स्मृति ईरानी विवाद और एक बौद्धिक पारिस्थितिक तंत्र का केस
भारत के 15 वे प्रधानमंत्री श्रीमान नरेन्द्र मोदी ने अपने कार्यकाल की शुरुआत एक बहुत ही अहम् विभाग मानव संसाधन विकास मंत्रालय के लिए एक दिलचस्प उम्मीदवार का चुनाव कर के किया | उन्होनें एक युवा और क्रियाशील नेता का चुनाव किया जिसके पास इस विभाग को सँभालने की उल्लेखनीय शेक्षिक योग्यता नहीं थी | विशेष रूप से मानव संसाधन विकास मंत्री श्रीमती ईरानी ने स्नातक शिक्षा भी नहीं प्राप्त की है जबकि शिक्षा इस विभाग का एक प्रमुख हिस्सा होगा | इस चुनाव से सार्वजानिक तौर पर इस बात पर केन्द्रित की एक मंत्री की शिक्षा किस हद तक एक विभाग को ख़ास तौर से मानव संसाधन विकास मंत्रालय के कामकाज में मदद करेगा , विवाद शुरू होना चाहिए था | एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में, प्रधानमंत्री का हर निर्णय सार्वजनिक जांच के लिए खुला रहता है। वास्तव में एक बौद्धिक जीवंत लोकतंत्र में प्रधानमंत्री से किये गए सवाल अनिश्चित विषय जैसे उनके भारत को लेकर इरादों के बजाय मुख्य मुद्दों पर होते हैं जैसे मंत्रिमंडल का चुनाव | कई और लोकतन्त्रों में जैसे अमेरिका में राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सचिवों (वेस्टमिंस्टर शब्दावली में कैबिनेट मंत्री के बराबर) की व्यक्तिगत रूप से सीनेट द्वारा पुष्टि की जानी चाहिए।
भारतीय शिक्षा के समक्ष चुनौतियों का सारांश
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के हिस्से में आता है शिक्षा जो भारत जैसे नए देश के लिए एक मुख्य ध्यानाकर्षण क्षेत्र है | में कुछ अहम् चुनौतियों का ज़िक्र करूंगा जो मेने अपने विविध देशों के छात्रों जिनमे भारत के वो छात्र भी शामिल हैं जो अमेरिका में उच्च शिक्षा के लिए गए हैं ,के अवलोकन से समझ पायी हैं | स्नातक संस्थानों के उच्च स्तर अंतर्राष्ट्रीय मानकों से प्रतिस्पर्धी बने हुए हैं लेकिन पिछले एक दशक से उनकी गुणवत्ता गिरती जा रही है | ऐसा अमेरिका में कोई इंजीनियरिंग का छात्र नहीं मिलेगा जिसने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजीज का नाम नहीं सुना होगा | इंजीनियरिंग संस्थानों के उपरी दो स्तरों के छात्र औसतन अमेरिकी इंजीनियरिंग के छात्रों से ज्यादा बेहतर प्रशिक्षण प्राप्त करते है पर अपने चायनीज़ समकक्षों से थोड़े से कम प्रशिक्षित हैं | भारत और चाइना के छात्र जो अमेरिका के उच्च शेक्षिक संस्थानों के सदस्य बनते हैं उनके प्रशिक्षण में बहुत बड़ा फर्क नहीं है - भारतीय छात्र शिक्षाविदों और उद्योग में परास्नातक, डॉक्टरेट के अध्ययन और बाद के पेशेवर करियर में खुद को भिन्न साबित करते हैं । लेकिन उच्च और मध्य संस्थानों के बीच में प्रशिक्षण की गुणवत्ता को लेकर काफी फर्क हैं हांलाकि मध्य संसथान से ही ज्यादा छात्र स्नातक प्राप्त करते हैं |
