूली, सूजी-सूजी और सर्वनाश के लिए तत्पर वे घटाएं जैसे फुफकारती
हुई चली आ रही थी।
और आंधी-एक पूरा भयानक झंझावात जैसे सब कुछ मिटा देने के
लिए ही उद्यत हो! धूल के बादल के बादल पानी के उन बादलों से जाकर
टकरा रहे थे। छतें उड़-उड़कर सैकड़ों गज दूर जा रही थी। दीवारें दरदर
कर, तड़क-तड़ककर गिर रही थीं। पेड़ों की पंक्तियों और टहनियों का तो
भुरकुस ही निकला जा रहा था और पेड़ जड़ से उखड़कर धराशायी हो
रहे थे! प्रलय का दिन आया लगता था! 
 गांव पर आतंक छा गया था! 
 उजला-उजला दिन यकायक ही काली-काली

डरावनी रात में बदल गया था-इतनी काली रात जैसे धर्मात्मा यहूदी की
कष्टकर काली आत्मा!

 गांव वाले जल्दी-जल्दी अपने-अपने घरों की खिड़कियां और किवाड़ें
बंद कर रहे थे। 
 अपने पापों के प्रायश्चित के लिए उद्यत पापी यहूदियों
के चिंतित मुख और भी चिंतित हो उठे थे! 
उन्हें लग रहा था कि कुयामत
का दिन आज आ ही गया।  
 अपने पापों की विकरालता उनके दिलों को
प्रतिपल बैठा रही थी। ईश्वर फटकार बता रहा था। भजन गानेवालों की
मातमी आवाज और भी भारी और रुआसी हो उठी!
 अंधकार घना होता ही गया। शैने ने अपने नेत्र भजनों पर से हटाए
और चश्मा लगाकर उन्हें बाहर सड़क पर गड़ा दिया।
ऊहू!”-वह चिल्लाई! उसका दिल धड़क रहा था, और सांसें भारी
भारी चल रही थी। 
 एक क्षण के लिये वह एकटक बाहर देखती ही रह गई। उसने धीरे
से सिर हिलाया। भगवान की सर्वशक्तिमत्ता को उसकी आत्मा इस समय
- अनुभव करने लगी थी।
 अंधेरा कम न हुआ, न हुआ। घटाओं का अनंत समूह चला ही चला
गया। ख़ाक और धूल के बड़े-बड़े बगूले हूकती हुई हवा में चक्कर खाते
रहे।

 शैने और आगे भजन न गा सकी। उसने अपना चश्मा उतार कर
भजन की किताब के पन्‍नों में रख दिया, और उठ खड़ी हुई और अपनी
पुत्री के कमरे में चली गई।
 “तुमने उससे क्या कहा... ?”-उसने कमरे में घुसते-घुसते कहा; लेकिन
पुत्री कमरे में नहीं थी।
 वृद्धा ने कमरे का कोना-कोना खोज डाला; फिर जाकर रसोई-घर देखा।
जब वह वहां भी नहीं मिली, तब फिर वह उसी कमरे में लौट आई! लड़की
की ओढ़नी गायब थी। कपड़ों की अलमारी खोली; उसकी जाकिट भी नहीं
धी!
वह चली गई! 
और उसने उससे कह दिया था कि आज घर से बाहर वह कहीं न
निकले-कम से कम इस कृयामत के दिन तो वह घर बैठे और उस विघधर्मी
छोकरे के पास न जाए।
 
बाहर के काले आसमान की तरह ही उसकी वृद्ध मुद्रा काली हो उठी! 
बाहर के तूफान की तरह ही उसके दिल में तूफान उठने लगा! 
 वह मर्माहत
घायल शेरनी की तरह कमरे में इधर से उधर चक्कर काटने लगी-जैसे
किसी को खा जाने के लिए ढूंढ़ रही हो-जो कुछ भी पा जाए, उसके
टुकड़े-टुकड़े कर दे। 
“ऐसी पुत्री से तो बांझ भली थी ?”-उसका उद्देलित हृदय चीख पड़ा,
और उसने आकाश की तरफ अपना हाथ उठाया। 
जो अभिशाप उसके ओठों से इस पवित्र रविवार* को बरबस निकल
गया था, उससे वह डरी नहीं! इस समय तो वह क्रूर से क्रूर शाप और
कठोर से कठोर बात कहने के लिए भी उद्यत थी। 

 इस समय अगर उसकी बेटी उसे कहीं मिल जाती, तो वह उसका
झोंटा पकड़ कर खींचती, और उसकी खूब जी भरकर कुचली करती!

