इस्लाम में सोच और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है [भाग 1]
इस्लाम अभी तक बड़े पैमाने पर महत्वपूर्ण जांच से बचा हुआ है शायद इसीलिए क्यूंकि इतिहास गवाह है की ऐसी कोशिशों ने हमेशा हिंसक प्रतिशोध और बड़े पैमाने पर हिंसा को जन्म दिया है |
भारतीय धर्मों में धार्मिक सिद्धांतों के मूल मतों पर बहस की एक समय सम्मानित परंपरा रही है। जैसे विद्वान् सीता राम गोएल मानते हैं , हिंदुत्व की शुरुआती इतिहास में हम सब तरह की विचारधाराओं का संग्रह पाते हैं | ये सोचने की बजाय की " सभी विचारधाराएं सही हैं , वह अलग नज़रियों का बयान और संग्रही द्वारा उनके विश्लेषण को प्रस्तुत करती हैं | इसके इलावा वेदों के समय से हिन्दू इतिहास में शास्त्रार्थ (बहस) की प्रथा चलती आ रही है | आने वाले समय में हम सनातन धर्मं के मुख्य विचारधाराओं- तत्वज्ञान की 6 विधाएं जिसपर बौद्ध , जैनी ,वेदांत ,शैववाद ,शक्तिवाद और वैष्णववाद आधारित हैं , में जीवंत बहस देखेंगे | हर विचारधारा ने अपने स्थान को बरकरार और बाकियों को स्थान से गिराने के लिए अगली पीड़ी को विशाल साहित्य विरासत में दिया है | इसी तरह से इन विचारधाराओं में मोजूद विभिन्न साम्प्रदाओं में भी काफी बहस होती है | इन बहसों की भाषा हमेशा परिष्कृत नहीं होती है| कई बार वह कठोर होती , और कभी कभी व्यंग्यात्मक होती है| "लेकिन इनमें से किसी भी बहस में शारीरिक हिंसा की ज़रुरत नहीं पड़ी | इसके इलावा वह कहते हैं : " शास्त्रार्थ के लम्बे इतिहास में हमारे पास एक भी ऐसा उदाहरण नहीं हैं जब कोई विचारधारा या साम्प्रदाय दुसरी विचारधारा या साम्प्रदाय को दबाने की कोशिश करे या अपने पालकों से अपना समर्थन दिखाने के लिए रास्ते में दंगो का आयोजन करे |" प्रस्तावना, पृष्ट 16-17, [1]।| वाकई में प्रसिद्ध दार्शनिक आदि शंकराचार्य ने अन्य विचारधाराओं जैसे मीमंसा , संख्य और बोद्ध[७] के पालकों से प्रवचन और बहसों के माध्यम से अद्वैत वेदांत का सिद्धांत प्रचारित और समेकित किया | सोच और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हिंदुत्व में रची बसी है और उसने कानूनी और सामाजिक बदलावों सुधारों ,जिन्होनें बाद में सती और छुआछूत जैसे समस्याओं का समाधान बिना ज्यादा विरोध के किया ,के लागू होने में मदद की | हिंदुत्व आज भी बिना आलोचकों पर हानिकारक प्रभाव के इसके नतीजे के फलस्वरूप निगरानी में रहता है |
इन धर्मशास्त्र के भारतीय विचारधाराओं से आगे बड़ते हुए ईसाई धर्म की शुरुआत में भी अपने मूल सिद्धांतों की बहस को ठुकराया गया और विधर्मियों और स्वधर्मत्यागियों को कठिन सजा दी गयी | ओल्ड टेस्टामेंट के हिसाब से जो लोग और भगवानों की पूजा करें उन्हीं मौत की सजा मिलनी चाहिए | स्वाभाविक रूप से रोमन साम्राज्य के ईसाई धर्म को अपनाने के दो सदियों के भीतर , बादशाह जुस्तिनियन ने एथेंस में तत्वज्ञान की सबसे पुरानी शिक्षा संसथान – जहाँ प्लेटो पढ़ाते थे – को बंद कर दिया और यूरोप ने डार्क ऐजस में प्रवेश कर लिया | [२] पृष्ट ६१ [३] | आगे आने वाले समय में 12 सदी में कैथोलिक चर्च ने यूरोप पर कब्ज़ा कर विधर्मियों को क्रूर यातना देने के हुकुम ज़ारी किया [6] | 17 सदी तक भी गैलिलियो को इसिलए पकड़ा गया क्यूंकि उसकी वैज्ञानिक खोजें बाइबिल में दी गयी जानकारी के विपरीत थी[5] |
