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क्या भारत एक वंशवादी लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहा है ?

1     एक बड़ी भूमिका
इस लेख का जन्म बुद्ध की शाम को उपेन्न में मेरी निगरानी में चल रहे एक एक वैज्ञानिक परियोजना की समीक्षा बैठक से लौटते वक़्त हुआ | ऐसी बैठकें इंजीनियरिंग में शैक्षणिक की ज़िन्दगी में आम हैं ; ये भी एक असाधारण बात नहीं है की मुझे अपने एक पूर्व सहयोगी और वर्तमान प्रोफेसर एमेरिटस के साथ सफ़र करने का मौका मिला | जो जैसे हम उसे बुलाते हैं उपेन्न इंजीनियरिंग के प्रतिष्ठित शिक्षकों में से एक है | उन्होनें उपेन्न के इंजीनियरिंग विभाग के डीन की तरह काम किया है और उसके बाद अमेरिका के राष्ट्रीय विज्ञान फाउंडेशन (एन एस एफ )के  उप निदेशक(एन एस एफ का दूसरा प्रतिष्ठित स्थान ) की तरह लम्बे समय तक काम किया | उनकी योग्यता का मुझे सफ़र से पहले अंदाज़ा था लेकिन ये नहीं पता था की उनके पिता एक बढ़ई थे , जो अपने बेटे की ग्यार्व्हीन सालगिरह मनाने से पहले ही ख़तम हो गए थे |

मैं आपको ये बताना चाहूंगी की अमेरिका में कोई भी बिना ओपचारिक शिक्षा के बढ़ई बन सकता है ,बस  वह सफलतापूर्वक एक योग्य बढ़ई की निगरानी में अपना प्रशिक्षण पूरा करले | जो अपने पूरे परिवार में सबसे पहला स्नातक था : उसकी माँ ठीक से लिख नहीं पाती थी लेकिन अपने उद्यमी बेटे की हर उपलब्धि का जश्न मनाती थी | इसीलिए ये एक चमत्कार ही है की वह एक प्रतिष्ठित संसथान के उच्च अधिकारीयों के स्तर तक और उससे ज्यादा भी पहुँच पाया | लेकिन , मुझे इस बात से हैरानी नहीं होनी चाहिए क्यूंकि अमेरिका ही वो देश जहाँ एक अप्रवासी के बेटे ने बिना किसी पारिवारिक, सामाजिक या आर्थिक ताकत के सबसे उच्च पद संभाला है |

मैं कई बार सोचती हूँ की क्या ये अमेरिकी संस्कृति की विशेषता है जिस वजह से बार बार कम दबके के लोग आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं | शायद ये उस अपमान का नतीजा है जो एक अमेरिकी इंसान के व्यक्तित्व का अहम् अंग है – यहाँ आपके  पद से ज्यादा  नाम को पहचान दी जाती है | हमारे डॉक्टरेट छात्र और प्रशासनिक सहायक शायद ही कभी हमें सर या मैडम कर के संबोधित करते हैं – मेरे निवास स्थान के दरबान भी ऐसा ही करते हैं | मेरे दफ्तर से थोड़ी दूर स्थित स्टारबक्स जहाँ मैं अक्सर जाती हूँ , वहां के लोग मेरे नाम को लेने में तकलीफ महसूस करते हैं – तो वह “स” के इस्तेमाल के बिना मुझे संबोधित करते हैं | दूसरी तरफ भारत में सामाजिक विकास का बस इतना नतीजा निकला है की ओपचारिक शब्द मैडम की जगह दीदी ने ले ली है | ये छोटे लगने वाले तथ्य हमारी सोच पर काफी असर डालते हैं |

मुद्दे से हट कर एक निजी बात बताना चाहूंगी | इंजीनियरिंग  के जो मूल मेने इतने सालों में मेने हासिल किये वह मेरी भारतीय विज्ञान संस्थान पर मास्टर्स की पढाई का नतीजा है | इसीलिए सालों बाद जब में उपेन्न में एक एसोसिएट प्रोफेसर थी , मेने ख़ुशी से मुझे दी गयी छुट्टियों में अपने एक योग्य शिक्षक, जिनसे मुझे पढने का सौभाग्य प्राप्त हुआ , अनुराग कुमार के साथ समय बिताने के निमंत्रण को कबूल कर लिया | आज तक मैं आपको बता सकती हूँ की अनुराग कुमार के साथ हर बैठक से पहले मुझे एक अजीब सा डर सताता था की मुझे किसी गलती के लिए धिक्कारा जाएगा |