 यकायह जल्दी से उसने अपना शाल सिर पर ओढ़ा और घर से निकल
पड़ी ।
 वह दोनों को तलाश कर उनका अंत जो कर डालना चाहती थी।
बिजली चमक गई और फिर बादल गड़गड़ाए!
बिजली रह-रहकर चमक उठती थी, और बादल गरज-गरज पड़ते थे।
एक के बाद एक बिजली और भी तेजी और चमक के साथ आंखों को
अंधा किए देती थी-एक के एक बाद एक और घोर गरजन कान फोड़े
डालता था! 
 गांववालों का भय भी बढ़ता ही जा रहा था। प्रायश्चित्त के रविवार
को ऐसा विकराल गर्जन, बिजली की इतनी विकृत चमक,-उफ्‌-एकदम
दानवी! सबके दिल कंपने लगे-सबकी आत्माएं ईश्वर से रक्षा के लिये प्रार्थना
करने लग गईं। लेकिन वृद्धा शैने को इसकी कोई ख़बर नहीं थी।

 आंधी ने उसकी आंखों को धूल से अंधा कर दिया, सिर की ओढ़नी
चीर-चीर कर दी-कमर से नीचे के कपड़े को उड़ा-उड़ा कर उसे नंगा कर-कर
दिया-बालों की लटें बुरी तरह बिखरा दीं!
यहूदियों के यहां काम से विश्राम के लिए सप्ताह का अंतिम दिन, परंतु ईसाईयों
का सप्ताह का प्रथम दिन, क्योंकि इसी दिन ईसामसीह को सूली लगी थी!
 
 लेकिन इन सबकी परवाह उसने नहीं की। वह चलती ही चली गई।
उसकी आंखों को कुछ नहीं दिखलाई देता था, कानों को कुछ भी
सुनाई नहीं पड़ता था। उसका अंतर जला-भुना जा रहा था! उसी की जलन
से वह भागी-भागी जा रही थी-उसके सामने सब कुछ एक धुंध था-अंधकारमय
था। दिखाई कैसे देता, आंखें क्रोधाग्नि में अंधी जो हो रही थीं! 
 उसका छोटा आकार और भी छोटा होता चला गया। वह जैसे दुहरी
होकर सांस रोककर भागी चली जा रही थी-आंधी से भी तेज चलती हुई
लगती थी। उससे भी आगे निकल गई, लेकिन जब कभी भी आंधी उसे
पकड़ पाती, तो उसे आगे चलने के लिए प्रोत्साहित ही करतीं वह अपने
कृदम और भी तेजी से बढ़ाती।

शैने इधर-उधर भी नहीं देख रही थी।  
बंद खिड़कियों की संदों से
झांकती हुई जिज्ञासापूर्ण आंखों की भी उसे कोई ख़बर नहीं थी।  
न वह
कुछ देख रही थी, न कुछ सुन रही थी। उसका सारा अस्तित्व ही जैसे प्रकृति
के तूफान में तूफान बनकर समाया जा रहा था। 
 उसके दिमाग में बस एक
ही अभिशाप था-एक भयानक अभिशाप-मौत का अभिशाप !-केवल
शब्दों में ही नहीं, वह उसकी रग-रग में-आत्मा तक में समाया हुआ था।
और उसके अंदर ही अंदर चीख़ रहा था-गरज रहा था-उस चीख में-उस
गर्जन में काली घटाओं का घोर गर्जन भी डूबा जा रहा था।
 तूफान ही की तरह वह उस विधर्मी के घर में टूट पड़ी!