लेकिन ईसाई धर्म की प्रथाओं में असहिष्णुता का समाधान सुधार आन्दोलन और आलोचक विश्लेषण के माध्यम से उन देशों में निकाला गया जहाँ वह प्रधान धर्म था | १७६७ में वोल्तैरे ने लिखा था : " [ईसाई धर्म ] सबसे हास्यास्पद, बेतुका और सबसे खूनी धर्म है जिसने इस दुनिया को संक्रमित कर रखा है पृष्ट ७१५ [8]| उन्होनें ये भी कहा:जो कट्टरपंथि धार्मिक किताबें पड़ते हैं वह कहते हैं : भगवन ने मारा तो मुझे भी मारना चाहिए , अब्राहम ने झूठ बोला ,जैकब ने धोका दिया ;राशेल ने चोरी की : तो मुझे भी चोरी धोका देना और झूठ बोलना चाहिए | पर बेवक़ूफ़ तुम न राशेल हो , न जैकब , न अब्राहम ,न भगवान ; तुम सिर्फ एक पागल बेवक़ूफ़ हो ; और जिन पोपस ने बाइबिल पड़ने से मना किया वह बहुत समझदार हैं पृष्ट १९९ [९]| १८७२-१९७० के बीच बेर्त्रंद रुस्सेल ने स्थापित धर्मों के क्षेत्र से बाहर इशु के सार्वभौमिक नैतिक सिद्धांतों को लागू करने का आंकलन किया :" मेरे दिमाग में इशु के चरित्र को लेकर एक बहुत बड़ी कमी उभरती है और वो है की वह नरक में विश्वास रखते थे | मुझे ऐसा लगता है की कोई भी व्यक्ति जिसमें ज़रा भी इंसानियत हो वह अनन्त सजा की बात नहीं करेगा और मेने ये भी देखा की जो लोग उनका प्रवचन नहीं सुनते थे वह उनके प्रति तामसिक रोष रखते थे – एक ऐसा रवैय्या जो प्रचारकों में पाना असामन्य नहीं है पर जो उनके भगवान होने पर सवाल उठता है | ऐसा रवैय्या उदाहरण के तौर पर आपको सोक्रेटस में नहीं मिलेगा पृष्ट ११ [१०]|
इस तरह से रुस्सेल भगवान् के बेटे की तुलना एक साधारण इंसान से कर रहा है | फिर भी उन्हें साहित्य में नोबेल पुरुस्कार और आर्डर ऑफ़ द मेरिट से सम्मानित किया गया | डॉ कोएनराड ने यूरोप में १९८० -२००० के बीच में उभरी ईसाई धर्म की भयंकर आलोचनाओं का ज़िक्र किया | कार्ल –हेंज –देस्च्नेर ने ईसाई धर्म के आपराधिक इतिहास का सर्वेक्षण किया : किताबों में लिखित जानकारी में धोखा ,सामाजिक बुराइयों में मिलीभगत, बुतपरस्त बहुमत संस्कृति का विघटन, हर तरह से राज्य सत्ता का कब्जा, अधर्मियों का उत्पीड़न, इतिहास का मिथ्याकरण और किताब जलाना | पिअर ग्रिपरी ने अब्राहम के परिवार में जातिवाद को दर्शाया : इस्मैल को अब्राहम के बेटे की पहचान नहीं मिलती क्यूंकि उसकी माँ इजिप्ट से थी , इस्सु को इस्सक का वारिस नहीं माना जाता क्यूंकि उसने हितिते परिवार की औरतों से शादी की है | बाइबिल ज्ञानी माइकल अर्न्हेइम ने दलील दी है बाइबिल में असंख्य मनगड़ंत कहानियां और विकृतियाँ हैं | फ्लेमिश मनोवैज्ञानिक और बाइबिल ज्ञानी डॉ हरमन सोम्मेर्स कहते है येशु भ्रम रोग से त्रस्त थे पृष्ट १०६-१०९ [1] |इन विद्वानों के योगदान को काफी सराहा गया और यूरोप के ईसाईयों में इस वजह से कोई हिंसा नहीं भड़की |
