जमुनिया धार
कहानीकार - शिवशंकर श्रीनिवास “जमुनिया धार'
एक दिन मैं अपने दालान पर बैठा हुआ लिख रहा था ।
सामने वाले रास्ते
से कुछ स्त्रियाँ पीछे की तरफ जा रही थीं ।
उनके हाथों में टोकरी थी और
सूखे पत्ते बुहारने के लिए झाड़ू थे। जब तक मैं उन्हें आवाज देता, तब
तक आम के पेड़ के नीचे खेल रहे बच्चे जोर से चिल्लाए। ये बच्चे हमें
आगाह करने के लिए शोर मचा रहे थे कि सूखे पत्ते बुहारने वाली स्त्रियाँ
आ रही हैं।
ये बच्चे प्रायः इसी तरह शोर मचाकर, आवाज देकर हमें
उनके बारे में सूचित करते थे। कभी-कभी यही बच्चे झूठ-मूठ का शोर
मचाकर हमें ठगते भी हैं।
जब हम इन बच्चों द्वारा ठगे जाते हैं और
उनकी बातों में आकर उन बुहारने वाली औरतों को ढूँढ़ते हैं तो झूठी
सूचना देने वाले उन बच्चों को बहुत मजा आता है। पर अभी उन खबरची
बच्चों ने झूठ नहीं बोला था ।
उन औरतों को खुद मैंने भी देखा था, पर
उस समय उन बच्चों का शोर मचाना अच्छा नहीं लग रहा था। लिखने
के काम में बाधा आ रही थी । मैंने तो पहले ही काफी ऊँचे स्वर में उन
स्त्रियों को पत्ते बुहारने से मना कर दिया था और उन्हें वापस लौटने के
लिए कहा था । मैंने यह देखने की कोशिश नहीं की कि वे सब वापस
लौटीं या नहीं । मैं लिखने में ही तललीन रहा ।
थोड़ी देर बाद मुझे ऐसा लगा जैसे सामने थोड़ा हटकर अर्थात्
खलिहान में खड़ी कोई स्त्री कुछ पूछ रही है। मैंने सिर उठाकर उधर
देखा। वहाँ एक युवती खड़ी थी। यदि आश्विन के महीने में खेत की मेड़
पर खड़े होकर कभी आपने लहलहाते धान की फसल देखी हो, जिसमें
बालियाँ बस खिलने, फूटने वाली होती हैं, तो वही खिलने, फूटने की
ताजगी का एहसास देने वाली उम्र की युवती थी ।
मेरी तरफ टुकुर-टुकुर
ताक रही थी । मैंने उसकी बात नहीं सुनी थी तो क्या कहता ? मेरी आँखें
उसकी देह का मुआयना करती हुई उसकी आँखों पर टिक गई थीं । मेरा
पूरा बदन रोमांचित हो उठा था । मुझे यह लगा, जैसे मैं अचानक उफनती
जमुनिया धार के किनारे पहुँच गया होऊँ ।
उसे देखकर केवल मेरी देह में
ही झनझनाहट हुई हो, ऐसा नहीं था । उसके चेहरे का रंग भी आरतः के
पत्ते की तरह लाल हो गया था। उसने फिर पूछा था-“सूखे पत्ते बुहारने
आई थी। बुहारूँ या नहीं ?”
उसका रूप-रंग और तौर-तरीका साफ किये गए सुगंधित चावल की
तरह लग रहा था । अगर उसके सवाल का जवाब मेरे दिल से पूछें तो दिल्
ने कहा, जितना चाहो, बुहार लो”, पर मैंने ऐसा नहीं कहा । मैं खिड़की
और किवाड़ की तरफ नजर घुमा-घुमाकर चारों ओर देखने लगा कि कहीं
पत्नी तो नहीं देख रही । वैसे, मैंने ऐसी कोई हरकत नहीं की थी, जिसकी
वजह से मैं उनसे डरता, पर ऐसा तो नहीं कि मेरी भंगिमा का भाव
समझकर वे मेरे मन की बात समझ गई हों ।
इसीलिए मैं मन-ही-मन डर
गया और उसे बुहारने से मना कर दिया। वह चल पड़ी। एक पल के लिए
उसकी नजर उदास-सी लगी । ऐसी उदास, जैसे शरठ ऋतु में नदी के तट
उदास लगते हैं। उसके साथ आई अन्य स्त्रियाँ, जो उधर दूर खड़ी थी,
वे भी चल पड़ीं । वह उधर चलीं और इधर मेरी पत्नी दालान के कमरे से
होते हुए बाहर निकलीं ।
उसने पूछा, “कौन ? सलमा थी क्या ?”