भारत हालांकि पूरी तरह से अनुसंधान के क्षेत्र में कमजोर पड़ गया है | सिर्फ कुछ ही विश्वविद्यालय हैं जिनमें जीवंत अनुसन्धान का माहौल है | मुश्किल लगने वाले इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजीज अब सिर्फ पढ़ाने वाले विद्यालय बन गए हैं | इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजीज से स्नातक होने वाले कुछ ही छात्र आगे इंजीनियरिंग के क्षेत्र में नौकरी हासिल करते हैं या आगे उसमें पड़ाई करते हैं | हर इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजीज में शिक्षकों की संख्या काफी कम है क्यूंकि भारत में इंजीनियरिंग की डॉक्टरेट पाने वाले छात्र उसकी शेक्षिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए काफी नहीं है | कई नए इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजीज साधारण शिक्षा संरचना जैसे कैंपस की जगह से भी वंचित हैं | इसीलिए ये हैरानी की बात नहीं है की भारत का प्रमुख विज्ञान और इंजीनियरिंग पत्रिकाओं तथा सम्मेलनों में प्रतिनिधित्व सीमित है ।
ये भी जानने वाली बात है की कोई भी देश एक आर्थिक महाशक्ति तब तक नहीं बन सकता जब तक वह विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अनुरूप ऊंचाइयों को हासिल नहीं कर लेता | विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तरक्की एक बेहद ज़रूरी कारक है न सिर्फ बुद्धिमता के क्षेत्र में भारत का परचम लहराने का अपितु मुख्य क्षेत्रों जैसे रक्षा, ऊर्जा, आधुनिक परिवहन में हमारी विदेशी तकनीकों पर निर्भरता को कम करने का |
हमारे विकसित पडोसी चीन की कहानी एक विपरीत उदाहरण की तरह काम करती है | चीन की विज्ञान के क्षेत्र में मोजूदगी काफी सीमित थी जब तक सांस्कृतिक क्रांति नहीं घटित हुई - कम्युनिस्ट शासन ने वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों को खेत मजदूरों के रूप में कार्यरत किया | पर मात्र ३ दशकों में आज वह एक महाशक्ति के रूप में उभर कर अमेरिका को टक्कर दे रहा है | ये प्रेरणादायक सफलता की कहानी दूरदर्शी नीति की पहल का एक परिणाम है जो की भारत के सन्दर्भ में मोजूद नहीं है | ऐसे में भारतीय सन्दर्भ में नीतियों के सुझाव देना इस लेख में संभव नहीं है ,बस ये जान लें की चीन में हुए आश्चर्यजनक बदलाव से ये पता चलता है की अगर भारत एक कार्यात्मक शैक्षिक वास्तुकला स्थापित करे तो वह भी शायद एक दशक में अपनी सफलता की कहानी लिख सकता है |
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में चुनौतियों सिर्फ विज्ञान और प्रौद्योगिकी में ही सीमित नहीं हैं | भारत में मानविकी शिक्षा भी एक गहरे वामपंथी बौद्धिक पूर्वाग्रह से ग्रस्त है | विशेष रूप से, इतिहास और अर्थशास्त्र में शिक्षा और अनुसंधान सिर्फ समाजवादी सोच का प्रतिनिधित्व करते है। उच्च शेक्षिक संस्थानों में बहुत कम संस्कृत के पाठ्यक्रम है जो की किसी भी शेक्षणिक तर्क को खारिज करता है क्यूंकि संस्कृत भारत की कई भाषाओँ का मूल है और उसका अन्य विदेशी भाषाओँ जिसे लैटिन ओर फारसी से भी सम्बन्ध है | ये एक विडंबना है की अमेरिका के कई आईवी लीग विद्यालयों में संस्कृत के कई पाठ्यक्रम मोजूद हैं |