इस्लाम इस तरह की व्यापक आलोचक शोध से बचा रहा है शायद इसिलए क्यूंकि इतिहास गवाह है की ऐसी कोशिशों का जवाब हमेशा हिंसक प्रतिरोध और हिंसा से दिया गया है | अगर हम एक ही विचारों की अभिव्यक्ति से संतुष्ट नहीं रहना चाहते हैं मसलन इस्लाम की तारीफ तो ये ज़रूरी है की हम इस असहनीयता के मूल कारण , जो वक़्त के साथ और तीक्ष्ण हो गया है , को पहचाने | एक इमानदार जांच में इस्लाम के पालकों द्वारा विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दी गयी अहमियत का इस्लाम के मूल सिद्धांतों पर असर के इलावा किसी प्रमुख वजह को सामने नहीं लाया जा सकता है | क्यूंकि कई बुद्धिजीवियों, राजनीतिक नेताओं, राष्ट्रों के प्रधानमंत्रियों ने इस्लाम को उसके नाम पर की गयी हिंसा से अलग कर दिया है [36-४०], मैं इस विपरीत स्थिति को सामने लाना चाहूंगी की इस्लाम के मौलिक सिद्धांत विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरुद्ध है | क्यूंकि अगर ऐसा है तो दुनिया भर के शैक्षिक पाठ्यक्रम में छात्रों को ऐसे सिद्धांतों को अस्वीकार करने की शिक्षा देनी चाहिए जो आधुनिक सार्वभौमिक सभ्यता के मूल्यों के खिलाफ हैं ( ये सभी धर्मों के लिए होना चाहिए पर पिछले ५० साल के इतिहास को देखते हुए इस्लाम को प्राथमिकता दी जानी चाहिए )| इस तरह का एक व्यवस्थित और तर्कसंगत दृष्टिकोण इस्लाम के पालकों, जिनमे से कई और धर्मों के लोगों जैसे ही उद्धारक प्रवत्ति के है को उस भेदभाव प्रतिक्रिया से बचाएगा जिसके बारे में इतिहास भी गवाह है |
इस्लाम के मूल सिद्धांत: विचारों की स्वतंत्रता
अल्लाह और उसके रसूल ने जो फैसला किया है, उन मामलों पर कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं ज़ाहिर होगी
कुरान में इस्लाम के इस्लाम के पैगंबर के खुलासे शामिल है ; वह मुसलमानों के लिए खुदा की वाणी है | हदीथ में वह सब लिखा है जो पैगम्बर ने "किया या कहा, हुक्म दिया , मना किया या नहीं मना किया था, इजाज़त दी या अस्वीकृत किया"पृष्ट ७ [42] | कुरान भगवान के अस्तित्व और साथ में दुनियादारी के मामले जैसे विवाह, तलाक, विरासत, काफिरों के साथ बातचीत, युद्ध इत्यादि के विषय में बुनियादी इस्लामी मान्यताओं प्रदान करता है| हदीथ पैगम्बर के धार्मिक विषयों (अल्लाह, नरक, स्वर्ग, विश्वास, प्रार्थना, उपवास, तीर्थ) और दुनियादारी के विषय (पवित्र युद्ध, युद्ध लूट, अपराध और सजा, भोजन, पेय, कपड़े, व्यक्तिगत सजावट, शिकार और नामकरण बलिदान, कवियों और भविष्यवक्ताओं, महिलाओं और गुलाम, उपहार, विरासत, दहेज, शौचालय, स्नान, स्नान, सपने, चिकित्सा, प्रतिज्ञा, शपथ, नियम, चित्र, कुत्तों, छिपकली, चींटियों) पर विचारों को बताता है | जैसे इब्न वार्रक कहते है ," कुरान और सुन्ना(हदीथ ) इश्वर के आदेश की अभिवक्ति हैं , अल्लाह की निश्चित और गूढ़ इच्छा का पालन होना चाहिए वो भी बिना किसी शुबा , सवाल या योग्यता को पूछे"| चैप्टर 6 [४१] कुरान में लिखा है 33:36 " एक बार अल्लाह या उनके रसूल ने फैसला ले लिया है एक विश्वास करने वाली औरत या आदमी को मामले में अपनी राय देने का कोई अधिकार नहीं हैं | और जो भी अल्लाह और उसके रसूल के खिलाफ जाएगा उसने साफ़ तौर पर बहुत बड़ी गलती कर दी |"[४३] दुसरे शब्दों में इस्लाम कई व्यापक मुद्दों पर चुनाव से साफ़ मना करता है जो कुरान और हदीथ ने बनाए है | विचारों की स्वतंत्रता एक शक्श की औरों के नज़रिए से अलग एक तथ्य , सोच या नज़रिए को रखने की स्वतंत्रता को दिया गय नाम है | इस्लाम इस तरह से अपने पालकों के विचारों की स्वतंत्रता क काफ़इ हद तक उललनघन करता है |
