नौवां भाग : बयान - 11
मायारानी ने गोपालसिंह को मारने के लिए जैसे ही खंजर उठाया, वैसे ही नागर ने फुर्ती से उसकी कलाई पकड़ ली और कहा -
नागर - ठहरो - ठहरो! जल्दी न करो, आखिर ये लोग तुम्हारे कब्जे में तो आ ही चुके हैं और अब किसी तरह छूटकर जा नहीं सकते। फिर बिना अच्छी तरह विचार किए जल्दी करने की क्या आवश्यकता है। क्या जाने, सोचने-विचारने से कुछ विशेष लाभ की सूरत ध्यान में आवे।
मायारानी - (रुककर) तुम्हारा कहना ठीक है, परन्तु यदि दुश्मन कब्जे में आ जाय तो उसके मारने में विलम्ब करना उचित नहीं है। इसी (गोपालसिंह) को जब मैंने कैद किया था तो इसके मारने के विषय में सोच-विचार करते-करते वर्षों बिताए और अन्त में इस विलम्ब का क्या नतीजा निकला सो देख ही रही हो, उस विलम्ब ही के कारण आज मैं फकीरिन होकर भी... (गला भर आने के कारण रुककर) आज ईश्वर ने मुझ पर कृपा की है और दुश्मनों को मेरे कब्जे में कर दिया है। ताज्जुब नहीं कि इनके मारने में देर तथा सोच-विचार करने का वही नतीजा हो जो पहले हो चुका है।
नागर - ठीक है और मैं भी इसी में प्रसन्न हूं कि जहां तक हो सके ये लोग शीघ्र मार डाले जायं। अहा, कमलिनी के सहित गोपालसिंह का फंस जाना क्या कम खुशी की बात है, और फिर इन दोनों के साथ ही बेईमान भूतनाथ का भी...!
मायारानी - (बात काटकर) आ फंसना, जिसने मेरे साथ सख्त दगा की थी, कम खुशी की बात नहीं है।
नागर - बेशक, परन्तु मैं इन कम्बख्तों की जान ले लेने में विशेष विलम्ब करने के लिए नहीं कहती, हां इतनी देर तक रुक जाने के लिए अवश्य कहती हूं जितनी देर में हम लोग इस बात को बखूबी सोच लें कि इन दुष्टों को मारने के बाद इस सुरंग का भेद मालूम न होने पर भी हम लोग यहां से निकल जा सकेंगे या नहीं?
मायारानी - क्यों, क्या हम लोगों को यहां से निकल जाने में किसी तरह की रुकावट हो सकती है क्या हम लोगों ने भूतनाथ और देवीसिंह की बातें उस समय अच्छी तरह नहीं सुनीं जिस समय दोनों सुरंग में उतर चुके थे क्या उसी रीति से सुरंग का दरवाजा न खुल सकेगा जिस रीति से बन्द किया गया है?
नागर - इन बातों का ठीक-ठीक जवाब मैं नहीं दे सकती, बल्कि इन्हीं बातों पर विचार करने के लिए कुछ देर तक ठहरने को कहती हूं।
मायारानी - (खंजर म्यान में रखकर और कुछ सोचकर) अच्छा-अच्छा, कुछ देर ठहर जाने में कोई हर्ज नहीं है, इन सभी की बेहोशी यकायक दूर नहीं हो सकती, चलो, पहले उस दरवाजे को खोलकर देखें कि वह खुलता है या नहीं।
इतना कहकर नागर को साथ लिए हुए मायारानी सुरंग के दरवाजे की तरफ बढ़ी। जब उस लोहे के खम्भे के पास पहुंची जिस पर वह गरारीदार पहिया था जिसे घुमाकर भूतनाथ ने सुरंग का दरवाजा बन्द किया था तो रुकी और नागर की तरफ देखकर बोली, ''इसी पहिए को घुमाकर भूतनाथ ने दरवाजा बन्द किया था।''
नागर - जी हां, अब इसी पहिये को उल्टा घुमाकर देखना चाहिए कि दरवाजा खुलता है या नहीं।
मायारानी - अच्छा, तुम्हीं इस पहिये को घुमाओ।
नागर ने उस पहिये को कई दफे उल्टा घुमाया और वह बखूबी घूम गया, इसके बाद दोनों औरतें यह देखने के लिए सीढ़ी पर चढ़ीं कि दरवाजा खुला या नहीं, मगर दरवाजा ज्यों-का-त्यों बन्द था। मायारानी को बहुत ताज्जुब हुआ और वह घबड़ायी-सी होकर नीचे उतर आई और नागर की तरफ देखकर बोली, ''तुम्हारा सोचना ठीक निकला।''
नागर - इसी से मैंने आपको रोका था, यदि आप जोश में आकर इन सभी को मार डालतीं तो फिर हम लोग भी इसी सुरंग में मर मिटते।
मायारानी - बेशक-बेशक। (कुछ सोचकर) अच्छा, एक बार उधर चलकर देखना चाहिए जिधर से यह (गोपालसिंह) आया है, शायद उधर का दरवाजा खुला हो।
नागर - चलिए देखिए, शायद कुछ काम निकले। मगर ताज्जुब नहीं कि लौटने तक इन लोगों की बेहोशी जाती रहे।
मायारानी - हां, ऐसा हो सकता है। अच्छा, तो इन लोगों के हाथ-पैर कसकर बांध देने चाहिए जिससे यदि बेहोशी जाती भी रहे तो कुछ न कर सकें।
नागर ने उन सभी को अच्छी तरह गौर से देखा जो उस जगह बेहोश पड़े थे। भूतनाथ और देवीसिंह की कमर में कमन्द मौजूद थे, उन्हें खोल लिया और दोनों ने मिलकर उन्हीं कमन्दों से भूतनाथ, देवीसिंह, कमलिनी, लाडिली और गोपालसिंह के हाथ-पैर बेरहमी के साथ खूब कसकर बांध दिए और इसके बाद दोनों औरतें उसी तरफ चलीं जिधर से कमलिनी और लाडिली को साथ लिए हुए राजा गोपालसिंह आये थे।