इस झुकाव का टैक्स वित् पोषित विश्वविद्यालयों में भरती किये गए शिक्षकों की गुणवत्ता पर असर पड़ता है जो अंत में उसके पाठयक्रम और अनुसंधान एजेंडा पर असर डालता है | इससे बुरी बात ये है की ये झुकाव सिर्फ उच्च शिक्षा तक सीमित नहीं है | स्कूल किताबों में भारतीय इतिहास का असंतुलित प्रस्तुतियां लिखी जाती हैं | उनमें हमारी स्वतंत्रता संग्राम के क्रन्तिकारी हिस्से शामिल नहीं किये जाते और कई बौद्धिक दिग्गजों जैसे डॉ श्यामाप्रसाद मुख़र्जी और वीर सावरकर के योगदान को मोजूदा सरकार की इच्छाओं की वजह से सामने नहीं लाया जाता है | मानविकी पारिस्थितिकी तंत्र में एक न्यूनतम शेष राशि की बहाली उभरते बुद्धिजीवों की बुद्धिमता को व्यापक और समृद्ध बना सकता है |
आखिर में और सबसे ज़रूरी ये है की उच्च शिक्षा तब तक नहीं बढ़ सकती जब तक उसके प्राथमिक और माध्यमिक समकक्षों में तरक्की न हो | कई विद्यालयों में बुनियादी शिक्षा सुविधाएं जैसे विज्ञान प्रयोगशाला और दैनिक ज़रूरतों जैसे शोचालय की भी कमी है | शिक्षकों की संख्या और गुणवत्ता दोनों ही अपेक्षा से कम संतोषजनक हैं | प्राथमिक शिक्षा में चुनौतियां एक नए विधान(शिक्षा का अधिकार) की वजह से और बढ गयी हैं जिसकी ज़बरदस्ती परिपालन के फलस्वरूप कई विद्यालयों को बंद कर दिया गया बिना शिक्षा के अधिकार में मांगे गयी गुणवत्ता को हासिल करने की कोशिश किये |
मानव संसाधन विकास मंत्रालय में डोमेन शिक्षा की भूमिका
भारतीय शिक्षा के सामने जो चनौतियों है उन पर दूरदर्शी नीतिगत पहलों के निर्माण और उनके निर्णायक निष्पादन के माध्यम से विजय प्राप्त की जा सकती है| इसमें कोई संशय नहीं है की एक मानव संसाधन मंत्री को इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए एक अच्छा प्रशासक होने की ज़रुरत है | एक मानव संसाधन विकास मंत्री की डोमेन ज्ञान की ज़रूरतों की सीमा पर अभी भी असहमति है | मेरा ये मानना है की डोमेन ज्ञान से मंत्री को उससे जुडी चुनौतियों को समझने में आसानी होगी , जिससे वह उन विशेषज्ञों से जिनसे वह परामर्श लेतीं हैं उनसे सवाल पूछती हैं | डोमेन ज्ञान उस मंत्री की विश्वसनीयता को भी बढ़ाता है जिसकी हम बात कर रहे हैं | राजनीति सच से ज्यादा धारणा पर आधारित है और किसी भी बात की स्वीकार्यता प्रस्तावक की साख के ऊपर निर्भर होती है | एक प्रतिष्टित शिक्षाविद् के पास वह सारी योग्यताएं होंगी जिससे वह विवादित होने के बावजूद आवश्यक विधायी या कार्यकारी सुधारों के लिए अपने मतदाताओं को यकीन दिलवा सकती हैं | एक उदाहरण के तौर पर उनकी शेक्षिक योग्यताओ के कारण अरुण शौरी के विचारों का एक वाम प्रणाली में भी औरों के विचारों से असहमत होने के बावजूद भी कभी नकारा नहीं गया |