“सलमा!” उसे अचानक, देखकर मैं हड़बड़ा गया ।
जी हाँ, वह फातिमा आती है न, उसी की बेटी है ।
अप्रतिम सुंदरी है ।
है न ?
वह बोलती हुई मुस्करा दी ।
उस समय मुझे पत्नी की मुस्कराहट
खुरदरी लगी पर चूँकि उसने और कुछ नहीं बोला था अतः मैं भी कुछ नहीं
बोला ।
मैंने कहा-“सारा काम तो तिलाठी वाली करती है और तुम इन
सबको सूखे पत्ते बुहारने के लिए कहती हो!”
बोलते हुए मेरे स्वर में थोड़ा
रोष जरूर आ गया था पर उसने उस पर ध्यान न देते हुए कहा,
“तिलाठी वाली आजकल कहाँ है ?”
क्यों ? कहाँ गई वह ?”
“वह तो एक महीने से बेटी के घर है। मैं खुद ही दिन-रात खटती
रहती हूँ। आप नहीं देखते क्या ?”
मैं उसकी बातों से मन-ही-मन लज्जित हुआ कि वह कहेगी कि मैं
अपनी पत्नी का जरा भी खयाल नहीं रखता, पर उस समय वह ऐसा नहीं
बोली । उसने पप्पू को बुलाकर कहा, “सलमा से कह दो, पत्ते बुहार दो ।”
उस समय सलमा को वापस बुलाना मुझे मीठा और तीता दोनों लगा ।
मीठा क्यों लगा, यह तो लोग अच्छी तरह समझ सकते हैं, पर तीता
इसलिए कि तब सलमा साफ-साफ समझ जाती कि उसे मैंने नहीं, मेरी
पत्नी ने वापस बुलाया है । यह कहना मुश्किल है कि मुझे खराब क्यों लगा
पर लगा जरूर ।
जब तक सलमा फिर मेरी बैठक तक आती, मैं अपने
कागज-पत्तर समेटकर कमरे में आ गया । मैं कागजों को समेटकर टेबुल
पर रख रहा था, मेरे पीछे तभी पत्नी भी टेबुल तक आ गई थी। उसने
टेबुल पर से एक किताब उठाकर पन्ने पलटते हुए कहा-“कल सलमा
बहुत-सी सींकें चीरकर दे गई थी । दादी ने कहा था न कि वह सींक से
मछली बनाना सिखा देगी। वही सीखना है ।”
सलमा आजकल गाँव की वृद्धाओं से बहुत पुराने समय से चली आ
रही हस्तकलाएँ सीख रही हैं। मुझे यह अच्छा लगता है और वह यह बात
समझती है । यही समझते हुए शर्म से उसका चेहरा थोड़ा लाल हो गया
था। होंठों पर एक मुस्कराहट फैल गई । उस समय मुस्कराता हुआ पत्नी
का लज्जावनत मुख-मंडल मुझे अच्छा लगा था । मैंने उसके गाल छूकर
प्यार किया । वह छिटककर मुझसे दूर हट जाने की भंगिमा बनाते हुए
हँसने लगी ।
इस प्रसंग के तीन दिन बाद की बात है । मैं घर पर ही था । दफ्तर
में कोई छुट्टी थी ।
उस दिन मैं खाना खाकर अपने कमरे में किताब पढ़ते-पढ़ते सो गया
था । मेरी पत्नी ने कब अपना सारा काम निपटा लिया, कब खुद खा
पीकर निश्चित हुई, मैं नहीं जान पाया । अचानक दो स्त्रियों के मिले-जुले
स्वर में आ रही हँसी की आवाज से मेरी नींद खुल गई । मैं अनुमान लगाने
लगा कि कौन हँस रही है । एक तो मेरी पत्नी थी ।
दूसरी ?
“आप भी...” कहकर वह दूसरी स्त्री हँसी । मैंने वह दूसरा स्वर
पहचान लिया। वह स्वर सलमा का था। दोनों आँगन में मंडप पर बैठी
बातें कर रही थीं ।
सच कह रही हो। तुम्हारी आँखें देखकर तो कोई भी पुरुष डर
जाएगा ।” यह कहकर पत्नी फिर हँसने लगी । जैसे कम पानी में तैरती
मछली टॉप में फँसकर हड़बड़ा जाती है, वैसे ही मैं भी मन-ही-मन
हड़बड़ा गया ।
ऐसा तो नहीं कि उस दिन मेरी पत्नी ने मेरी आँखों को
देखकर कुछ अनुमान लगा लिया हो या कोई स्त्री किसी दूसरी स्त्री की
आँखों को देखकर उसे पुरुष की तरह ही जानने लगी है या मेरी पत्नी
मन-ही-मन कहीं सलमा से कोई ईर्ष्या तो नहीं करती ?