विचारों की स्वतंत्रता के अपने परिणाम होते हैं |
स्वधर्मत्याग
अब हम उस सजा की बात करते हैं जो अल्लाह के बताये गए कुछ मुद्दों पर अपनी मर्ज़ी चलाने से इस्लाम सेता है | हम सबसे पहले बात करते हैं स्वधर्मत्याग की - एक व्यक्ति द्वारा इस्लाम का त्याग | इस्लाम के पिगाम्बर ने स्वधार्मियों के लिए मौत की सजा मुक़र्रर की है | हम ये समझाने के लिए दो किस्से बताते हैं |
हम इब्न इशाक के रसूल अल्लाह , पैगम्बर की सबसे पहली जीवनी से बताते हैं पृष्ट ५५२ [32] " इश्वर दूत ने अपने सेना अध्यक्षों से मेक्का में घुसते वक़्त कहा था की सिर्फ उनसे लढ़े जो उनका विरोध करें , कुछ को छोडके जो अगर काबा के परदे के नीचे भी मिलते तो भी उन्हें मार दिया जाता | उनमें से एक था आमिर बी लुय्य का भाई अब्दुल्ला बी साद | उसकी मौत का फैसला इसलिए लिया गया क्यूंकि उसने मुस्लमान होते हुए भी उससे जुड़े खुलासे लिखे ; फिर धर्म का त्याग कर वह कुरय्श जा अपने सौतेले भाई उठ्मन बी अफ्फान के पास चला गया | उसके भाई ने उसे छुपा कर तब तक रखा जब तक मेक्का में शांति थी और फिर उसको इश्वर दूत के पास ला उसको माफ़ी देने की मांग करने लगा | लोग बताते हैं की इश्वर दूत लम्बे समय तक चुप रहा और अंत में उसने हामी भर दी | जब उथमान चला गया दूत ने अपने पास बेठे साथियों से कहा ,’ मैं इसलिए चुप रहा ताकि तुममे से कोई इसका सर कलम न कर दे ! एक अंसार ने कहा ,’तो आप मुझे इशारा क्यूँ नहीं करते है , इश्वर दूत ? उसने जवाब दिया की पैगम्बर बता कर क़त्ल नहीं करता | हम दूसरा किस्सा शाही भुखारी के इस्लाम के शब्दकोष में लिखे वृतांत से बताते हैं पृष्ट ६३ -६४ और चैप्टर १६ [४१] का हिस्सा : उकल जाती के कुछ लोग पैगम्बर के पास आये और उन्होनें इस्लाम को अपनाया पर मदीना की हवा उन्हें रास नहीं आई और वह वहां से जाना चाहते थे | तो पैगम्बर ने उन्हें जहाँ भिक्षा में दिए गए ऊंट खड़े थे और उनका दूध पीने को कहा , जो उन्होनें किया और उनकी बीमारी ठीक हो गयी | पर इसके बाद उन्होनें इस्लाम का परित्याग कर दिया और ऊँटों को चुरा के भाग गए | तो पैगम्बर ने कुछ लोगों को उनके पीछे भेजा और उन्हें पकड़ कर वापस मदीना लाया गया | फिर पैगम्बर ने चोरी की सजा की तौर पर उनके हाथ और पैर काटने का और आँखों को बाहर निकालने का हुकुम दिया | पैगम्बर ने उनके खून के बहाव को नहीं रोका और वह मर गए |"
संदेह, अविश्वास, छुपाना
जो लोग अपनी जान बचाने के लिए इस्लाम को स्वीकारते हैं लेकिन मन में बहुदेववाद या यहूदी धर्म को अपनाये रहते हैं उन्हें इस्लाम की किताबों में पाखंडी कहा जाता है | जो यहूदी उनके इश्वर दूत को झूठा साबित करना चाहते हैं और उनसे सवाल पूछ पैदा करते हैं उन्हें भी पाखंडी माना जाता है पृष्ट २३९ ,[32]|एक पाखंडी की तुलना उस भेड़ से की जाती है जो दो झुडों के बीच दिशाहीन घूमता है | पहले वो एक झुण्ड के पास जाता है और उसरे समय में दुसरे झुण्ड के पास ((6696, 36 वें पुस्तक, किताब सिफत अल मुनाफिकुन वाहकूमआईएम उसे, सहीह मुस्लिम) पृष्ट 243, [42]| इसीलिए संदेह और शंका वादी , अधूरे विश्वास वाले व्यक्ति और जो इश्वर दूत से सवाल करें वह सब पाखंडी हैं