शिक्षा के संदर्भ में डोमेन ज्ञान शैक्षिक गतिविधियों से सम्बन्ध और शैक्षिक अनावरण के माध्यम से हासिल किया जा सकता है। ये भी सम्भव है की एक अशिक्षित व्यक्ति उन असूलों की जानकारी के बिना ,जो उसने पढे नहीं एक शिक्षा अभियान का नेतृत्व कर सके , जो अंत में उसे वह डोमेन ज्ञान दे पाए जो उसे शैक्षिक प्रशिक्षण से नहीं मिल पाया | उदाहरण के तौर पर श्रीमती मेनका गाँधी के पर्यावरणविद् और पशुओं के अधिकारों के साथ लम्बे सम्बन्ध रहे हैं और इसीलिए उनके पर्यावरण मंत्रालय का मंत्री बनने पर किसी को कोई आपति नहीं होती ( उन्होंने भी कॉलेज शिक्षा प्राप्त नहीं की है )|
एक दुसरे सन्दर्भ में एम् आई टी के मोजूदा अध्यक्ष जोई इतो ने भी कॉलेज शिक्षा हासिल नहीं की है | लेकिन श्रीमान इतो ने कई ऐसी सफल प्रोद्योगिकी कम्पनियों का गठन किया है जिससे उन्हें वह डोमेन ज्ञान हासिल हो गया की वह एक ऐसी शैक्षिक प्रयोगशाला का निर्माण कर सकें जहाँ प्रोद्योगिकी एक प्रमुख मूल है | इसी सन्दर्भ में श्रीमती ईरानी के मानव संसाधन मंत्री के पद पर आसीन होने पर सवाल उठते हैं | कॉलेज शिक्षा न हासिल करने के बाद भी वह अभी तक किसी भी शैक्षिक गतिविधि का हिस्सा नहीं बनी है | वह शिक्षा को कितनी अहमियत देती हैं वह इसी बात से अस्पष्ट है की उन्होनें शपथ लेते वक़्त अपनी शैक्षिक योग्यता के बारे में झूठ बोला है |
मेरा ऐसा विचार है की किसी मंत्रालय में वह मंत्री सफल हो सकता है जो उस डोमेन से सही से वाकिफ है उसके देखे जिसे उसका कोई ज्ञान न हो –ये सवाल निश्चितता का नहीं सम्भावना का है | ये इस बात पर आधारित है की अन्य देशों में जिन मंत्रियों को शिक्षा विभाग दिया जाता है उनका चुनाव मज़बूत शैक्षिक योग्यताओं वाले उम्मीदवारों में से किया जाता है | इस बात को भी अनदेखा नहीं कर सकते की इससे पहले भारत के उच्च शैक्षिक योग्यताओं वाले शिक्षा मंत्रियों ने भी प्रशासन में कुछ ख़ास चमत्कार नहीं दिखाया है, प्रधान मंत्री ने गुजरात में अपने मुख्य मंत्री के कार्यकाल में इसी आधार पर डोमेन ज्ञान वाले मंत्रियों का चुनाव किया था | ज्यादा वक़्त के लिए गुजरात की शिक्षा मंत्री श्रीमती आनंदीबेन पटेल थीं जो की विज्ञान में उच्च स्नातक हैं और शिक्षा में स्वर्ण पदक जीती हुई हैं | इस पूर्व प्रिंसिपल ने उनकी सरकार में कई सफल कार्यक्रमों और योजनाओ का नेतृत्व किया है | उनकी डोमेन ज्ञान की वजह से ही डॉक्टर हर्षवर्धन के ९४ में दिल्ली राज्य के स्वास्थ्य मंत्री के रूप में चुनाव को सबने सराहा | उन्होनें भारत से पोलियो का सफाया कर दिया और अभी केंद्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्री हैं |
ऐसा संभव नहीं है की हमें हर विभाग में सही डोमेन ज्ञान वाले सही प्रशासक मिल जाएँ | मसलन बहुत कम एम् पी राज्य या राष्ट्रिय स्तर पर खेल में सफलता कर पाते हैं इसीलिए खेल मंत्रालय अक्सर ऐसे नेताओं के हिस्से में जाता है जिन्हें इस विभाग का कोई अनुभव नहीं है (भाजपा के दल में इन चुनावों में एक ओलिंपिक के रजत पदक विजेता राज्यवर्धन राठौर थे) | लेकिन मानव संसाधन मंत्रालय के इस पद के लिए ऐसी कोई कमी नहीं थी क्यूंकि भाजपा के दल में इस डोमेन के विस्तृत ज्ञान वाले कई लोग मोजूद है |