मेरे लिए यह
सब समझना कठिन था, क्योंकि उसके मन की गाँठों को खोलना
आसान नहीं था ।
उसके बाद सलमा कह रही थी-“मेरी शादी हुई न, तभी से मेरे
माँ-भाई का सुख-चैन छिन गया। यूँ कहिए कि मेरी माँ को दुःखों ने
घेर लिया ।”
चूँकि मैंने उसकी पिछली बातें नहीं सुनी थीं, इसलिए मैं उसकी इस बात
का कोई अर्थ नहीं लगा सका, पर इतना जरूर समझ गया था कि सलमा
मेरी पत्नी के परिहास की उपेक्षा कर आगे की अपनी बात कह रही थी ।
“तुम्हारा भाई?” पत्नी ने पूछा
“वह अजमेर में ड्राइवरी करता हैं।” सलमा बोली ।
“क्या उसकी शादी नहीं हुई है ?”
“वह शादी कर ही नहीं रहा है। वह कहता हैं कि जब बहन के बारे
में (मेरे बारे में) कुछ फैसला हो जाएगा, उसके बाद ही वह सोचेगा ।”
“तुम्हारी ससुराल से कोई नहीं आता ?”
“वहाँ के लोग पत्थर की मूर्ति हैं । किसी को कोई चिंता नहीं है ।
जिसने शादी की, वह जाने ।” यह बोलकर वह चुप हो गई । वह कुछ
सोचने लगी थी । उस समय मैं लेटे-लेटे उसके शब्दों और मौन से उसके
दुःख का अनुमान लगा रहा था । उसके दुःख का कारण समझ आने लगा
था ।
“तुम अपने पति का पता लगाकर उसके पास क्यों नहीं चली जाती ?”
“वह आदमी एक जगह रहे तब तो। कभी कोई उसे यहाँ देखता है
तो कभी वहाँ । कभी दिल्ली तो कभी कलककत्ता। पतंगा है, पतंगा । किसी
पतंगे को देखिए-बहुत सुंदर, लाल-पीला। देखिएगा तो वह शौकीन
लगेगा, मगर उसकी आदतें कोयले जैसी काली हैं । वह पत्नी को
सँभालकर रखने वाला मर्द नहीं है।”
सलमा बोली । अब मैं उसके दुःख
का कारण समझ गया था ।
अगर ऐसी बात है तो दूसरा क्यों नहीं कर लेती ? तुम लोगों में तो
खुल्ला कराकर दूसरी शादी होती है। मेरे पीहर में मेरी ही हमउम्र एक स्त्री
थी। उसका नाम रेक्सोना था। उसका पति लापता हो गया था। खुल्ला
कर रेक्सोना की भी दूसरी शादी करा दी गई थी ।
मेरी पत्नी की बात पर वह थोड़ी देर चुप रही। ऐसा लग रहा था मानो
चुप रहकर वह अपना गुस्सा हजम कर रही हो। मगर वह ऐसा नहीं कर
पाई। वह गुस्से में बोली-
“मैं तो अल्लाह से यही दुआ करती हूँ कि वह दिन जल्दी ही आए
जब मैं उसके जनाजे का नमाज अदा करूँ। मैं समझूँगी कि अल्लाह ने मुझे
जन्नत दे दिया ।”
सलमा की बातों से मेरी देह सिहर उठी। गुस्से में बोलकर भी वह
शांत नहीं रह सकी। वह हिचक-हिचककर रोने लगी ।
जे
कराने लगी। मैं भी थोड़ा भावुक हो गया। मैं उठा और आकर दलान पर
बैठ गया। आज मुझे रह-रहकर पत्नी पर गुस्सा आ रहा था कि वह इतना
क्रेद-कुरेदककर किसी की निजी बातें क्यों पूछती है ?