मायारानी और नागर मोमबत्ती की रोशनी में स्याह पत्थरों को बचाती हुई उस दरवाजे के पास पहुंचीं जिसे खोलकर राजा गोपालसिंह आए थे। यह वही दरवाजा था जिसमें अक्षरों वाले कील जड़े हुए थे और किसी अनजान आदमी से इसका खुलना बिल्कुल ही असम्भव था। मायारानी ने इसको खोलने का बहुत-कुछ उद्योग किया, मगर कुछ काम न चला। लाचार होकर उसने तरद्दुद और घबड़ाहट की निगाह नागर पर डाली।
नागर - मेरा सोचना बहुत ठीक निकला। यदि वे लोग मार डाले जाते तो निःसन्देह हम दोनों की मौत भी इसी सुरंग में हो जाती।
मायारानी - सच है, मगर अब क्या करना चाहिए जहां तक मैं सोचती हूं, इसके जवाब में तुम यही कहोगी कि इनमें से किसी को होश में लाकर जिस तरह बन पड़े, दरवाजा खोलने की तरकीब मालूम करनी चाहिए।
नागर - जी हां, क्योंकि सिवाय इसके कोई दूसरी बात ध्यान में नहीं आती।
मायारानी - खैर, यदि ऐसा हो भी जाय अर्थात् इन पांचों में से किसी को होश में लाने और डराने-धमकाने से दरवाजा खुलने का भेद मालूम हो जाय तो फिर क्या किया जायगा मैं समझती हूं कि तुम यही कहोगी कि दरवाजे का भेद मालूम होने के बाद इन पांचों को कत्ल कर देना चाहिए।
नागर - नहीं, मेरी यह राय नहीं है, बल्कि मैं इन लोगों को उस समय तक कैद में रखना मुनासिब समझती हूं जब तक कि रिक्तग्रन्थ और अजायबघर की ताली, जो तुमने भूतनाथ को दे दी है, अपने कब्जे में न आ जाय।
मायारानी - ओफ! मैं वास्तव में सैकड़ों आफतों में घिरी हुई हूं। (कुछ सोचकर) खैर, कोई चिन्ता नहीं है। देखो तो, क्या होता है। मैं इन लोगों को जीता कदापि न छोड़ूंगी। (रुककर) हां, जरा ठहरो, इन पांचों में से किसी को होश में लाने के पहले सभी की तलाशी अच्छी तरह ले लेनी चाहिए। ताज्जुब नहीं कि रिक्तग्रन्थ और अजायबघर की ताली भी इन लोगों में से किसी के पास हो।
नागर - हां, मुमकिन है कि वे दोनों चीजें इन लोगों के पास हों। अच्छा, चलो, सबसे पहले यही काम किया जाय।
नागर को साथ लिए हुए मायारानी फिर उस जगह पहुंची जहां गोपालसिंह और भूतनाथ वगैरह बेहोश पड़े थे। हम ऊपर लिख आये हैं कि राजा गोपालसिंह और भूतनाथ के पास जो तिलिस्मी खंजर था, वह मायारानी ले चुकी है। एक खंजर उसने अपने पास रखा और दूसरा नागर को दे दिया। फिर उसने सबसे पहले भूतनाथ के बटुए की तलाशी ली, मगर उसमें कोई ऐसी चीज न निकली जो मायारानी के काम की होती। यद्यपि तरह-तरह की दवाओं और मसालों से भरी हुई कई खूबसूरत डिबियाएं नजर आर्ईं, मगर उनका गुण न मालूम होने के कारण मायारानी के लिए वे बिलकुल ही बेकार थीं। जब बटुए में से अपने मतलब की कोई चीज न पाई तो कमर और कपड़ों की जेबें आदि भी अच्छी तरह टटोलीं, मगर उससे भी कुछ काम न चला। अन्त में उदास होकर वह राजा गोपालसिंह की तरफ लौटी और उनकी तलाशी लेने लगी।
ऊपर का नौवां भाग : बयान पढ़ने से पाठकों को मालूम ही हो चुका होगा कि अजायबघर की ताली, जो मायारानी ने भूतनाथ को दी थी, वह राजा गोपालसिंह ने भूतनाथ से ले ली थी। इस समय वही अजायबघर की ताली राजा गोपालसिंह के पास थी जो तलाशी लेने के समय मायारानी के हाथ लगी। ताली पाकर वह बहुत खुश हुई और नगार की तरफ देखकर बोली -
मायारानी - लीजिए, अजायबघर की ताली तो मिल गई। अब कोई परवाह नहीं। यद्यपि मुझे मालूम हो चुका है कि मेरी फौज मुझसे बिगड़ गई, मेरा दीवान मुझसे दुश्मनी करने को तैयार है, तुम्हारे मकान का भेद वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों को मालूम हो चुका है और इस सबब से मुझे रहने के कोई ठिकाना नहीं है, मगर अब अजायबघर की ताली मिल जाने से मुझे बहुत-कुछ भरोसा हो गया। मैं अब खुशी से दारोगा वाले बंगले में रहकर अपने दुश्मनों से बदला ले सकती हूं, फौजी सिपाहियों के दिल से शक दूर करके अपना रुआब जमा सकती हूं और उन्हें ठीक करके अपने ढर्रे पर ला सकती हूं। कम्बख्त दीवान को भी सजा देना कोई बड़ी बात नहीं है। इसके सिवाय तिलिस्मी खंजर की बदौलत मुश्किल से मुश्किल काम सहज ही कर सकूंगी!