  फट से उसने
एकदम दरवाज़ा खोल दिया और अंदर जाकर उसे भड़ाक से बंद भी कर
दिया! कमरे में बैठे हुए सभी लोग कांप उठे और खड़े हो गए! 
 शैने ने
सबको एक ख़ूंख़्वार नज़र से देखा और एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे, और
तीसरे से चौथे कमरे में घुसती ही चली गई। 
दरवाज़ों को धड़ाधड़ खोलती
और अपने पीछे बंद करती हुई वह चली ही जा रही थी।  
 दरवाजों के खुलने
और बंद होने से जो धड़घड़ाहट हो रही थी, वह बाहर बादलों की गड़गड़ाहट
से जैसे बंद-बंद कर शोर कर रही थी-और खिड़कियों को खड़खड़ाने तथा
दरवाजों के शीशों को चरमराने में एक दूसरेसे बाजी जीत लेना चाहती थी।
इस सब डरावने कोलाहल से घर का एक बच्चा भयभीत होकर रोने
भी लगा। 


 इस प्रकार की तूफानी तेज़ी से शैने ने उस घर का कमरा कमरा छान
डाला लेकिन न वहां उसकी पुत्री थी, और न वह विधर्मी विद्यार्थी ही!
 एकदम वह लौट चली, देहरी पर ज़रा रुकी। उसने अपनी आंखें
आकाश की ओर उठाई और ईश्वर से प्रार्थना करने के लिए हाथ भी!
“आग लगे इस घर में !”-भराई हुई आवाज में उसने शाप दिया।
ड्योढ़ी का दरवाज़ा खुला ही छोड़कर वह बाहर चली गई!
वह सारा का सारा घर अवाक्‌ देखता ही रह गया। साकार तूफान
उनके घर में आकर अभी-अभी चला जो गया था। 
 अवाक्‌ घरवालों के मुंह खुले के खुले ही रह गए!
पानी के साथ साथ तड़ तड़ ओले भी बरसने लगे-जैसे किसी अघोरी
के खप्पर में खून बदबदा रहा हो!
 शैने के हृदय में भी ऐसा ही तूफान उबल रहा था। न जाने क्या
उसके अंतर में झुंअला कर उफून उफ़न पड़ता था।


अब उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। ऊपर से नीचे तक वह
सराबोर थी, लेकिन इससे उसकी गति में कोई बाधा नहीं पड़ी, बल्कि उसका
जंगलीपन और भी भयानक हो गया। 
जिस-जिस घर में अपनी पुत्री और उस विधर्मी लड़के के मौजूद होने.
की संभावना हो सकती थीं, उस-उस घर को उसने देख डाला। वह न कहीं
रुकी,और न एक शब्द ही किसी से बोली-एकदम आंधी की तरह घुसी
और बिजली की तरह चमक कर बाहर निकल गई, और घरवाले आश्चर्य
से मुंह फाड़े उसे देखते ही रह गए। 
 वह उन्हें दूंढकर ही दम लेगी-मर कर भी अगर वह उन्हें खोज निकाल
सके, तो भी खोज निकालेगी!
वह बराबर एक घर से दूसरे घर को इसी तरह खोजती चली जा रही
थी-अपनी बेटी के लिए कोसामंसी करना भी उसने जारी रखा।
जब और कोई मकान ऐसा नहीं रह गया, जिसमें पुत्री के मिलने का
आशा होती,तो वह एक क्षण के लिए रुकी और सोचा-“अब किधर जाऊं ?”
वह घर लौट पड़ी। उसका दिल कह रहा था कि हो न हो अब तो
वह ज़रूर ही घर लौट आई होगी! और फिर उसकी जीभ ने बुरे से बुरे

 श्राप और गालियां देना शुरू कर दीं! इस समय उसके क्रोध का पारा सबसे
ऊंची डिगरी पर चढ़ा हुआ था! तो अपने चारों तरफ का सारा वातावरण
ही उसे जैसे अपने अभिशापों, गालियों और चीखों से भरा मालूम पड़ रहा
था।
एक जोर का आंधी का झोंका, बिजली की चमक,बादलों की कड़क--और
वह अपने घर में अंदर घुसी। 
 बेटी घर पर नहीं थी!