ये कोई कहने वाली बात नहीं है की इस डर का कोई वजूद नहीं था , क्यूंकि अनुराग कुमार पारम्परिक मेजबानी से ऊपर उठ एक पूर्व छात्र का आदर करने की कोशिश करते थे | ये भी बताने वाली बात है की मेरे डॉक्टरेट शोध प्रबंध सलाहकार , प्रोफेसर लीन्द्रोस तस्सिउलास , एक और प्रतिष्ठित शिक्षक , जिन्होनें मेरे शैक्षिक विकास में बहुत बड़ा योगदान दिया उनको मेने हमेशा लेओंद्रोस कह कर संबोधित किया है | वह हमेशा से मेरे लिए एक पुराने दोस्त रहे जिससे में कभी भी भोजन या बातचीत के लिए मिल सकती हूँ | ऐसा लगता है की हमारी आपसी बातचीत पर सिर्फ माहौल का नहीं पर राष्ट्रीय पहचान की पूर्व जानकारी का भी असर पढ़ता है |मेरे उपेन्न के दो पूर्व डॉक्टरेट के छात्रों ने कभी भी किसी भी शिक्षक को नाम से नहीं बुलाया जबकि उनके सलाहकार ने उन्हें ऐसा करने के लिए बहुत प्रेरित किया  | इसीलिए ऐसी उम्मीद की जाती है की अमेरिकी माहौल में बड़े हुए छात्र स्वाभाविक तौर पर अधिक विरोधी , मांगें पेश करने  वाले और दबंग होते हैं , फिर चाहे वो गलत ही क्यूँ न हों |

पर जिस विपरीत का मेने ज़िक्र किया वह दो दशक पूर्व नवीन  भारत की मेरी यादों पर आधारित है | जिस आर्थिक उदारीकरण की वजह से विकास  , प्रौद्योगिकी का  प्रसार और मध्यम वर्ग का उदय हुआ उसने हमारे सामाजिक समीकरण को भी बदल दिया है | अमेरिका जाने के करीब एक दशक बाद मुंबई के कॉलेज छात्र अमेरिका के राष्ट्रपति को पाकिस्तान से अंतर्राष्ट्रीय रिश्तों  पर महत्वपूर्ण सवाल करते थे | इसी पीड़ी के लोग अभी भी असली और आभासी ज़रियों और राष्ट्रीय टेलीविजनके माध्यम से बिना झिजके अपने हकों को सामने पेश करते हैं और फायदे की संस्कृति का विरोध करते हैं | इसके बावजूद भी राजनितिक समीकरण में निष्पक्षता और आकांक्षा को अपनाने के बजाय हम एक ऐसी विरासती लोकतंत्र की तरफ अग्रसर हो रहे हैं जहाँ माँ बाप नेतृत्व का भार अपने बच्चों को सौंप देते है | अब हमारे पास जनता से अलग एक वंशानुगत शासक वर्ग है | यहाँ से मेरा लेख शुरू होना चाहिए |

2      वंश की राजनीति
भारत के राजनीतिक समीकरण में ४ मुख्य दल का बोलबाला रहा है :1) कांग्रेस २)भाजपा ३)वाम ४) क्षेत्रीय पार्टियाँ | भारत का सबसे बड़ा दल कांग्रेस लोकतंत्र के मूलों के विपरीत हैं , क्यूंकि उसका मुख्य प्रतिनिधि पिछले ४० सालों से एक ही परिवार से है , बस बीच में कुछ दिनों को छोड़कर जब ये परिवार एक त्रासदी का सामना कर संगठित हो रहा था | इसका  भविष्य भी कुछ ख़ास नहीं है – आगे की पीड़ी में सचिन पायलट, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे बाबा लोग मोजूद हैं – इस शानदार टोली का नेतृत्व परिवार के पुरुष वारिस और मोजूदा कांग्रेस उप अध्यक्ष राहुल गाँधी कर रहे हैं | इसिलए ये हैरानी की बात नहीं है की ४० % प्रतिशत से ज्यादा कांग्रेस एम् पी राजनितिक परिवारों से आते हैं |