नागर - ठीक है, अच्छा देखिये, शायद रिक्तग्रंथ भी इन लोगों में से किसी के पास हो।
मायारानी ने फिर तलाशी लेना शुरू किया। गोपालसिंह के बाद कमलिनी, लाडिली और देवीसिंह की भी तलाशी ली, मगर रिक्तग्रंथ (खून से लिखी किताब) का पता न लगा और न कोई ऐसी चीज ही मिली जो मायारानी के मतलब की होती। आखिर लाचार होकर यह निश्चय किया कि भूतनाथ को होश में लाकर और डरा-धमकाकर दरवाजा खोलने की तरकीब जाननी चाहिए। मायारानी की आज्ञानुसार नागर ने अपने बटुए में से लखलखा निकाला और भूतनाथ को सुंघाने के लिए आगे बढ़ी ही थी कि सुरंग के सिरे पर (जिधर से भूतनाथ और देवीसिंह के पीछे-पीछे मायारानी और नागर आई थीं) रोशनी दिखाई दी। नागर ने भूतनाथ को लखलखा सुंघाने के लिए जो हाथ बढ़ाया था रोक लिया, लखलखे की डिबिया जमीन पर रखकर तिलिस्मी खंजर म्यान से निकाल लिया, और अपने हाथ की मोमबत्ती बुझाकर मायारानी से बोली, ''देखिये मैंने मोमबत्ती बुझाकर अंधेरा कर दिया, अब आप इधर-उधर मत हटिये, कहीं ऐसा न हो कि स्याह पत्थर पर पैर पड़ जाय और आप भी तिलिस्मी खंजर अपने हाथ में ले लीजिए, ताज्जुब नहीं कि यह आने वाला हम लोगों का दुश्मन और वीरेन्द्रसिंह का कोई ऐयार हो।''
मायारानी - (तिलिस्मी खंजर के कब्जे पर हाथ रखके) यद्यपि तुमने मोमबत्ती बुझा दी है, मगर उस आने वाले की नजर पहले ही इस रोशनी पर पड़ चुकी होगी। (गौर से देखकर) मगर मुझे तो मालूम होता है कि यह हमारे दारोगा साहब हैं, जिन्हें हम लोग बाबाजी भी कहते हैं।
नागर - शक तो मुझे भी होता है। (रुककर), हां, अब वे कई कदम आगे बढ़ आये हैं। इससे उनकी दाढ़ी और जटा साफ दिखाई दे रही है। ठीक है निःसन्देह यह दारोगा साहब ही हैं! न मालूम राजा वीरेन्द्रसिंह की कैद से ये क्योंकर निकल आये! इनका छूट आना हम लोगों के लिए बहुत अच्छा हुआ!