एक कुर्सी पर गिर कर वह अब रोने लगी। यकायक एक महा घनघोर
गड़गड़ाहट हुई-वैसी गड़गड़ाहट जैसी महासर्वनाशकारी वज्र के गिरने पर
होती है।
 
 झुलसते हुए ग्रीष्म की शेष अग्नि-शक्ति को ही जैसे इस समय प्रकृति
उगले दे रही थी!
गांववाले डरके मारे अपनी-अपनी जगह पर ही चिपके हुए थे। वे
वहीं बैठे-बैठे चारों तरफ नज़र घुमा कर देख भर लेते थे-बहुत हुआ तो
जरा खिसक कर बाहर उहझ्कक लिया! 
“क्या कोई आफृत आ गई?”-वे
सोचते थे। पुराने पापियों ने और भी तत्परता के साथ अपनी आंखें प्रार्थना
पुस्तक पर जमा दीं-उनकी आवाज बुरी तरह लड़खड़ाने लगी।

शैने ने उस कड़क को शायद नहीं सुना था। वह फूट-फूट कर रोती
रही। फिर वह यकायक बादल की तरह ही गरज पड़ी-“हे ईश्वर मैं उसका
मरा मुंह ही देखूं। उसकी लाश ही मेरे सामने आए। अब तक न मरी हो
तो-हे ईश्वर! वह अब फौरन ही मर जाए, हे भगवान!” 
उत्तर में बादलों ने विकट अइहास किया और आंधी सनसना कर
चीखी । 
वह फिर पहले की तरह यकायक उठी और बाहर चल दी। 
 आंधी भी उसके साथ हो ली। कभी वह पीछे से उसे धक्का देती
आगे चलने के लिए, और कभी स्वामीभक्त कुत्ते की तरह आगे-आगे चल
कर रास्ता साफ कर देती-सड़क की धूल को काले बादलों से बरसनेवाली
बौछार और शैने की जलती हुई आंखों से झरनेवाली अश्रुधारा में मिला देती ।
गांव से बाहर जो सड़क जाती है, वह उसी की ओर भागी चली जा 
रही थी, सोचती हुई-वे अक्सर इसी सड़क पर घूमने जाया करते थे। हो
न हो आज भी वे वहीं गए होंगे ।  
वे मुझे या तो रास्ते में कहीं मिल जाएंगे--नहीं
तो फ्रि बड़े जंगल के पास जोन्स की सराय में तो ज़रूर ही मिल जाएंगे। 
 जैंटील गांव की आखरी गली है। जब शैने वहां पहुंची, तो चौपाल
में कुत्तों ने भींगी हुई धरती पर उसके चलने की 'सरसर” आवाज़ सुनी और
वहीं से भूंकने भी लगे। 
 लेकिन कुछ कुत्ते, जो काहिल नहीं थे और मेंह
में भीगने से डरते नहीं थे, बाहर आकर शैने की टांगों से लग गए। पर
शैने चलती गई। उसने न उन्हें देखा,न उनका भूंकना सुना। वह तो केवल
गली के अंत से शुरू होनेवाली सड़क को ही देख रही थी और उस पर
ढूंढ॒ रही थी उन दोनों को।
 एक कुत्ते ने तो पानी से भीगने से भारी हुआ उसका पलला ही मुंह
में भर लिया। तब भी शैने रुकी नहीं। कुत्ता थोड़ी दूर तक उसके साथ
खिचड़ता चला गया। पानी की बौछार से परेशान होकर आख़िर कुत्ता उसका
पलला छोड़ कर अपनी चौपाल की तरफ भाग खड़ा हुआ, लेकिन भागने
से पहले एक बार वह खूब ज़ोर से गुर्राया जरूर।
शैने अब सड़क पर आ पहुंची। यहां तो आंधी का जोर और भी
कहीं ज़्यादा था। पड़ोस के जंगलों से टकरा कर बिजली की कड़क यहां
सहस्नों गुनी होकर प्रतिध्वनित हो-हो उठती थी। 
पानी से घिरे हुए चारों तरफ फैले हुए धुंध में होकर शैने की नजर
अपने सन्मुख ही देख रही थी। 
बिजली के गिरने से पेड़ों की पत्तियां और टहनियां टूट-टूट कर सड़क
पर आ गिरी थी; यही नहीं, बहुत से पेड़ भी जड़ समेत उखड़े और जले
पड़े थे। 
“हे भगवान! उन दोनों पर भी ऐसी बिजली क्‍यों नहीं गिरती !” -वह
फिर कोसने लगी। और अपने ही भीतर भुनने लगी। अब अपनी सारी
कोसामंसी के लिए उसे एक निश्चित स्वरूप मिल गया था, अपने ऊपर
और चारों ओर व्याप्त बिजली की कड़क में! 
 वह दौड़ी चली जा रही थी, दौड़ी...लेकिन यह क्या?
कुछ कृदम आगे दो व्यक्ति पड़े हुए हैं; एक पुरुष और एक स्त्री। 