जो भी हो पाखंडी पैगम्बर को पसंद नहीं हैं क्यूंकि वह बार बार उन्हें नरक की आग की धमकी देते हैं | कुरान के ज्ञानियों ने उनके लिए नरक का सबसे गरम हिस्सा हवाइअह , निर्धारित किया है | वाकई में कुरान के ९:६८ में लिखा है " अल्लाह ने पाखंडी आदमी और औरतों और अविश्वासियों को नरक की आग की सजा दी है , जहाँ वह सदा वास करेंगे | ये उनके लिए काफी है | और अल्लाह ने उन्हें श्राप दिया है , और उनके लिए ये कभी न ख़त्म होने वाली सजा है [४७]|
अविश्वास या बेवफाई
इस वक़्त तक ये आश्चर्य की बात नहीं होगी की इस्लाम काफिरों , यानी की वो जिन्होनें काफिर होने की वजह से कभी इस्लाम को नहीं कबूला को क्रूर सजा देता है (8:12 8 :36 चैप्टर 5 :33:34) पृष्ट 5-8 [51] [४८-५०] | कुरान मुसलमानों को काफिरों के विरुद्ध जिहाद या धार्मिक युद्ध करने की इजाज़त देता है (९:२९) पृष्ट ९ [५४][५२-५५]
कुरान 8:12 जब तुम्हारे भगवान ने फरिश्तों से कहा ," में तुम्हारे साथ हूँ तो जो विश्वास करते हैं उनको हिम्मत दो | जो लोग विश्वास नहीं करते में उनके दिलों में डर भर दूंगा , इसलिए उन की गर्दन पर वार कर और उनको ख़त्म कर दो |
कुरान ५:३३ वाकई में जो लोग अल्लाह और उसके दूतों के खिलाफ युद्ध करते हैं और जिनका मकसद धरती पर भ्रष्टाचार फैलाना है उनकी सजा बस एक है की उनको मार दिया जाए या सूली पर लटका दिया जाए या उनके उलटी तरफ के हाथ और पेर काट दिए जाए या उन्हें देश निकाला दे दिया जाए | ये उनके लिए इस दुनिया में बड़ी शर्म की बात है ; और उसके बाद की ज़िन्दगी उनके लिए एक बड़ी सजा होगी [57]|
कुरान ९:२९ उन से लड़ो जो अल्लाह में या आख़री फैसले में विश्वास नहीं रखते या वो जो अल्लाह और उसके दूतों द्वारा गलत करार गयी चीज़ों को गलत नहीं मानते और जो धर्म का प्रचार करने वालों से धर्म के सच को नहीं अपनाते है – लड़ो तब तक जब तक वो घुटने टेक जिज्याह अपनी मर्ज़ी से न दे दें [58]|
इस्लाम के मूल सिद्धांत – विचार की स्वतंत्रता
एक सोच जो सदा विचार की स्वतंत्रता के खिलाफ है वह स्वाभाविक तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की भी मना करेगा | ये इस बात से साबित होता है की मुहम्मद ने कवियों को सिर्फ इसलिए मरवा दिया क्यूंकि वह उनकी शान की खिलातत में कविता लिख रहे थे | हम इससे जुड़े किस्से बताते हैं |
मुहम्मद ने ६२४ एडी में बद्र के युद्ध में मेक्का की कुँर्येश जाती को हराया था | मदीना के यहूदी नेता कब बिन अल अशरफ ने कुँर्येश में मरे लोगों की याद में काफी सारी कवितायेँ लिखी थीं | उसने मुस्लमान औरतों पर काफी अपमानजनक शब्द लिखे था क्यूंकि एक मुस्लमान औरत ने घुलाम कह उसका अपमान किया था | मुहम्मद ने अपने शिष्यों से पुछा " कौन मुझे ओब्नु अल अशरफ से छुटकारा दिलवाएगा ? क़त्ल करने के लिए एक गुट तैयार किया गया जिसमें कवि का सौतेला भाई शामिल था | जब काब अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ रात में सो रहा था तो उसके