क्षेत्रीय दलों की कहानी भी वंश से जुडी है – उत्तर प्रदेश में यादव , महाराष्ट्र में पवार और थाक्केरे , पंजाब में बादल और तमिल नाडू का करूणानिधि परिवार | और जिन दलों का गठन पहली पीड़ी के नेताओं जैसे ममता बनर्जी ने किया भी है उनकी भी सूची में कई वंश कुलीन लोग मोजूद हैं |शायद  वाम दल राजनीती और जैविक विरासत को अलग रखने वाला सबसे सफल दल है | यहाँ मैं उन उदाहरणों की बात नहीं कर रही हूँ जहाँ माँ बाप बच्चों को बढ़ावा देते है और जोड़े ( कराट्स) , एक के बाद एक राजनीती में सफलता हासिल करते हैं और एक दुसरे की मदद भी करते हैं ; क्यूंकि माँ बाप बच्चे के राजनीती में कदम रखने से पहले ही इतने प्रतिष्टित हो जाते हैं की उनके सफ़र को काफी सुगम बना सकें | लेकिन अब वाम सिर्फ कुछ क्षेत्रों में सिमट के रह गया है और वर्तमान की राजनीती में सिर्फ एक आंशिक रूकावट है |

इससे हम बचे हुए एक मात्र राजनितिक विकल्प भाजपा (बीजेपी) पर ठहरते हैं | भाजपा के उच्च नेतृत्व के आवलोकन से हमारी देश  की राजनीति को प्रताड़ित करने वाली वंश राजनीती की बीमारी से उन्मुक्ति दिलाने का एक जरिया नज़र आता है | भाजपा के प्रमुख में शामिल हैं नरेन्द्र मोदी जिन्हें अक्सर उनके राजनितिक प्रतिद्वंदी चाय वाला या घांची कह कर संबोधित करते हैं | लेकिन इन सब सत्यों के बावजूद मोदी की राजनितिक बढ़त लोकतंत्र के लिए एक बड़ी जीत है | अगर मोदी कभी देश के प्रधानमंत्री का पद सँभालते हैं , तो  प्रशाशन के प्रति योगदान के इलावा , उनकी राजनितिक विरासत इस बात का सबूत होगी की बिना अलगाव और जाति-राजनीति को अपनाये क़ाबलियत और योग्यता कम सामाजिक और आर्थिक परिवेश पर जीत सकती है | तब शायद हमारे प्रतिष्टित नेता जिस चाय वाले के यहाँ  जल पान करते हैं उसके व्यवसाय और सामाजिक मूल  को कम समझने से पहले दो बार सोचेंगे |

ये भी एक उत्साहजनक बात है की मोदी भाजपा के इस पीड़ी के नेताओं में अलग नहीं है | मोजूदा भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह , राज्य सभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली , भाजपा के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह, रमण सिंह, मनोहर पर्रिकर और पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल सब इसी श्रेणी में आते हैं | ये सभी भाजपा दिग्गज आर्थिक रूप से वंचित या मध्यम वर्ग  से उठे हैं और इनकी कोई राजनीतिक वंशावली  नहीं है | सिर्फ एक  वसुंधरा राजे सिंदिया हैं – पूर्व भाजपा उपाध्यक्ष विजय राजे सिंदिया की बेटी – और राजस्थान की सबसे लोकप्रिय नेता | ये भी कोई संयोग नहीं हैं की ये सब शैक्षिक योग्यतामें महारथ हासिल किये  हैं और कानून, चिकित्सा और इंजीनियरिंग में व्यावसायिक योग्यता के साथ स्नातकोत्तर डिग्री की मालिक हैं |

अरुण जेटली जैसे कुछ ने कानून पर  किताबें  लिखी है। इससे भी बढ़कर करीबन सभी की कार्यसूची  समावेशी सामाजिक मूल्यों के आधार पर प्रगतिवादी और धर्मनिरपेक्ष प्रशासन पर आधारित है | प्रतिभा योग्यतम व्यक्ति की उत्तरजीविता सुनिश्चित करता है | और अंत में उनके दिग्गज नेता , पितातुल्य लाल कृष्णा अडवानी ने कभी अपने बच्चों के माध्यम से अपनी राजनितिक विरासत को बढ़ाने की कोशिश नहीं की हांलाकि उनकी बेटी उनके राजनीतिक प्रबंधन में उनका हाथ बंटाती हैं | उनकी पार्टी  में मुख्य भूमिका के चलते समकक्षी राजनीती में पुराने उदाहरणों को देखते हुए वह अगर चाहते तो  प्रतिभा अडवाणी को भाजपा में पदोन्नति दिलवा सकते थे और अपनी इस इच्छा को दबाने के लिए उनकी तारीफ़ करनी चाहिए |