आखिर में किसी की नियुक्ति पर सवाल उठाना उस मंत्री की प्रदर्शन को पहले से जांचना नहीं है | ऐसे भी कई उदाहरण सामने आये हैं जहाँ मंत्रियो ने अपनी विभागों की सीमित जानकारी होने के बावजूद काफी बेहतरीन काम किया है |मुख्य मंत्री कामराज ने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी नहीं की लेकिन उन्हें आज भी तमिल नाडू के लाखों गरीब ग्रामीणों के बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान कराने के लिए जाना जाता है| हम भी स्वाभाविक तौर से उम्मीद करते हैं की चुनौतियों के बावजूद श्रीमती ईरानी भारतीय शिक्षा की सख्त जरूरत है ऐसे आर्थिक सुधारों और क्रियान्वन को लागू करें जिससे उनकी नियुक्ति पर उठे सवाल ख़ारिज हो जाएँ |
एक बौद्धिक पारिस्थितिकी तंत्र के झुकाव का केस
जहाँ ये मानव संसाधन नियुक्ति अभी भी सवालों के घेरे में है , इसके पक्ष में भाजपा की तरफ झुके बौद्धिक पारिस्थितिकी तंत्र और उसके प्रवक्ता द्वारा दी गयी दलीलें हैरान करने वाली हैं | संक्षेप में कहें तो श्रीमती ईरानी की शिक्षा पर उठे सवालों को संभ्रांतवादी ,जातिवादी और सेक्सिस्ट करार दिया गया है | उनके पक्ष में दी गयी दलीलें इस हद तक बढ़ गयीं की वह ओपचारिक शिक्षा की अहमियत पर और नौकरियों में प्रदर्शन और ज्ञान के बीच के सम्बन्ध पर सवाल उठाने लगीं साथ में ऐसे प्रतिष्टित उदाहरण दिए गए जिन्होनें बिना शिक्षा के अपने क्षेत्र में उत्कृष्टता हासिल की और कुछ जो बेहतरीन शिक्षा होने के बावजूद कुछ ख़ास हासिल नहीं कर पाए | ऐसी कमज़ोर दलीलें प्रवक्ता को देने के लिए कहा गया होगा पर बौद्धिक पारिस्थितिकी तंत्र एक राजनितिक दल के स्तर तक गिर जाए वह उसको शोभा नहीं देता |
वामपंथी पारिस्थितिकी तंत्र के भाग्य को एक पूर्व चेतावनी के रूप में काम करना चाहिए| यूपीऐ सरकार की हर हरकत का पक्ष लेने की वजह से , फिर चाहे उसके लिए बिना सर पैर की दलीलें भी देनी पड़ें , उनकी साख हमेशा के लिए ख़तम हो गयी और फिर भी यूपीए सरकार की छवि में कोई बदलाव नहीं आ सका | इसके विपरीत दक्षिणपंथी पारिस्थितिकी तंत्र ने राष्ट्रिय मीडिया के साथ के आभाव में भी बौधिक लडाई जीत ली सिर्फ अपनी बौधिक अखंडता की वजह से | इसीलिए इस नियुक्ति के पक्ष में दी गयी दलीलों की कमियों को सामने ला में दक्षिणपंथी पारिस्थितिकी तंत्र जो की सरकार के रवैय्ये से अलग बौधिक मुद्दों का हल निकालती थी उसके सामने कुछ दलीलें रखना चाहूँगा | तब ही इस पारिस्थितिकी तंत्र द्वारा दिया गया कोई भी राजनितिक पक्ष लोगों से बात मनवाने में असरदार होगा |