सौतेले भाई ने उसे बाहर बुलाया | अपनी बीवी की चेतावनियों को नज़रंदाज़ कर , वह इस विश्वास के साथ बाहर आया की उसका भाई उसे कोई नुक्सान नहीं पहुंचाएगा | अपने दोस्तों के साथ घर से जाते हुए , काब को किसी गलत इरादे का तब तक शक नहीं हुआ जब तक उसे चाकू मार उसकी हत्या न कर दी गयी | इश्वर दूत को रात के अँधेरे में कार्य के सफल होने की खबर दी गयी | इसके बाद मदीना में ऐसा कोई यहूदी नहीं था जिसे अपनी ज़िंदगी का डर न हो पृष्ट ३६४ -३६९ [32]
ऐसा लगता है की पैगम्बर को व्यंग्य पसंद नहीं था | एक स्वधर्मत्यागी अब्दुल्लाह बी खटल के पास " दो गायिकाएं थीं जो इश्वर दूत के बारे में व्यंगात्मक गीत गाती थीं "| उन्होनें आदेश दिए की उसके साथ दोनों गायिकाओं को भी मार दिया जाए | एक गायिका मारी गयी जबकि दूसरी भागने में सफल रही और उसे बाद में माफ़ी प्रदान की गयी पृष्ट ५५१ [३२]|
अगला शिकार था यहूदी कवी अबू अफाक | जब इश्वर दूत ने अल हरित बी सुवाय्द का क़त्ल कर दिया तो उसने अपनी निराशा को प्रकट करने के लिए कविता लिखी | इब्न इशाक लिखते है " इश्वर दूत ने कहा , " मेरे लिए कौन इस नालायक को ठीक करेगा ? जिसके बाद बी अम्र बी ऑफ के भाई सलीम बी उमेर ,जो की शोक मानाने वालों में शामिल था , आगे बड़ा और उसने क़त्ल को अंजाम दिया"|पृष्ट ६७५ [32]
इसके बाद मदीना के उम्मयद जाती की एक औरत अस्मा बिन्त मरवान ने इस्लाम और उसके पालकों को अबू अफाक के क़त्ल का दोषी मानते हुए ये कविता लिखी :" में बी मालिक और अल नबित और ऑफ और बी अल खाज्राज से नफरत करती हूँ | आप मुराद या माद्हिज के सदस्यों को छोड़ एक अजनबी की बात मान रहे हैं जो आपका सगा नहीं है | जैसे एक भूखा आदमी खानसामे के खाने का इंतज़ार करता है तुम्हारे प्रमुख की हत्या के बाद तुम उससे किसी अच्छे की उम्मीद करते हो ? क्या कोई इज्ज़तदार व्यक्ति नहीं है जो उसपर चुपके से हमला बोले और उन लोगों की उम्मीद तोड़ दे जो उसके समर्थक हैं ?"
जब इश्वर दूत ने सुना तो उसने अपने शिष्यों से " मरवान की बेटी से छुटकारा दिलाने को कहा"पृष्ट ६७६ [32]| उमेर बी अड़ियल खातमी सामने आया | इब्न साद बताते हैं ; "उमेर इब्न आधी रात में उसके घर में घुस गया | उसके बच्चे वहीँ सो रहे थे | एक को वो दूध पिला रही थी | क्यूंकि वह अँधा था उसने अपने हाथों से मरवान की बेटी को ढूँढा और बच्चे को उससे अलग कर दिया | उसकी छाती में तलवार ऐसे दाग दी की वह पीछे से निकल गयी | फिर उसने अल मदीना में पैगम्बर के साथ सुबह की नमाज़ पढ़ी | अल्लाह के दूत ने उससे कहा :" क्या तुमने मरवान की बेटी को मार दिया?" उसने कहा : " हाँ क्या मेरे करने के लिए कुछ और है ?" मुहम्मद ने कहा : " कोई भी उसके बारे में अब बात न करे" पृष्ट ३०-३१,[59]| इशाक लिखते है ," उस दिन से इस्लाम उसकी जाती में शक्तिशाली हो गया , इससे पहले जो मुसलमान थे वो इस तथ्य को छुपाते थे | जिस दिन बिन्त मरवान का क़त्ल हुआ उसके अगले दिन से उसकी जाती मुस्लिम में तब्दील हो गयी क्यूंकि उन्होनें इस्लाम की ताकत देख ली थी पृष्ट ६७६ [32]|
विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ संघर्ष क्या इस्लाम के लिए विशिष्ट है?