मायारानी - बेशक, इनके छूटकर चले आने से मुझे खुशी होती, अगर वे इस समय यहां न आते, क्योंकि गोपालसिंह के बारे में मैंने लोगों को जो कुछ धोखा दिया है, इसकी खबर इन्हें भी नहीं है, इसलिए ताज्जुब नहीं कि गोपालसिंह को यहां देखकर दारोगा साहब जोश में आ जायें और मुझसे थुक्काफजीती करने के लिए तैयार हो जायें, क्योंकि इनके दिल में राजा की बहुत मुहब्बत थी। ओह, इस समय इनका यहां आना बहुत ही बुरा हुआ। खैर, तू होशियार रहना। इस तिलिस्मी खंजर का गुण इन्हें मालूम न होने पाये और न गोपालसिंह के बारे में कुछ -।
नागर - बहुत अच्छा, मैं कुछ भी नहीं बोलूंगी। लीजिये, अब वे बहुत पास आ गए। बेशक, दारोगा साहब ही हैं। अब अगर हम भी मोमबत्ती जला लें तो कोई हर्ज नहीं।
मायारानी - कोई हर्ज नहीं।
ऊपर लिखी बातें मायारानी और नागर में बहुत चुपके और जल्दी के साथ हुईं। नागर ने मोमबत्ती जलाई और इसके बाद दोनों औरतें आगे अर्थात् दारोगा की तरफ बढ़ीं। दारोगा ने भी इन दोनों को पहचाना और जब वह मायारानी के पास पहुंचा तो हंसकर बोला, ''ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि मैं राजा वीरेन्द्रसिंह के कब्जे से निकलकर चला आया और तुमको राजी-खुशी अपने सामने देख रहा हूं।''
मायारानी - (बनावटी हंसी के साथ) आपके छूट आने की मुझे हद से ज्यादा खुशी हुई। इधर थोड़े दिनों से मैं तरह-तरह की मुसीबतों में पड़ी हूं, जिसकी कुछ भी आशा न थी और यह सब आपके न रहने से ही हुआ।
दारोगा - हां, मुझे भी बहुत-सी बातों का पता लगा है। इस समय जब मैं अपने बंगले में पहुंचा तो वहां लीला और कई लौडियों को पाया। बहुत-सा हाल तो वहां लीला की जुबानी मालूम हुआ, यह भी उसी से सुना कि टीले पर दो आदमियों को आते देखकर मायारानी और नागर भी उसी तरफ गई हैं। यही सुनकर मैं भी इस सुरंग में आया हूं, नहीं तो मुझे यहां आने की कोई जरूरत न थी।
मायारानी - जी हां, मैं वीरेन्द्रसिंह के ऐयार भूतनाथ और देवीसिंह के पीछे-पीछे यहां आई। इस सुरंग का भेद मुझे कुछ भी मालूम न था। और आपने भी इस विषय में आज तक कुछ नहीं कहा था, भूतनाथ ने सुरंग का दरवाजा खोला और उसके पीछे-पीछे छिपकर मैं यहां तक चली तो आई, मगर यहां से किसी तरह निकल नहीं सकती हूं। क्योंकि भूतनाथ ने सुरंग के अन्दर आकर दरवाजा बन्द कर दिया था और अब मुझसे वह दरवाजा किसी तरह नहीं खुल रहा है। ईश्वर ने बड़ी कृपा की जो इस समय आपको यहां भेज दिया, चलिए पीछे हटिये, पहले मुझे दरवाजा खोलने की तरकीब बता दीजिए, और कुछ बातचीत पीछे होगी।
दारोगा - (हंसकर) अब तो मैं आ ही चुका हूं, तुम क्यों घबड़ाती हो पहले यह तो बताओ कि वे दोनों ऐयार कहां हैं, जिनके पीछे-पीछे तुम यहां आई थीं?
इस समय मायारानी की विचित्र अवस्था थी। वह मुंह से बातें तो कर रही थी मगर दिल में यही सोच रही थी कि किसी तरह राजा गोपालसिंह का भेद छिपाना चाहिए, जिसमें बाबाजी (दारोगा) को यह न मालूम हो कि मैंने वर्षों से गोपालसिंह को कैद कर रखा था, मगर इसके बचाव की कोई सूरत ध्यान में नहीं आती थी। वह अपने उछलते हुए कलेजे को दबाने की कोशिश कर रही थी, मगर वह किसी तरह दम नहीं लेता था। उसके चेहरे पर भी खौफ और तरद्दुद की निशानी पाई जाती थी। जो उस समय और भी ज्यादा हो गयी, जब बाबाजी ने यह कहा - ''वे दोनों ऐयार कहां हैं जिनके पीछे-पीछे तुम यहां आई थीं' आखिर लाचार होकर मायारानी ने बातें बनाकर अपना काम निकालना चाहा और अपने को अच्छी तरह संभालकर बातचीत करने लगी।
मायारानी - (पीछे की तरफ इशारा करके) वे दोनों ऐयार उधर पड़े हुए हैं। मैंने अपनी हिकमत से उन्हें बेहोश करके छोड़ दिया है। केवल वे दोनों ही नहीं, बल्कि कमलिनी और लाडिली भी मय एक ऐयार के मेरे फन्दे में आ पड़ी हैं जिनसे यकायक इसी सुरंग में मुलाकात हो गई थी।
बाबाजी - (चौंककर) कमलिनी और लाडिली!