काश की में अपने लेख का अंत भाजपा की इस वंश राजनीती को चुनौती देने की मुहीम की तारीफ़ कर ख़तम कर सकती | पर भाजपा के नेताओं की दूसरी पीड़ी का गठन एक अलग कहानी बताता है , इसी बीमारी की  राष्ट्रिय स्तर पर बाकी बचे लोगों में शुरुआत होते दिख रही है | सिर्फ नेताओं के बच्चे ही प्रसिद्द है मसलन धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर भाजपा के युवा शाखा के प्रमुख हैं , कल्याण सिंह, लालजी टंडन, राजनाथ सिंह, प्रेमलता कटियार के बेटे , बेटियां और बहुएं भाजपा के उत्तर प्रदेश के दफ्तर के उच्च पदाधिकारी हैं , प्रमोद महाजन की बेटी भाजपा की राष्ट्रिय सचिव है और जसवंत सिंह और वसुंधरा राजे सिंदिया के बेटों को लोक सभा चुनावों में लड़ने के लिए टिकट दी गयी है | पर शायद इन सब में सबसे प्रसिद्द और सबसे लोकप्रिय हैं भाजपा के गाँधी , वरुण गाँधी | भाजपा में उनकी ज़बर्दस्त बढ़त न सिर्फ प्रणालिकृत खामियों को सामने लाएगी पर ये भी दिखाएगी की राजनीती के जागरूक नाग्रिक् कैसे पक्षपात पर प्रतिक्रिया देते हैं |

वरुण गाँधी का अजीब किस्सा
3.1    ज़बरदस्त बढ़त
वरुण गाँधी दुनिया में शक्तिशाली राजनीतिक वंशों  में से एक, गांधी परिवार के वंशज हैं । उनके परदादा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे , उनकी दादी सबसे शक्तिशाली प्रधान मंत्रियों में से एक थी , और उनके पिता अपनी माँ की विरासत को आगे बढ़ाने वाले थे अगर उनकी एक हवाई हादसे में मौत न होती तो | इसके बाद वरुण की माँ मेनका गाँधी अपने ससुराल वालों से अलग हो गयी और वरुण जबसे छोटे थे तबसे उनकी परवरिश गाँधी परिवार से अलग होने लगी |

इसी बीच उनके चाचा राजीव गाँधी अपने परिवार की प्रधानमंत्री प्रथा को बढ़ाते रहे , उनकी चाची सोनिया गाँधी प्रधानमंत्री न होते हुए अपने द्वारा चुने गए प्रधानमंत्री के माध्यम से  अप्रत्यक्ष रूप से देश को चलाती रही , और उनके भाई राहुल गाँधी को धीरे धीरे वो स्थान दे दिया गया जो बहुत से परिवार के वफादार मानते हैं वरुण का था | मेनका गाँधी भी सार्वजानिक ज़िन्दगी जीती रही लेकिन भाजपा,कांग्रेस का सबसे मज़बूत प्रतिद्वंदी , का भाग बनके | वह एकमात्र भाजपा प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में केन्द्रीय मंत्री बनी और कई सालों से बार बार उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले से संसद के सदस्य की तरह चुनी जा रही हैं |

जैसे ही वरुण गाँधी लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए पात्रता की शर्तों के हिसाब से सही उम्र पर पहुंचे , उन्हें अपनी माँ के क्षेत्र से भाजपा का टिकट दे दिया गया | उन्हें भारी अंतर से जीत हासिल हुई और २००९ में उन्होनें सबसे कम उम्र वाले सदस्य की तरह संसद में भाग लेना शुरू किया | चुनाव से पहले उन्हें अपने भाषणों के माध्यम से सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने के लिए गिरफ्तार किया गया  पर अभी हाल में एक निचली अदालत ने उन्हें बरी कर दिया है | कई लोगों का मानना की उनके भाषणों के कारण मुसलमानों में उत्पन्न भाजपा के लिए नफरत ही उस साल भाजपा की हार का कारण बनी – पर इस बात को साबित करने का  कोई पुख्ता सबूत नहीं है |

एक युवा संसदीय सदस्य होने के नाते वरुण गाँधी ने २०१२ में उत्तर प्रदेश में हुए विधान सभा चुनावों में युवा मतदाताओं को लुभाने की कोई कोशिश नहीं की | ऐसा बताया जा रहा की वह भाजपा के मुख्य चेहरे की तरह पेश न किये जाने पर नाराज़ थे जबकि ये सहूलियत उनके भाई को कांग्रेस में मिल गयी थी | उत्तर प्रदेश चुनावों के ख़तम होने से पहले उन्होनें माना की उनके दल में कोई मुख्य मंत्री के पद के दावेदार हैं ; उनके इस बयान से लोगों का  उनके दल के प्रति जो विश्वास था वह कम हो गया | इसके बावजूद  उन्हें हाल ही में भाजपा के महासचिव के पद पर आसीन किया गया है , अभी तक इस पद पर रहने वालों में सबसे छोटे – वह अभी 32 साल के हैं | पिछले कुछ वक़्त में वह अपने पिता के क्षेत्र सुल्तानपुर में काफी बड़ी रैलीयोँ का संबोधन कर रहे हैं ताकि उनके अपनी पैत्रिक कर्मा भूमि से भावनात्मक  सम्बन्ध फिर से स्थापित हो सके |