ऐसा ही युद्ध किसी भी ऐसे धर्म में होता है जो पूर्ण और पवित्र सत्य का समर्थन करता है जैसे अन्य अब्रहमिक धर्म | जैसे लेविस बताते हैं " पारंपरिक तौर पर ईसाई धर्म और इस्लाम यहूदी धर्म से भिन्न थे और उनकी एक दुसरे से समानता ये थी की वह दोनों न सिर्फ सार्वभौमिक लेकिन अनन्य सत्य के ज्ञाता होने का दावा करते थे | दोनों ही अपने को भगवान के सत्य को मानवता के सामने लाने वाला एकमात्र उद्धारक होने के दावा करते थे | लेकिन एक ने भी अपनी जाती के बाहर मोक्ष प्राप्ति की बात नहीं की" पृष्ट १७५ [44]|इस तरह से ईसाई धर्म के मौलिक सिद्धांत भी विचार की स्वतंत्रता के खिलाफ हैं | बस फर्क इतना है की जिन मोजूदा प्रथाएं का पालन हो रहा है वह ईसाई धर्म की आलोचक जांच का नतीजा है – हम आने वाले हिस्सों में विस्तार से मोजूदा प्रथाएं में अंतर का आंकलन करेंगे |
इसके विपरीत एक बहुदेववादी धर्म में विचार की स्वतंत्रता ज्यादा होगी क्यूंकि वह ऐसे तथ्यों को नहीं मानता की सिर्फ उसे सत्य मालूम है – बाकी सब " न सिर्फ भटके हैं पर हमेशा के लिए सजा और नरक की आग के हक़दार हैं" चैप्टर 5 ,[४१] | हम भगवद गीता , अभी तक सबसे बड़े बहुदेववादी धर्म, हिंदुत्व की प्रमुख धार्मिक किताब से शुरू करते हैं | भगवद गीता में अपने प्रवचन के बाद , कृष्ण आख़री फैसला अर्जुन पर छोड़ते हैं :
इति ते जनानाम अख्यातम गुह्यद गुह्या – तरम माया
विम्र्स्येताद असेसेना याठेच्चासी तथा कुरु [भगवत गीता – १८ .६३]
इसका मतलब है ‘" मेने तुम्हें वो ज्ञान दिया है जो गोपनीय से भी ज्यादा गोपनीय है | इसके बारे में पूर्ण रूप से सोचो और फिर वो करो जो तुम्हें ठीक लगे "[४६]| क्यूंकि कृष्णा को अवतार बताया जाता है , हिंदुत्व में पैगम्बर के बराबर का स्थान , इससे साफ़ ज़ाहिर होता है की हिंदुत्व में एक आदमी को अपनी मर्जी से कार्य करने का हक है और उसके लिए कोई उपरी शक्ति फैसला नहीं लेगी |
जैसे हमने एक पहले के लेख में दलील दी है [66], "हिंदुत्व दुनिया को विश्वासी और काफिरों में नहीं बांटता है | ये तो अब्राह्मी नजरिया है | चाहे आप विश्वास करे या न करें आपके कर्मों का फल सिर्फ आपको मिलेगा और आप उससे बच नहीं सकते | ये हिंदुत्व का विचार है | विश्वास बचने का जरिया नहीं है और न ही अविश्वास सजा मिलने की वजह" | इसिलए हिंदुत्व विचारों के लिए सजा नहीं देता जिसमें वह विचार भी साह्मिल हैं जो उसके मौलिक सिद्धांतों के खिलाफ है | ज़ाहिर है , "हिंदुत्व में स्वधर्म त्याग की कोई धारणा नहीं है | इसलिए इस्लामिक कानून से विपरीत हिन्दू स्वधर्मत्यागियों को मौत या कोई और सजा नहीं देते हैं"|
अंत में हिंदुत्व में कई अलग विचारधाराओं का समायोजन होता है – इनमे से कुछ विचारधाराएं आस्तिक होती हैं कुछ नास्तिक | बिना अपने मौलिक सिद्धांतों से जुदा हुए अलग विचारधाराओं से साक्षात्कार की परंपरा ने बोलने की स्वतंत्रता सुनिश्चित की है | इसके इलावा कई हिन्दुओं ने एक समय पर एक से ज्यादा विचारधाराओं का पालन भी किया है |मसलन बोद्ध चीनी पर्यटक क्सुँन जांग(६२९ -६४५ ऐ डी) ने बताया की राजा हर्षा सार्वजानिक तौर पर सूर्य की पूजा करते थे , शिव को बलि देते थे और बोद्ध प्रयासों को बढ़ावा भी देते थे (पृष्ट १६१ ,[४५])|