वह कारक जो श्रीमती ईरानी की नियुक्ति पर सवाल उठा रहे हैं वह जलन का नतीजा है क्यूंकि उन्होनें भाजपा की राजनीती में काफी जल्दी ऊँचाई हासिल कर ली है , उनकी कम उम्र ( वह ३८ साल पर केन्द्रीय मंत्री का पद संभल रही है )और उनके रूप की वजह से |ऐसा भी सुझाव दिया गया की "ईरानी विवाद एक पलिश्ती के रूप में श्री मोदी की छवि को मजबूत करने के बारे में है" (स्वपन दासगुप्ता एशियन ऐज ३० मई २०१४ )| इन सब गुप्त विचारों को भी छोड़ दें तो भी क्या वह उत्पन्न सवालों को हटा पाएंगे ? सुब्रमण्यम स्वामी के हाल के उदाहरण से लगता है की नहीं | उनकी गाँधी परिवार और पूर्व वित्त मंत्री चिदम्बरम से निजी दुश्मनी होने के बावजूद जब उन्होनें उनके सार्वजानिक व्यव्हार में अनियमितताओं पर सवाल उठाये तो जनता ने उनके इरादे पर कोई सवाल नहीं उठाये | अक्सर इरादों को रद्द कर दिया जाता है अगर कोई भी दलील मज़बूत हो | ये उन दिनों की भी याद दिलाता है जो भारत ने पीछे छोड़ दिए जहाँ यूपीए सरकार के प्रदर्शन पर उठे सवालों को सांप्रदायिकता और फासीवाद का नाम दे ख़ारिज किया जाता था – ये बात अलग है की वह इसमें असफल रहते थे |
इरादों को छोड़ दें तो हम साम्प्रदायिकता के लिए एक अलग नाम पाते हैं और वो है उत्कृष्टतावाद और जातिवाद | ये एक उलझन है की शैक्षिक योग्यताओं पर उठे सवालों को उत्कृष्टतावाद और जातिवाद से जुडा बताया जा रहा है क्यूंकि ओपचारिक शिक्षा जायदाद में नहीं मिलती है वह प्रतिभा और उद्योग के माध्यम से हासिल होती हैं – अगर हम भी ये विश्वास करें की हमारा संविधान भी इन्ही कमियों से ग्रस्त है | भारतीय संविधान में ये लिखा है की किसी भी सरकारी दफ्तर के लिए चुनाव में शामिल होने से पहले हर नागरिक को अपनी शैक्षिक योग्यताओं को सार्वजानिक करना चाहिए ताकि लोग भी उनकी उपयुक्तता को सही से जांच ले |
सही में ज्ञान और प्रदर्शन के और ओपचारिक शिक्षा और सामान्य क्षमता के बीच में घनिष्ट सम्बन्ध है , इस बात से अलग की दुसरे तथ्य पर हम ऐसे देश में जोर नहीं दे सकते जहाँ आर्थिक गरीबी के कारण मध्य स्कूल में उसे छोड़ने वाले बच्चों की संख्या काफी अधिक है | मुख्य मंत्री कामराज जिनको तमिल नाडू की शिक्षा में योगदान के लिए याद किया जाता है उन्होनें स्कूल अपने परिवार के भरण पोषण के लिए छोड़ा था | अगर श्रीमती ईरानी ने ऐसे कारकों के वजह से शिक्षा छोड़ी होती जो उनके हाथ में नहीं थे , तो वह जानकारी इस मुद्दे पर उठे सवालों को शांत कर देती |
ऐसे कई लोग भी हैं जिन्होनें ओपचारिक शिक्षा के आभाव में भी अपने व्यवसाय और काम में उत्कृष्टता हासिल की | रबिन्द्रनाथ टैगोर को बिना किसी ओपचारिक शिक्षा के साहित्य में नोबेल पुरुस्कार मिल गया | धिरुभाई अम्बानी ने बिना बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में डिग्री के शुरू से दुनिया के सबसे बड़े व्यावसायिक साम्राज्य में से एक की स्थापना की | कॉलेज छूट जाने के बावजूद बिल गेट्स ने प्रोद्योगिकी साम्राज्य की स्थापना की | इन लोगों का नाम लेकर शिक्षा की अहमियत को कम करने के बजाय हम इस बात को बताना चाहेंगे की ये शख्स ओपचारिक शिक्षा को बहुत महत्त्व देते थे शायद इसलिए क्यूंकि वह सामान्य नहीं अलग थे |