3.2    नाम की भूमिका
वरुण गाँधी की व्यापक राजनितिक बढ़त को देखते हुए एक लाज़मी सा सवाल उठता है और वह की इस बढ़त का श्रेय उनकी क़ाबलियत को या  उनके आखरी नाम की ताकत को मिलना चाहिए | मेने कई भाजपा समर्थकों के बीच ट्विटर पर हो रही एक वार्ता पर इस सवाल को पेश किया |इस विषय पर हुई बहस के फलस्वरूप  जो दलीलें पेश की गयीं उनका आवलोकन में करना चाहूंगी | पहले तो में अभी तक ये नहीं समझ पाई हूँ की वरुण गाँधी ने ऐसा कौनसा लक्ष्य हासिल कर लिया था जो उन्हें बिना किसी चुनावी अनुभव या राजनीती के इलावा किसी और क्षेत्र में उपलब्धि के लोक सभा टिकट दे दी गयी | अगर हम उनके आख़री नाम के महत्त्व को कम करना चाहते है तो इस सवाल में स्पष्टता की बहुत ज़रुरत है |

जवाबों को दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है :1) इनसे कम उपलब्धि वाले लोगों को उच्च पद मिले है २) उन्हें जीत हासिल कर पाने लायक समझा गया था | पहले जवाब के उदाहरण में नवजोत सिन्धु , स्मृति ईरानी और नरेन्द्र मोदी के उदाहरण दिए गये  | चुनावी दौड़ से जुड़ने से पहले पहले दो ने अपने क्षेत्रों में उपलब्धियों के माध्यम से देश भर में अपनी एक पहचान बनाई थी – क्या ये लोक सभा टिकट पाने के लिए काफी है ये अभी विवादास्पद है – लेकिन वरुण गाँधी तो ऐसा कोई दावा पेश नहीं कर सकते | मोदी ने मुख्यमंत्री बनने से पहले किसी भी स्तर पर अपना पहला चुनाव ज़रूर लड़ा था | लेकिन उनके पास एक दशक लम्बा पार्टी की सेवा करने का अनुभव था – उनका मध्य ९० के दशक में केशुभाई पटेल के नेतृत्व में  भाजपा की गुजरात में महत्वपूर्ण जीत में  प्रमुख योगदान रहा था | इसके बाद उन्होनें एल के अडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के लिए देशभर में दो सफल यात्राओं का आयोजन किया था – पहली यात्रा में मिली अपार सफलता के बाद ही भाजपा एक बड़ी राष्ट्रिय पार्टी की तरह उभर कर सामने आ पाई | वरुण गाँधी का भाजपा संगठन में योगदान इस पैमाने से मेल नहीं खाता है |

जीतने  की सम्भावना का आंकलन सही है क्यूंकि वरुण गाँधी काफी बड़े अंतर से जीते थे | पर क्या ये पता नहीं की उन्हें जीत उनकी खुद की क़ाबलियत की वजह से नहीं बल्कि उनके आखरी नाम की वजह से मिली थी ? क्या कांग्रेस भी अपने सबसे उच्च पद को एक परिवार के ही  सदस्य के लिए आरक्षित करने और अन्य बाबाओं को शामिल करने के लिए यही दलील नहीं देती है – की गाँधी परिवार का सदस्य पार्टी नेतृत्व के लिए सबसे बढ़िया विकल्प है ? ये भी माना की कुछ लोक सभा सीटों को जन्म के आधार पर देना उस लोकतांत्रिक राजशाही से अलग है जिसका पालन कांग्रेस करती आ रही है |

पर कांग्रेस का ये हाल एक दिन में नहीं हुआ – इंदिरा गाँधी को जवाहरलाल नेहरु का स्वाभाविक वारिस नहीं माना गया था – उनकी विरासत ने उनकी सिर्फ मदद की | सच माने तो परिवार का नाम दुनिया के किसी भी कौने में फायदा करवाता है | अमेरिका में कैनेडी , बुश और क्लिंटन परिवार हैं | पर फिर भी कैनेडी और बुश की संख्या भारत में फैली विरासत के देखे कुछ भी नहीं है | हिलारी क्लिंटन ने अपने पेशे की शुरुआत एक सीनेटर के तौर पर की और वह भी जब उनके पति का अमेरिका के राष्ट्रपति के तौर पर कार्यकाल समाप्त हो गया था , लेकिन उससे पहले उन्हें करीब एक दशक तक अपने पति के राजनितिक दल में जोरदार और लगातार भागीदारी से अपनी राजनितिक क़ाबलियत को साबित करना पड़ा | वरुण गाँधी इस में भी काफी पीछे हैं |