मायारानी - जी हां, शायद आपने अभी तक सुना नहीं कि लाडिली भी कमलिनी से मिल गई।
बाबाजी - ओफ! यह खबर मुझे वहां क्योंकर मिल सकती थी, क्योंकि मैं ऐसे तहखाने में कैद था, जहां हवा का भी जाना मुश्किल से हो सकता था। खैर चलो, मैं जरा उन ऐयारों की सूरत तो देखूं।
अब बाबाजी उधर बढ़े जहां राजा गोपालसिंह, कमलिनी, लाडिली और दोनों ऐयार बेहोश पड़े थे। बाबाजी के पीछे-पीछे मायारानी और नागर भी स्याह पत्थरों को बचाती हुई उसी तरफ बढ़ीं। वहां की जमीन में बनिस्बत सफेद पत्थरों के स्याह पत्थर की पटरियां (सिल्ली) बहुत कम चौड़ी थीं। यद्यपि बाबाजी से मायारानी डरती-दबती और साथ ही इसके उनकी इज्जत और कदर भी करती, परन्तु इस समय उसकी अवस्था में फर्क पड़ गया था। वह धड़कते हुए कलेजे के साथ चुपचाप बाबाजी के पीछे जा रही थी। मगर अपना दाहिना हाथ तिलिस्मी खंजर के कब्जे पर, जो अब उसकी कमर में था, इस तरह रखे हुए थी, जैसे उसे म्यान से निकालकर काम में लाने के लिए तैयार है। शायद इसका सबब यह हो कि वह बाबाजी पर वार करने का इरादा रखती थी। क्योंकि उसे निश्चय था कि राजा गोपालसिंह को देखते ही बाबाजी बिगड़ खड़े होंगे और एक गुप्त भेद का, जिसकी उन्हें खबर तक न थी, पता लग जाने के कारण उसकी लानत और मलामत करेंगे। साथ ही इसके बाबाजी की चाल भी बेफिक्री की न थी, वह भी कनखियों से पीछे अगल-बगल देखते जाते थे और हर तरह से चौकन्ने मालूम पड़ते थे।
जब बाबाजी उन लोगों के पास आ पहुंचे, तो मोमबत्ती की रोशनी में एक-एक को अच्छी तरह देखने लगे। जब उनकी निगाह राजा गोपालसिंह पर पड़ी तो वे चौंके और मायारानी की तरफ देखकर बोले, ''हैं, यह क्या मामला है! मैं अपनी आंखों के सामने किसे बेहोश पड़ा देख रहा हूं!''
मायारानी - (लड़खड़ाई आवाज से) इसी के बारे में तो मैंने कहा था कि एक ऐयार भी आ फंसा है।
बाबाजी - ओफ, ये तो राजा गोपालसिंह हैं, जिन्हें मरे कई वर्ष हो गये, नहीं-नहीं, मरा हुआ आदमी कभी लौटकर नहीं आता! (कुछ रुककर) यद्यपि दुःख या रंज के सबब से इनकी सूरत में फर्क पड़ गया है, परन्तु मेरे पहचानने में फर्क नहीं है। बेशक यह हमारे मालिक राजा गोपालसिंह ही हैं जिनकी नेकियों ने लोगों को अपना ताबेदार बना लिया था; जिनकी बुद्धिमानी और मिलनसारी प्रसिद्ध थीं, और जिसके सबब से इनकी ताबेदारी में रहना लोग अपनी इज्जत समझते थे। ओफ, तुमने इनके बारे में हम लोगों को धोखा दिया! यद्यपि तुम्हारी बुरी चाल-चलन को मैं खूब जानता था और जानबूझकर कई कारणों से तरह दिये जाता था, मगर मुझे यह खबर न थी कि उस चाल-चलन की हद यहां तक पहुंच चुकी है! (गोपालसिंह की नब्ज देखकर) शुक्र है कि मैं अपने मालिक को जीता पाता हूं।
मायारानी - बाबाजी, आप जल्दी न कीजिए और बिना समझे-बूझे अपनी बातों से मुझे दुःख न दीजिए। जो मैं कहती हूं, उसे मानिये और विश्वास कीजिए कि यह वीरेन्द्रसिंह का ऐयार है और राजा की सूरत बनाकर कई दिनों से रिआया को भड़का रहा है। इसकी खबर मुझको बहुत पहले लग चुकी थी और मैंने मुनादी भी करा दी थी कि एक ऐयार राजा की सूरत बनाकर लोगों को भड़काने के लिए आया है, जो कोई उसका सिर काटकर मेरे पास लावेगा, उसे एक लाख रुपया इनाम दूंगी। आज इत्तिफाक ही से यह कम्बख्त मेरे पास हाथ आ फंसा है।
बाबाजी - (कुछ सोचकर) शायद ऐसा ही हो, मगर तुमने तो कहा था कि मैं भूतनाथ और देवीसिंह के पीछे-पीछे इस सुरंग में आई हूं, फिर ये लोग तुम्हें कैसे मिले क्या ये लोग पहले से ही सुरंग में मौजूद थे?
मायारानी - हां, जब मैं सुरंग में आ चुकी और भूतनाथ तथा देवीसिंह को बेहोश कर चुकी, उसके बाद शायद ये लोग (हाथ का इशारा करके) इस तरफ से यहां आ पहुंचे। उस समय बेहोशी वाली बारूद से निकला धुआं भरा हुआ था, जिसके सबब से ये लोग भी बेहोश होकर लेट गये।
बाबाजी - बेहोशी वाली बारूद से निकला हुआ धुआं! क्या तुमने इन लोगों को किसी नई रीति से बेहोश किया है?