वह सलमा से बड़ी
थी। उसे इस बात का खयाल करते हुए भी बात करनी चाहिए। फिर
मुझे स्त्रियों की मूल प्रवृत्ति ध्यान आई ।
मुझे ध्यान आया कि स्त्रियाँ स्त्रियों के सामने ज्यादा खुलती हैं। आयु
या संबंध की वर्जना कम ही होती है। वे उम्र व संबँध में पहले स्त्री होती
हैं। पुरुष की प्रवृत्ति प्रायः इसके विपरीत होती है ।
वे अपने हमउम्र या
अन्य पुरुषों के सामने इतनी जल्दी नहीं खुलते । कारण होता है उनका
अहमू । यह अहम् उन्हें खुलने नहीं देता । उस समय स्त्री की यह प्रकृति
मुझे अच्छी लगी । मैं काफी देर तक यही सब सोचता रहा ।
उसके बाद से पत्नी कई दिन सलमा के बारे में बातें करती रहीं । पहले
तो मैंने उसमें कोई रुचि नहीं दिखाई, फिर बाद में मैं भी खुलने लगा ।
सलमा मेरे घर अकसर आती थी। मैं उसे देखता, वह मुझे देखती,
बस । बात करने का तो प्रश्न ही नहीं पर हम पति-पत्नी की बातों में अब
उसकी बातें भी शामिल हो गई थीं ।
एक दिन पत्नी ने मुझसे पूछा-
“आजकल सलमा कई दिनों से इधर नहीं आ रही है। पता नहीं कहाँ
रहती है ?”
मेरे मुँह से निकला-“जहाँ जाती है, जाने दो ।”
मैंने कहने को तो कह दिया, पर अंदर-ही-अंदर उत्सुकता जगी ।
“आखिर वह गई कहाँ ?” पर मैं भी चुप रहा, वह भी चुप रही ।
एक दिन की बात है। मैं कहीं से घर लौट रहा था। तब शाम नहीं
हुई थी । हाँ, दिन ढल गया था । रास्ते में थोड़ा हटकर पाकड़ का पेड़ है।
उसकी जड़ में मिट्टी का सुंदर चबूतरा है। उस चबूतरे पर एक युवक
बैठा था । नीचे एक युवती खड़ी थी । युवक को तो नहीं पहचान पाया पर
युवती को दूर से ही पहचान गया । वह सलमा ही थी । मैंने उसे बहुत दिन
बाद देखा था । स्वाभाविक था कि उत्सुकता बढ़ती। मैं आगे बढ़ा ।
देखा,
सलमा उस युवक से हँस-हँसकर बातें कर रही थी । उसके बात करने का
अंदाज ऐसा था मानो वह उस पर लटूटू हो रही हो ।
मैं उसके इतना नजदीक पहुँच गया था, फिर भी उसे कोई फर्क नहीं
पड़ा। वह उन्मुक्त झरने की तरह झहर रही थी ।
"हो शहजादी, अपने मर्द की पिटाई के बारे में सुनने के बाद भी हँस
रही है । शर्म नहीं आती ?” वह कुछ और बोला जो मैं सुन नहीं पाया ।
उसकी मुखमुद्रा देखकर मुझे लगा, जैसे वह मजाक कर रहा हो ।
“वह मेरा कोई नहीं है। अब मैं खुल्ला कराकर दूसरी शादी कर
लूँगी ।” इस बार वह गंभीर होकर बोली थी ।
“पक्का?” युवक बोला था ।
“हाँ, पक्का!” सलमा बोली। इस पर वह युवक कुछ भुनभुनाकर बोला
जो मैं समझ नहीं पाया। फिर तो दोनों ठहाके लगाकर हँसने लगे । मुझे
उन दोनों का ठहाका अच्छा नहीं लगा । मैं समझ गया कि इस लड़की ने
अपना यार खोज लिया है ।
यह दृश्य मेरी आँखों के सामने कई दिनों तक नाचता रहा। मैंने पत्नी
को यह बात बताई । वह कुछ नहीं बोली, पर उसके चेहरे से लगा जैसे
कहीं खो गई है ।
काफी दिन हो गए थे । उस युवक से हँसी-ठट्ठा प्रकरण के बाद से
सलमा दिखाई नहीं दे रही थी । मैंने समझा कि कहीं चली गई होगी । मेरी
पत्नी की अब उसमें कोई रुचि नहीं रह गई थी। अब मुझे भी सलमा के
बारे में पत्नी से कुछ पूछना उचित नहीं लगा ।
एक दिन की बात है । मैं उसके घर के पास से गुजर रहा था । सहसा
मेरी नजर घर के बाहर चबूतरे पर बैठी सलमा पर गई । शुरू में मैं उसे
पहचान नहीं पाया । उसकी देह-दशा अजीब हो गई थी । उसे देखकर ऐसा
लगा जैसे किसी आँधी-तृफान ने किसी फसल को तहस-नहस कर दिया
हो । उसकी शक्ल ऐसी ही लग रही थी । उसकी आँखें इतनी अंदर धँस
गई थीं जैसे जमुनिया धार मर जाने पर होता है । मुझे विचित्र-सा अनुभव
हुआ । वहाँ उसकी चाची भी बैठी थी। वे सब गुमसुम बैठी थीं ।
“इसे क्या हुआ है?” मैंने उसकी चाची से पूछा ।
“चार साल से मेहमान बाहर रहता था। कभी उसने इसकी खोज-खबर
नहीं ली। कब कहाँ रहता था, कोई नहीं जानता था। एक सप्ताह हो
गया। अपने भाई के पास रहने लगा था। रात सोने के लिए वहाँ जा रहा
था। तभी साँप ने डस लिया। वह बच नहीं पाया।” उसकी चाची बोली ।
“कैसे पता लगा ?”