इस बातचीत को आगे बढ़ाते हुए चलिए ये मान लेते हैं की वरुण का  राजनीती में प्रवेश उनके आख़री नाम की वजह से हुआ और ये समझते हैं की क्या वह  अपनी  काबलियत के आधार पर उस ख्याति के हकदार थे जो उन्हें बाद में मिली | सबूत दूसरी तरफ इशारा कर रहे है |वरुण ने ऐसा क्या किया है जो उन्हें सार्वजानिक जीवन में आने के 5 साल के अन्दर ही भाजपा में मुख्य सचिव का पद मिले ?समझने के लिए अमित शाह को ये पद ५० की उम्र पर दिया गया था वो भी 1) कई लगातार राज्य के चुनावों में जीत हासिल करवाने  २) गुजरात के एक मंत्री के रूप में एक लम्बे कार्यकाल ३) कई चुनावों में जहाँ भाजपा को जीत हासिल हुई वहां संचालन में मुख्य योगदान के बाद | वरुण जहाँ तक मैं जानती हूँ बस एक बार लोक सभा सीट जीते हैं | मुझे ये कहा जाता है की युवाओं से जुड़ने में वरुण गाँधी काफी कारीगर साबित होंगे | पर युवाओं से जुड़ने के लिए उम्र महत्वपूर्ण है ? क्या भाजपा का सबसे प्रदर्शित चहरा जो की ६० वे साल में हैं युवाओं से उस तरह से नहीं जुड़ पाता जैसे और लोग जुड़ पाते हैं | ये अभी की ही बात है की उड़ीसा , एक ऐसा राज्य जहाँ भाजपा की पहुँच सीमित है ,के विश्वविद्यालय के प्रमुख संसथान के छात्रों ने मोदी को अपने  दीक्षांत समारोह के मुख्य अतिथि के रूप में निमंत्रण भेजा और जब उनकी गुज़ारिश नहीं मानी गयी तो उन्होनें समारोह को ख़ारिज करने की मांग की |शायद जितने ज्यादा उतना अच्छा | तो फिर क्यूँ भाजपा वरुण की उम्र के और नेताओं जो की अलग मूल से आये हैं को वोही बढ़त और दृश्यता नहीं देती है जैसी वरुण को मिली है ?

मुझे ये भी कहा जाता है की वरुण भीड़ को आकर्षित कर सकते हैं और इसलिए वह भाजपा की चुनावी किस्मत को उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में चमका सकते है जहाँ पिछले एक दशक के चुनावी फैसले भाजपा के हक़ में नहीं हुए है | एक बार फिर  हमने कांग्रेस को राहुल गाँधी के पक्ष में यही दलील देते  नहीं देखा जब उन्हें  उत्तर प्रदेश चुनावी अभियान का नेतृत्व करने के लिए कहा गया था – वह भी तो भीड़ को आकर्षित कर सकते हैं ! राहुल गाँधी  उत्तर प्रदेश में नहीं जीत पाए -अमेठी और रायबरेली के मज़बूत पारिवारिक गढ़ में उनकी बहन , जीजा , और छोटे भांजा भांजी को लाने के बावजूद भी उनके कई उम्मीदवारों को हार का सामना करना पड गया |मतदाताओं ने इसलिए उन्हें ठुकरा दिया क्यूंकि वह इस बात का विश्वास नहीं दिला पाए की उनकी पार्टी  विकास के एक नए युग की शुरुआत करेगा – उन्होनें आक्रामक और नाकाम तरीके से अपनी एकमात्र ताकत को ही  दर्शाया , गाँधी का नाम | उन्होंने उत्तर प्रदेश के नागरिकों को उन पर वही विश्वास रखने के लिए कहा जो उन्होनें इससे पहले उनके पूर्वजों पर रखा था | गाँधी वारिस को ये अहसास नहीं हुआ की भारत विकसित हो गया है – न तो वह उसकी दादी का और न ही उसके बाप का – वह अब उसकी उम्र का है | क्या यही समझदारी उसके छोटे भाई को अभी तक नहीं आई है ? फिर क्यूँ वह अपने बाप की कर्म भूमि और अपनी निजी त्रासदी को चुनावी मुद्दा बना रहा है ? शायद इसलिए क्यूंकि काबलियत के बजाय बड़े परिवार में जन्म उसकी भी प्रमुख ताकत है | इतिहास उन पर दया नहीं दिखाती जो उससे सबक नहीं सीखते हैं |