परिशिष्ट : कुरान के सहिष्णुता से संबंधित विरोधाभासी कथनों का संकलन
कुरान के कई पद्यों में सहिष्णुता और शांति का पाठ भी पढाया जाता है मसलन २ : २५६ [६०]|" धर्म को अपनाने की कोई मजबूरी नहीं होगी | सही रास्ते को गलत रास्ते से अलग रखना होगा | तो जो ताघुत में अविश्वास और अल्लाह में विश्वास रखता है उसने सबसे विश्वसनीय दस्ते को पकड़ लिया है | और अल्लाह सुनने और जानने का नाम है |"| इसी तरह से १८:25 ,१८:१२६ ,१०९:1-6 विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अनुकूल हैं | पद्य १०९:1-6 कहता है : ओ अविश्वासियो !उसकी पूजा मत करो जिसको तुम मानते हो ; न उसकी पूजा करो जिसे में मानता हूँ | और में भी उसकी पूजा नहीं करूंगा जिसे तुम मानते हो | नहीं तुम उसकी पूजा करो जिसे में मानता हूँ | तुम्हारा धर्म तुम्हारे लिए और मेरा धर्म मेरे लिए |
इस विसंगति को अगर हम उनके प्रवचन के शुरुआती दिनों की पद्यों को पढ़े – मेक्का में जब वह ज्यादा लोकप्रिय नहीं थे – तो अच्छे से समझ सकते हैं | जब वह मदीना आ गए तो इस्लाम की ताकत बढती गयी | इससे पहले के भागों में लिखे पद्य और घटनाएं पैगम्बर की ज़िन्दगी के बाद के दिनों से उठाये गए हैं | जैसे अली दशति लिखते हैं [६८] " इस्लाम के ताकतवर होते ही अविश्वासियों के साथ विनम्र और तर्कसंगत विचार विमर्श को जरूरी नहीं समझा जाने लगा"| मसलन जब पैगम्बर को मेक्का में उनके अपने लोगों ने झूठा ठहराया ,उनको मज़ाक उड़ाकर और अपमानित किया तो उन्होनें मदीना की तरह उनका क़त्ल करने के आदेश नहीं दिए | जो उनके खिलाफ गए उन्हें दैवीय हस्तक्षेप के माध्यम से सजा दी गयी : एक अँधा हो गया और बाकी सब पेट में पानी होने की वजह से , या मामूली घाव के संक्रमण और दुर्घटना(पैर में काँटा चुभना) से ख़तम हो गये |पृष्ट १८७ ,[32]
इसके बाद जैसे प्रोफेसर बुके बता रहे है " कुरान पवित्र किताबों में सबसे अनूठा है क्यूंकि सिर्फ इसमें निराकरण के सिद्धांत को स्वीकार कर पैगम्बर के पहले दिए गए आदेशों को बाद में खारिज कर दिया गया |[६२]उन्होनें कुरान में लिखे ४ ऐसे पद्यो का ज़िक्र किया जो निराकरण के औचित्य को सही ठहराते हैं | इसका मतलब की लडाई के दौरान मदीना में सामने आये पद्य मेक्का में लिखे पद्यो को ख़ारिज कर देंगे , इसीलिए इस भाग में लिखे शांति स्थापना करने वाले पद्यों को पिछले भाग में लिखे हिंसक पद्यों ने खारिज कर दिया है | हर्ष नरेन पृष्ट 55 [६३] ने कदी अबू बकर इब्न अल अरबी (१०७६ ऐ डी का जन्म) ,अरबी के एक ख़ास प्रवचक का कथन बताया है : " जहाँ भी कुरान में माफ़ी देने , भूलने और काफिरों को नज़रंदाज़ करने के बारे में आदेश दिए गए हैं वह सब आदेश तलवार के आदेश से बदल दिए जा रहे है जो है " जब पवित्र महीने बीत जाएँ , काफिर जहाँ भी मिलें उन्हें मार दें और उनको ढूँढ कर , कैद कर सजा दें | पर अगर वह पछता रहे हों और गरीबों को दान दें और पूजा करें तो उनको जाने दो | अल्लाह दयालु और माफ़ी देने वाला है "|