“सबेरे सत्तार का बेटा आया ।”
“उसने अपनी आँखों से देखा है ?”
“हाँ, ऐसी बातें झूठी होती हैं क्या? वह वहाँ से मिट्टी चढ़ाकर लौटा
है।” चाची बोली ।
मैंने फिर सलमा की ओर देखा। उस समय वह मेरी तरफ ही देख रही
थी। मुझसे नजर मिलते ही उसकी आँखों से गंगा-जमुना बरसने लगी।
मैंने उससे कुछ नहीं कहा। मैं सोच ही नहीं पाया कि क्या कहूँ ?
मैं घर आया तो पत्नी से बोला, “जानती हो, सलमा का पति मर
गया ।”
“कैसे ?” उसने अकचकाते हुए पूछा ।
“साँप ने काट लिया ।”
“ओह, सलमा को उस पति से कोई सुख भी नहीं मिला।” बोलती हुई
पत्नी द्रवित हो उठी। उसकी आँखें छलछला उठी थीं ।
“मुझे तो इसमें दुःख की एक ही बात लगती है कि एक आदमी मर
गया। पर उसके लिए सलमा को जिस हताशा से रोते हुए देखा, वह
बेकार। उसे ऐसे पति से मुक्ति मिली। वह खुल्ला करना चाहती थी।
अब वह झंझट भी नहीं रहा ।”
मेरी बात सुन पत्नी सिर उठाकर मेरी ओर देखती हुई बोली-
“ऐसे मत बोलिए। पति तो अभी उसी का था। वह नहीं रोएगी तो
कौन रोएगी? और, दूसरी शादी करना दूसरी बात है।” बोलते-बोलते वह
भावुक हो गई।
मैं चुप हो गया। मैं सोचने लगा, मेरी पत्ती और सलमा एक-दूसरे से
भिन्न रीति-रिवाजों वाली है। मेरी पत्नी उन रीति-रिवाजों वाले समाज की
स्त्री है, जो एक शादी करने के बाद दूसरी शादी नहीं कर सकती। पर
सलमा के समाज में तो इस बात की छूट है। वह दुबारा अपनी जिंदगी
बसा सकती है। फिर भी वह पति की मृत्यु से दुःखी है। मेरी पत्नी उस
पीड़ा के मर्म को समझ रही थी। इसीलिए वह घटना सुनकर भावुक हो
गई । मैं सोचने लगा कि दोनों भिन्न रीति-रिवाजों की होती हुई भी एक
ही समाज की हैं।
दोनों की सामाजिक संवेदना एक ही है। सबसे बड़ी बात यह है कि
दोनों स्त्री हैं ।
मेरे मन में सलमा के प्रति कई विचार आए । कई बातें याद आ रही
थीं । पाकड़ के पेड़ के नीचे चबूतरे पर उस युवक से बात करने वाली बात
भी याद आई । पत्नी से इस घटना के बारे में उस दिन भी कहा था ।
वह बोली, “हाँ, सलमा ने बताया था। वह उसकी चचेरी बहन का
पति था । जिस समय दोनों बातें कर रहे थे, उन्होंने आपको नहीं देखा
था। बाद में देखा तो लजा गई थी । वह कह रही थी कि कहीं उस
हँसी-ठट्ठा को आप सच न समझ बैठे हों ।”
“हँसी-ठट्ठा में पति के बारे में ऐसे बोलेगी ?”
“सो उसे गुस्सा था ।”
“गुस्से में लोग ऐसे बोलते हैं? और फिर रोएगी ?”
मेरी इस बात पर मानो पत्नी के चेहरे का रंग बदल गया ।
वह बोली-
“आप औरत नहीं हैं न! आप उसका दुःख क्या जानेंगे ?”
मैं सन्न रह गया ।