मूल
पुनर्जन्म के इस विचार के जन्म का मूल अभी अस्पष्ट है | इस विषय पर बातचीत भारत की दार्शनिक परम्पराओं(सिन्धु घाटी शामिल) में दिखाई देती है | सोक्रेटस के समय से पूर्व ग्रीक भी पुनर्जन्म के मुद्दे पर बातचीत करते थे और अपने समय के सेल्टिक ड्र्यूड भी पुनर्जन्म का पाठ पढ़ाते थे | पुनर्जन्म से जुड़े विचार कई क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से उभरे होंगे या सांस्कृतिक संपर्क के माध्यम से विश्व भर में फ़ैल गए होंगे | सांस्कृतिक संपर्क का समर्थन करने वाले सेल्टिक , ग्रीक और वैदिक विचारधाराओं और धर्म में सम्बन्ध ढूंढ रहे हैं , और कुछ तो ये भी कहते हैं की पुनर्जन्म में विश्वास प्रोटो-इंडो-यूरोपीय धर्म में भी मोजूद था |
१९ से २० सदी
१९ सदी तक दार्शनिक स्चोपेनहौएर और नीत्ज्स्चे पुनर्जन्म की धारणा आर बहस करने के लिए भारतीय ग्रंथों का इस्तेमाल कर पा रहे थे | शुरुआती २० सदी में पुनर्जन्म में रूचि मनोविज्ञान की शुरुआती शिक्षा का हिस्सा थी , खास तौर से विलियम जेम्स के प्रभाव की वजह से जिन्होनें मन के दर्शन, तुलनात्मक धर्म, धार्मिक अनुभव के मनोविज्ञान और अनुभववाद की प्रकृति के विचारों को सबके सामने पेश किया |इस समय पुनर्जन्म की धारणा की लोकप्रियता को थियोसोफिकल सोसाइटी के व्यवस्थित और सवतसुलभ भारतीय अवधारणाओं की शिक्षा ने और द गोल्डन डौन जैसी समितियों के प्रभाव से बढ़ावा मिला | प्रसिद्द शक्सियत जैसे एनी बसंत , डब्लू .बी .यीट्स और डीओं फार्च्यून ने इस विषय को पूर्वी संस्कृति से ज्यादा पश्चिम संस्कृति का एक अभिन्न अंग बना दिया | १९२४ तक ये विषय बच्चों की किताबों में मजाक का विषय बन गया |