मायारानी - जब मैं दुःखी होकर अपने घर से भागी तो (तिलिस्मी तमंचा और गोली दिखाकर) यह तिलिस्मी तमंचा और गोली निकालकर लेती आई थी। इसी के जरिए से चलाई हुई तिलिस्मी गोली ने अपना काम किया। आप तो इसका हाल जानते ही हैं।
बाबाजी - ठीक है, (राजा गोपालसिंह की तरफ देखकर) मगर मैं कैसे कहूं कि यह वीरेन्द्रसिंह का ऐयार है! अच्छा, देखो मैं अभी इसका पता लगाये लेता हूं।
बाबाजी ने अपने झोले में से एक शीशी निकाली, जिसमें किसी तरह का अर्क था, उस अर्क से अपनी उंगली तर करके राजा गोपालसिंह के गाल में जहां एक तिल का दाग था लगाया और कुछ ठहरकर कपड़े से पोंछ डाला तथा फिर गौर करने के बाद बोले -
बाबाजी - नहीं-नहीं, यह वीरेन्द्रसिंह के ऐयार नहीं हैं, इन्होंने अपने चेहरे को रंगा नहीं है और न नकली तिल का दाग ही बनाया है! अगर ऐसा होता तो इस दवा के लगाने से छूट जाता। ये बेशक राजा गोपालसिंह हैं और तुमने इनके बारे में निःसंदेह हम लोगों को धोखा दिया।
मायारानी - ऐसा न समझिए, वीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग अपने चेहरे पर कच्चा रंग नहीं लगाते। अभी हाल ही में तेजसिंह ने मेरे ऐयार बिहारीसिंह को धोखा दिया, उसने उसका चेहरा ऐसा रंग दिया था कि हजार उद्योग करने पर भी बिहारीसिंह उसे साफ न कर सका। इसका खुलासा हाल आप सुनेंगे तो ताज्जुब करेंगे। वीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग बड़े धूर्त और चालाक हैं।
बाबाजी - मगर नहीं, मेरी दवा बेकार जाने वाली नहीं है। हां, एक बात हो सकती है।
मायारानी - वह क्या?
बाबाजी - शायद तुमने राजा गोपालसिंह के बारे में हम लोगों को धोखा न दिया हो और खुद ये ही हम लोगों को धोखा देकर कहीं चले गये हों।
मायारानी - नहीं, यह भी नहीं हो सकता।
बाबाजी - बेशक नहीं हो सकता। अच्छा, मैं इन्हें होश में लाता हूं, जो कुछ है इनकी बातचीत से आप ही मालूम हो जायगा।
मायारानी - नहीं-नहीं, ऐसा न कीजिए, पहले इन सबों को इसी तरह बेहोश ले जाकर अपने बंगले में कैद कीजिए, फिर जो होगा, देखा जायगा।
बाबाजी - मैं यह बात नहीं मान सकता!
मायारानी - (जोर देकर) जो मैं कहती हूं वही करना होगा!
बाबाजी - कदापि नहीं, मुझे इस विषय में बहुत-कुछ शक है और राजा साहब के साथ ही साथ मैं कमलिनी और लाडिली को भी होश में लाऊंगा।
इसे सुनते ही मायारानी की हालत बदल गयी, क्रोध के मारे उसके होंठ कांपने लगे, उसकी आंखें लाल हो गयीं और वह तिलिस्मी खंजर म्यान से निकालकर क्रोध-भरी आवाज में बाबाजी से बोली, ''क्या तुम्हें किसी तरह की शेखी हो गई है क्या तुम मेरा हुक्म काट सकते हो क्या तुम अपने को मुझसे बढ़कर समझते हो क्या तुम नहीं जानते कि मैं तिलिस्म की रानी हूं, जो चाहूं सो कर सकती हूं और तुम मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते लो, मैं साफ-साफ कहे देती हूं कि बेशक यह गोपालसिंह हैं। धनपत के साथ सुख भोगने और इनको सताकर तिलिस्म का भेद जानने के लिए मैंने इन्हें कैद कर रखा था, मगर कम्बख्त कमलिनी ने इन्हें कैद से छुड़ा दिया। अब मैं तुम्हारे सामने इन सभी का सिर काटकर अपना गुस्सा मिटाऊंगी और तुम मेरा कुछ भी नहीं कर सकते, अगर ज्यादा सिर उठाओगे तो (खंजर दिखाकर) इसी खंजर से पहले तुम्हारा काम तमाम करूंगी!''
बाबाजी - (हंसकर) बस-बस, बहुत उछल-कूद न करो। यद्यपि मैं बुड्ढा हूं। तथापि तुम दो औरतों से किसी तरह हार नहीं सकता। मैं वही करूंगा, जो मेरे जी में आवेगा। यदि तुम इस तिलिस्म की रानी हो तो मैं भी तिलिस्म का दारोगा हूं, मेरे पास भी अनूठी चीजें हैं, इसके अतिरिक्त तुम मुझसे बिगाड़ करके कुछ फायदा भी नहीं उठा सकतीं और अब तो तुमने साफ कबूल ही लिया कि...
मायारानी - (बात काटकर) हां-हां, कबूल लिया और फिर भी कहती हूं कि तुम्हारे बिना मेरा कुछ हर्ज नहीं हो सकता। तुम्हें अपने दारोगापन की शेखी है तो देखो, मैं अपनी ताकत तुमको दिखाती हूं।
इतना कहकर मायारानी ने तिलिस्मी खंजर का कब्जा दबाया। उसमें से बिजली की तरह चमक पैदा हुई और जब कब्जा ढीला किया तो चमक बन्द हो गई, मगर बाबाजी पर इसका कुछ असर न हुआ जिससे मायारानी को बड़ा ताज्जुब हुआ। आखिर उसने बेहोश करने की नीयत से तिलिस्मी खंजर बाबाजी के बदन से लगाया मगर इससे भी कुछ नतीजा न निकला, बाबाजी ज्यों के त्यों खड़े रह गए। अब तो मायारानी के ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा और वह घबड़ाकर बाबाजी का मुंह देखने लगी। अगर तिलिस्मी खंजर में से चमक न पैदा होती तो उसे शक होता कि यह तिलिस्मी खंजर शायद वह नहीं है जिसकी तारीफ भूतनाथ ने की थी मगर अब वह इस खंजर पर किसी तरह का शक भी नहीं कर सकती थी।
बाबाजी - (हंसकर) कहो मेरा घमण्ड वाजिब है या नहीं?