रबिन्द्रनाथ टैगोर ने नोबेल पुरुस्कार के साथ मिली राशी का इस्तेमाल ऐसे स्कूल को आगे बड़ा विश्वविद्यालय में परिवर्तित करने के लिए किया जिससे नामी मुख्य मंत्री , अर्थशास्त्री , नोबेल पुरस्कार विजेता, फिल्म निर्माता, कलाकार और लेखकों ने अपनी शिक्षा पूर्ण की | धीरू भाई अम्बानी ने अपने बेटों को दुनिया के प्रतिष्टित संस्थानों में भेजा बिज़नस एडमिनिस्ट्रेशन की पढ़ाई करने के लिए | जिस कंपनी की स्थापना बिल गेट्स ने की वह कभी भी कॉलेज छोड़े हुए लोगों को नियुक्त नहीं करती – वह दुनिया भर के बेहतरीन विश्वविद्यालयों से स्नातकों का चुनाव करती है |
ये एक विडंबना है की जिन बुद्धिजीवियों को इस नियुक्ति पर ऐतराज़ है उन्हें उत्कृष्टतावादी कह कर घेरा जा रहा है जबकि उत्कृष्टतावादी शैक्षिक योग्यता को अपनी निजी पसंद को प्रभावित नहीं करने देते | इनमें से कई दुनिया के सर्वश्रेष्ठ स्कूल और विश्वविद्यालों से पड़े हैं और उसी तरह से अपने आगे आने वाली पीड़ी को शिक्षा प्रदान करवा रहे है | मुझे हैरत नहीं होती क्यूंकि में वाम राज्य में पला बड़ा था जहाँ मंत्रियों ने सरकारी स्कूलों से अंग्रेजी को यह कह हटा दिया की वह साम्राज्यवादी भाषा है लेकिन अपने बच्चों को उसी भाषा के निजी स्कूलों में पढ़ाते रहे |
ओपचारिक शिक्षा को उत्कृष्टतावाद का नाम देने का राजनितिक असर बहुत विनाशकारी हो सकता है | इसी सोच के तहत सांस्कृतिक क्रांति में अध्यक्ष मो ने "खूनचुस्सू" शिक्षकों को सजा प्रदान की थी | और फिर चीन की क्या दुर्गति हुई थी उसका इतिहास गवाह है | पर किस्मत से भारत में ओपचारिक शिक्षा को बहुत महत्त्व दिया जाता है और इसीलिए ये सोच यहाँ नहीं चलेगी |
जिस तरह से उच्च शेक्षिक योग्यताओं वाले कई नेताओं ने निराश किया है उसी प्रकार कई ऐसे नेता भी हैं जिन्होनें अपनी योग्यता के बल पर इतिहास के पन्नों पर कभी न मिटने वाली छाप छोड़ी -स्वामी विवेकानंद, नेताजी सुभाष बोस, बाबा साहेब अंबेडकर, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, बिधान चंद्र राय। अभी के वक़्त में शिवराज सिंह चौहान, मनोहर पार्रिकर, हर्षवर्धन ने अपनी शेक्षिक क्षेत्र में और सार्वजानिक ज़िंदगी दोनों में उत्कृष्टता हासिल की है | भाजपा को सोचना चाहिए की क्या उसे ये उत्कृष्टतावाद का इस्तेमाल अब बंद कर देना चाहिए |
हमारे ग्रंथों में लिखा है की कर्ण के पास ऐसी शक्ति थी जो एक इस्तेमाल के बाद बेअसर हो जाती | राजनीती में भी मायावती भी अपने दलितों के प्रति झुकाव पर उठे सवालों को ज्यादा दिन तक ख़ारिज नहीं कर पायीं | और जो साम्प्रदायिकता का पत्ता कांग्रेस ने २००९ में खेला था वह २०१४ में अधिक इस्तेमाल किये जाने की वजह से विफल हो गया | वास्तव में तब मोदी ने कांग्रेस की भटकाऊ तरीकों के लिए कहा था " में नौकरी की बात कर रहा हूँ और वह साम्प्रदायिकता की" | ये बात तो अगर हम साम्प्रदायिकता की जगह उत्कृष्टता कर दें तो भी लाज़मी होगी |