3.3    वारिसों के लिए स्तर
जिनसे मेरी बहस हुई वह वरुण  गाँधी की बढ़त पर एतराज़ नहीं करते हैं क्यूंकि उन्हें अभी तक प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं किया गया है | लेकिन उनके भाई का उदाहरण देखें तो उन्हें राजनीति में कदम रखने से पहले से ही युवराज की तरह संबोधित किया गया है | यही तो भ्रम है | असमानता की हमारी सहनशीलता इतनी बढ गयी है की लोकतान्त्रिक मूल्यों का जब तक अपमानजनक उल्लंघन नहीं होता  हम सब स्वीकार कर लेते हैं | इसी सोच के चलते वरुण पर उठी कोई भी बहस हमें युवराज से उनकी समानता की तरफ ले जाती है | कई दक्षिण पंथी जो वरुण का समर्थन करते हैं  वह दुसरे गाँधी से  उनकी श्रेष्टता की दलीलें देते हैं | वरुण मेरा मानना है वाकई में अपने भाई से बेहतर  राजनीतिज्ञ है | उन्होनें संसद की  कार्यप्रणाली और कानून गठन  में सक्रीय रूप से योगदान दिया है , उस वारिस से भिन्न जो बहुत कम संसद आता है और जब आता है तो काफी बेपरवाह लगता है | वह एक बेहतरीन वाचक है और अपने साक्षात्कारों में विचार और अभिव्यक्ति की स्पष्टता का प्रदर्शन करता है |

उन  तक पहुंचना भी आसान है और झट से सोशल मीडिया के माध्यम से वह जवाब देते हैं अपने भाई से विपरीत जो की सिर्फ गरीबी का प्रदर्शन करने के लिए पहले से सोची हुई जगहों पर जाते हैं | उन्हें मेहनत भी अपने भाई के देखे  ज्यादा करनी पड़ेगी | पर इन वारिसों के लिए हमारी उम्मीद का स्तर कम नहीं हो गया है ? एक ऐसी पार्टी जिसने अभी तक वंशवाद को नहीं अपनाया उसके समर्थक वरुण गाँधी को एक नेता की तरह कबूल कर लेंगे – सिर्फ इसीलिए क्यूंकि उन्होनें उस नाकाबलियत का प्रदर्शन  नहीं किया है जैसे उनके भाई नहीं किया है | क्या वह ये नहीं पूछेंगे की उनकी तुलना उन २० से ३० साल के राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी युवाओं से कैसे कर सकते हैं जो अपनी मेहनत से ऊपर पहुंचे हैं क्यूंकि उनका  आख़री नाम वंशवादी नहीं है |२०१२ में उत्तरप्रदेश की चुनावी नतीजों के बावजूद कुछ लोगों ने कहा की गाँधी नाम ग्रामीणों के दिमाग को प्रभावित करेगा और  भाजपा के पास बेहतर गाँधी है | भारतीय लोकतंत्र की त्रासदी यही है की एक पारंपरिक रूप से गैर वंशवादी पार्टी के कई समर्थक भी जिनको जन्म के बल पर दिए गए फायदों से घृणित होना चाहिए ने भी अपने मन में इसे सही मान लिया है |

 4      प्रस्तावना
अगर भविष्य में झांकें तो आज से एक या दो दशक के बाद इन वन्श्वादियों को मिले  पर्याप्त प्रतिस्पर्धी लाभ के चलते मोदी , जेटली ,चौहान और पर्रीकर क्या फिर भी सामने आयेंगे ?संकेत अशुभ हैं क्यूंकि दक्षिण पंथि ये उम्मीद लगा रहे है की २०१७ के उत्तर प्रदेश के चुनावों में वरुण गाँधी को भाजपा के मुख्य मंत्री उम्मीदवार की तरह पेश किया जाएगा |   ये फिर वंशों की लड़ाई हो जाएगी , राजकुमारों की बीच का युद्ध , जहाँ एक तरफ समाजवादी पार्टी का नेतृत्व यादव गुट के अखिलेश करेंगे , कांग्रेस का चेहरा राहुल गाँधी और भाजपा के मुख्य मंत्री उम्मीदवार वरुण गाँधी उनको चुनौती देंगे ! पहली पीड़ी की एकमात्र मुख्यमंत्री दावेदार होंगी मायावती , जिससे मतदाताओं को वन्श्वदियों में से ही  किसी को चुनना होगा |