मायारानी - (तिलिस्मी खंजर की तरफ देखकर) शायद इसमें कुछ...।
बाबाजी - (बात काटकर) नहीं-नहीं, इस खंजर के गुण में किसी तरह का फर्क नहीं पड़ा। मैं इस खंजर को खूब जानता हूं। यद्यपि तुम्हारे लिए यह एक नई चीज है परन्तु मैं अपने (राजा गोपालसिंह की तरफ इशारा करके) इस मालिक की बदौलत इसी प्रकार और गुण के कई खंजर, कटार, तलवार और नेजे देखे चुका हूं और उनसे काम भी ले चुका हूं, मगर जब मैं तिलिस्मी कामों में सिद्ध के बराबर हो गया तब मेरे दिल से ऐसी तुच्छ चीजों की कदर और इज्जत जाती रही। तुम देखती हो कि इस खंजर का मुझ पर कुछ भी असर नहीं होता। असल तो यह है कि तुम मेरी ताकत को नहीं जानती हो, तुम्हें नहीं मालूम है कि खाली हाथ रहने पर भी मैं क्या-क्या कर सकता हूं! बस मैं अपनी ताकत का हाल खोलना उचित नहीं समझता, परन्तु अफसोस, तुम मुझी को मारने के लिए तैयार हो गईं खैर, कोई चिन्ता नहीं, आज तक मैं तुम्हारी इज्जत करता रहा, और तुमने जो कुछ भला-बुरा किया उसे देखकर भी तरह देता गया, मगर अब देखता हूं तो तुम...।
मायारानी - (बात काटकर) सुनिए-सुनिए, आप जो कुछ कहेंगे मैं समझ गई। मेरी यह नीयत न थी और न है कि आपकी जान लूं क्योंकि केवल आप ही के भरोसे पर मैं कूद रही हूं, और आप ही की मदद से बड़े-बड़े बहादुरों को मैं कुछ नहीं समझती। यह तो साफ जाहिर है कि थोड़े ही दिन आप मुझसे अलग रहे और इसी बीच में मेरी सब दुर्दशा हो गयी। मैं आपको पिता के समान मानती हूं इसलिए आशा है कि (हाथ जोड़कर) इस समय जो कुछ मुझसे भूल हो गई उसे आप बाल-बच्चों की भूल के समान मानकर क्षमा करेंगे, मगर इस कसूर से मेरा असल मतलब सिर्फ इतना ही था कि किसी तरह राजा गोपालसिंह के मारने पर आपको राजी करूं।
बाबाजी पर तिलिस्मी खंजर का कुछ भी असर न होते देख मायारानी का कलेजा धड़कने लगा, वह बहुत डरी और उसे विश्वास हो गया कि तिलिस्मी कारखाने में जितना बाबाजी का दखल और जानकारी है उसका सोलहवां हिस्सा भी उसको नहीं है और उसी के साथ तिलिस्मी चीजों से बाबाजी ने बहुत कुछ फायदा भी उठाया है। यह भी उसी फायदा का असर है कि राजा वीरेन्द्रसिंह की कैद से सहज ही में छूट आए और ऐसे अद्भुत तिलिस्मी खंजर को तुच्छ समझते हैं तथा इसका असर इन पर कुछ भी नहीं हेाता। अब वह इस बात को सोचने लगी कि ऐसे बाबाजी से बिगाड़ करना उचित नहीं बल्कि जिस तरह हो सके उन्हें राजी करना चाहिए, फिर मौका मिलने पर जैसा होगा देखा जाएगा।
ऐसी-ऐसी बहुत-सी बातें मायारानी तेजी के साथ सोच गई और उसी सबब से वह अधीनता के साथ बाबाजी से बात करने लगी। जब वह अपनी बात खत्म करके चुप हो गई तो बाबाजी ने मुस्कुरा दिया और कुछ सोचकर कहा, ''खैर मैं तुम्हारे इस कसूर को माफ करता हूं मगर यह नहीं चाहता कि राजा गोपालसिंह को किसी तरह की तकलीफ हो जिन्हें मुद्दत के बाद आज मैं इस अवस्था में देख रहा हूं।''
मायारानी - तब आपने माफ ही क्या किया यद्यपि आपको इस बात का रंज है कि मैंने गोपालसिंह के साथ दगा की और यह भेद आपसे छिपा रक्खा मगर आप भी तो जरा पुरानी बातों को याद कीजिए! खास करके उस अंधेरी रात की बात जिसमें मेरी शादी और पुतले की बदलौअल हुई थी! वह सब कर्म तो आप ही का है! आप ही ने मुझे यहां पहुंचाया। अब अगर मेरी दुर्दशा होगी तो क्या आप बच पाएंगे फिर मान लिया जाय कि आप गोपालसिंह को बचा भी लें तो क्या 'लक्ष्मीदेवी' का बच के निकल जाना आपके लिए दुःखदायी न होगा और जब इस बात की खबर गोपालसिंह को होगी तो क्या वे आपको छोड़ देंगे बेशक जो कुछ आज तक मैंने किया है सब आप ही का कसूर समझा जायगा। मैंने, इस बात का पता न लग जाय कि दारोगा की करतूत ने लक्ष्मीदेवी की जगह...।