एक संबंधित विषयांतर में भाजपा की सार्वजनिक जवाबदेही के विषय में उठे एक मुद्दे पर कांग्रेस जैसी प्रतिक्रिया रही है | सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने शपथ पत्र में उनकी शैक्षणिक योग्यता को गलत तरीके से पेश किया था ये बात सभी को ज्ञात है | जवाबदेही के लिए अपनी सीमित परवाह के अनुरूप, उन्होनें स्पष्ट विसंगतियों से संबंधित सभी सवालों की उपेक्षा की | एक आश्चर्यजनक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने उनकी शपथ के साथ बोले गए झूठ को लिपिकीय त्रुटि का उदाहरण मान लिया ।
ये बात अब सामने आई है की अपनी शैक्षिक योग्यताओं को लेकर जो जानकारी श्रीमती ईरानी ने २००४ में शपथ के तहत दी थी वह २००९ में दी गयी जानकारी से बिलकुल भिन्न है | गाँधी परिवार की तरह उन्होनें भी उठे हुए सवालों का कोई जवाब नहीं दिया | भाजपा के प्रवक्ता और समर्थकों ने कांग्रेस को उनके राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का उदाहरण दे कर शांत कर दिया है | और इस प्रक्रिया में उन्होनें सीमित समय के लिए दोनों राष्ट्रिय दलों के बीच एक अनैतिक सम्बन्ध कायम कर लिया है और हर बार जब वह ऐसा करते हैं तो वह अपनी साख को थोडा कम कर लेते हैं – लेकिन साख कोई असीमित नहीं होती किसी भी दल के पास | इसी दो राष्ट्रिय दलों की बीच की अनेतिकता का नतीजा है की हाल में आम आदमी पार्टी जैसे अराजकतावादी लोग उभर कर सामने आ गए हैं |
आखिर में लैंगिक समानता लिंग संरक्षणवाद के माध्यम से हासिल नहीं की जा सकती | एक औरत की व्यावसायिक साख पर सवाल उठाना उसके लिंग से सम्बंधित नहीं है जिस तरह से एक दलित या मुस्लमान की काबलियत पर सवाल से उनके विश्वास का कोई लेना देना नही है | हमारी सार्वजानिक बहस कितनी गिर गयी है ये इस बात से सामने आता है की श्रीमती सुचेता दलाल जैसी काबिल औरत ने श्रीमती ईरानी की साख पर उठे सवालों को उनकी उम्र और काया से जोड़ दिया | कुछ भी हो श्रीमती ईरानी एक सफल सवतंत्र औरत हैं | फूड चेन में छोटे मोटे काम से शुरुआत कर वह अभिनय और राजनीति में सफल बनी हैं | वह उन मुट्ठी भर औरतों में से हैं जिन्होनें बिना वंशवादी बैसाखी के राजनीति में सफलता हासिल की है | उनकी इसी ख्याति का नतीजा है की देश भर में काफी हंगामा हुआ जब उन्हें वाकई में उनके लिंग की वजह से शर्मिंदा करने की कोशिश की गयी , ख़ास तौर से प्रियंका वाड्रा ( जिन्होनें दो शब्दों मंर कहा , "स्मृति कौन") और संजय निरुपम (* जिन्होनें नाचनेवाली नाम से उन्हें संबोधित किया क्यूंकि वह पहले एक अदाकारा थी )| हम उन अन्य स्वतंत्र औरतों के साथ अन्याय करेंगे अगर हम बिना बात के हर जगह लिंग को मुद्दा बनायेंगे | वह इससे बेहतर की हकदार हैं |