क्या हम भारतीय लोकतंत्र को इस अंत से बचा सकते हैं जहाँ मतदाताओं के पास चुनने के लिए एक वंशानुगत शासक वर्ग रह जाएगा ? और कैसे ? ज़ाहिर है राजनेताओं के वंशजों की अपने माँ बाप के क़दमों पर चलने की इच्छा को हम वंशवादी भागीदारी पर पूर्ण रूप से प्रतिबन्ध लगा कर रोक नहीं सकते है | समाज वकीलों, डॉक्टरों और सैनिकों की पीढ़ियों के लिए अनुमति देता है; तो राजनीति में फर्क क्यूँ हो ? वो इसीलिए क्यूंकि बाकी सब में मिलती जुलती पेशेवर प्रशिक्षण लेने की ज़रुरत होती है और परिवार के नाम के इलावा योग्यता भी ज़रूरी होती है | मसलन एक वकील वकालत तब कर सकता है जब उसने कॉलेज की शिक्षा के बाद कानून की स्नातक हासिल कर ली हो जिसमे मूल का कोई लेना देना नहीं है | इसीलिए मुद्दा ये है की एक ऐसा प्रवेश प्रक्रिया बनाई जाये जो न सिर्फ अनुकूल हो अपितु  मूल को ज्यादा महत्त्व न दे |

शायद भारत अमेरिकी प्रणाली को अपना सकता हैं जहाँ पार्टी सदस्य – प्राइमरीज के बीच में चुनाव करा हर कानून बनाने वाली एकाई और संवैधानिक पदाधिकारी (कांग्रेस, सीनेट, राज्यपाल, राष्ट्रपति) के प्रतियोगियों का निर्धारण किया जाता है | अमेरिका के वंशवादी – बुश , कैनेडी और क्लिंटन को अपने सम्बंधित संवेधानिक पदों के लिए लड़ने से पहले पार्टी प्राइमरीज के रास्ते से गुज़रना पड़ा था | और ऐसे ही एक कठिन मुकाबले में कम लोकप्रिय बैरक ओबामा ने पूर्व राष्ट्रपति क्लिंटन की पत्नी को हरा दिया था | इन वन्श्वादियों की पहचान की वजह से उन्हें फिर भी एक पीड़ी वाले नेताओं पर प्राथमिकता दी जायेगी | पर क्या एक माध्यम वर्गीय परिवार में जन्म लेने से मुझे शैक्षिक सफलता हासिल करने में आसानी नहीं हुई , सोचिये अगर में एक १० बच्चों वाले गरीब परिवार में जन्म लेती ? इसी तरह से शैक्षिक सफलता मेरे लिए और भी आसान होती अगर में एक करोडपति के यहाँ जन्म लेती | इसलिए कोई भी सामाजिक ढांचा मौके की बराबरी सुनिश्चित नहीं करता , लेकिन एक समान संरचना विशिष्टता को ज़रूर कम कर सकता है|

में इस लेख का अंत इस चिंता के साथ करती हूँ की राजनितिक परिवार और अन्य सदस्यों के पास उपलब्ध साधनों में फर्क के कारण प्राइमरीज भी कभी न कभी वंशवादी हो जायेंगे | इसलिए हमें कुछ बुनियादी बदलाव करने की ज़रुरत है : राजनीतिक धन  की पारदर्शिता और चुनाव सुधार | शायद प्राइमरीज राजनीतक सत्ता की तरफ बराबरी का हक़ दे एक अच्छी नयी शुरुआत करा सकें |

Source: http://blogs.swarajyamag.com/2013/05/27/is-india-headed-to-a-dynastic-democracy

सास्वती सरकार के लेख

Shivam
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उत्कृष्ट संस्थानों पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय का आक्रमण मंजिल महाकारण स्मृति ईरानी विवाद और एक बौद्धिक पारिस्थितिक तंत्र का केस प्रधान मंत्री जी हमें हमारी विरासत लौटा दें : नेताजी की जानकारी को सार्वजानिक कर दें | भाजपा बंगाल पर उम्मीद न छोडें इस्लाम में सोच और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है [भाग 1] इस्लाम में सोच और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है [भाग 2] क्रांतिकारियों बनाम गांधी: भारतीय राष्ट्रवाद में मौलिक संघर्ष क्या भारत एक वंशवादी लोकतंत्र की तरफ बढ़ रहा है ? दक्षिण एशिया में लापता हिंदुओं और मौन की साजिश नरेंद्र मोदी और ध्रुवीकरण का भ्रम ज़हीर जन्मोहम्मेद के लिए