 आपस में गुथे हुए; गर्दनें लटकी हुई! मुख कालिखकी तरह काले; और आंखें
चढ़ी हुई !-बिजली गिरने से मृत दो स्त्री-पुरुषों की लाशें थीं वे।
 बड़ी तेजी से बिजली एकबारगी चमक उठी-और फिर वही कान फोड़ने
वाली बादलों की गड़गड़ाहट! इस प्रखर प्रकाश में शैने ने अपनी पुत्री को
पहचान लिया। लेकिन पहिचानने में उसके कपड़ों ने ही ज़्यादा मदद की,
क्योंकि उसका चेहरा तो जल चुका था; और फिर उसका सारा आकार वह
पहिचान गई थी; सफेद फटी-फटी मुर्दा आंखें जो उसकी तरफ घूर रही थीं,
उनसे तो वह डर गई! छतरी खुली हुई एक तरफ पड़ी थी, लेकिन उसका
सारा कपड़ा जल गया था, लोहे की तीलियों का ढांचा ही शेष था!
युवती और युवक के हाथ एक दूसरे में बिंधे हुए थे। 
 वृद्धा बस शाप देने ही वाली थी, अपने क्रोध के आवेश को वह तूफान
के वेग में मिला देनेवाली थी, लेकिन बिजली फिर कौंधी, और उसमें उसकी
आंखें भी चौंधिया गई,-उसके दिल में विनाशकारी तूफान उठ खड़ा हुआ!
 वह कहना ही चाहती थी बुरे से बुरे शब्दों में अपनी लड़की से-“जैसे
कर्म तूने किए, उनका वैसा ही फल भुगत अब !”-महानीच और अभागी
गालियां वह उसे सुनाना चाहती थी-पर यकायक उसके सामने सब कुछ
काला-काला हो गया-उसके मस्तिष्क में जैसे किसी ने गला हुआ भभकता
सीसा उड़ेल दिया...थकावट और कंपकंपी उसे दबोचे डाल रही थीं...पानी
और कीचड़ में लथपथ उसके वस्त्र उसे जमीन की ओर खींच कर मिट्टी

में मिला देना चाहते थे। 
 उसके नेत्रों की लपलपाती ज्वाला बुझ चुकी थी।
बिजली चमकी- 
 बादल कडके-
और हवा फिर से हूक-हूक कर रोने लगी! 
 लेकिन अब वृद्धा के अंतर में सब कुछ शांत था, अंधेरा था, मुर्दा था!
 अपनी बेटी के शव पर वह झुक गई। अपनी कंपित बांहों में उसे
कस लिया-और एक हल्की-सी ज्योति उसकी आंखों में चमक गई!
 जैने का रोम-रोम कांप गया...दांती बजी...और भर्राई हुई मरी आवाज
में उसके ओंठ हिले-“मेरी बेटी-हेना...मेरी बेटी!”