इतना कहकर मायारानी चुप हो गई और बड़े गौर से बाबाजी की सूरत देखने लगी, मानो इस बात का पता लगाना चाहती है कि बाबाजी के दिल पर उसकी बातों का क्या असर हुआ। दारोगा साहब भी मायारानी की बातें सुनकर तरद्दुद में पड़ गए और न मालूम क्या सोचने लगे। थोड़ी देर बाद दारोगा ने सिर उठाया और मायारानी की तरफ देखकर कहा, ''अच्छा, अब विशेष बातों की कोई जरूरत नहीं है। मैं वादा करता हूं कि गोपालसिंह के बारे में तुम पर किसी तरह का दबाव न डालूंगा और इससे ज्यादा कुछ न कहूंगा कि इनके मारने का विचार न करके थोड़े दिन तक इन्हें कैद ही में रखना आवश्यक है, बल्कि कमलिनी, लाडिली, भूतनाथ और देवीसिंह को भी कैद ही में रखना चाहिए। हां जब मैं उन आफतों को दूर कर लूं जिनके कारण तुम्हें अपना राज्य छोड़ना पड़ा और तुम्हें फिर उसी दर्जे पर पहुंचा दूं तब जो तुम्हारे जी में आवे करना। बस-बस, इसमें दखल मत दो और जो मैंने कहा है उसे करो नहीं तो तुम्हें पूरा सुख कदापि न मिलेगा!''
मायारानी - खैर ऐसा ही सही, मगर यह तो कहिए कि इन लोगों को कैद कहां कीजिएगा?
बाबाजी - इसके लिए मेरा बंगला बहुत मुनासिब है।
मायारानी - और मेरे रहने के लिए कौन-सा ठिकाना सोच रक्खा है?
बाबाजी - वाह, क्या तुम समझती हो कि तुम्हें बहुत दिनों तक अपने राज्य से अलग रहना पड़ेगा नहीं, दो ही तीन दिन में मैं उन सभी का मुंह काला करूंगा जो तुम्हारे नौकर होकर तुमसे खिलाफ हो रहे हैं और तुम्हें फिर उसी दर्जे पर बिठाऊंगा जिस पर मेरे सामने तुम थीं, हां, एक चीज के बिना हर्ज जरूर होगा।
मायारानी - वह क्या शायद आपका मतलब अजायबघर की ताली से है।
बाबाजी - हां, मेरा मतलब अजायबघर की ताली से ही है, क्या तुम उसे अपने महल ही में छोड़ आई हो?
मायारानी - जी नहीं, यह मेरे पास है, जब मैं लाचार होकर अपने घर से भागी तो एक यही चीज थी जिसे मैं अपने साथ ला सकी।
बाबाजी - वाह-वाह, यह बड़ी खुशी की बात तुमने कही। अच्छा वह ताली मेरे हवाले करो तो और कुछ बातें होंगी।
मायारानी - (अजायबघर की ताली बाबाजी को देकर) लीजिए तैयार है, अब जहां तक जल्द हो सके यहां से निकल चलना चाहिए।
बाबाजी - हां, हां, मैं भी यही चाहता हूं, भला यह तो कहो कि यह तिलिस्मी खंजर तुमने कहां से पाया?
मायारानी - यह तिलिस्मी खंजर कमलिनी ने भूतनाथ और गोपालसिंह को दिया था जो इस समय इन सभी के बेहोश हो जाने पर मुझे मिला। एक तो मैंने ले लिया और दूसरा नागर को दे दिया है। मैंने सुना है कि इसी तरह के और भी कई खंजर कमलिनी ने अपने साथियों को बांटे हैं मगर मालूम नहीं इस समय वे कहां हैं।
बाबाजी - ठीक है, खैर यह काम तुमने बहुत ही अच्छा किया कि अजायबघर की ताली अपने साथ लेती आईं, नहीं तो बड़ा हर्ज होता।
मायारानी - जी हां।
मायारानी अजायबघर की ताली के बारे में भी दारोगा से झूठ बोली। यद्यपि उसने यह ताली भूतनाथ को दे दी और इस समय गोपालसिंह के पास से पाई थी परन्तु भूतनाथ का नाम लेना उसने उचित न जाना क्योंकि उसने यह ताली भूतनाथ को राजा गोपालसिंह की जान लेने के बदले में दी थी और यह बात बाबाजी से कहना उसे मंजूर न था इसी से वह इस समय बहाना कर गई।
मायारानी और नागर को साथ लिए हुए बाबाजी वहां से रवाना हुए और उस खम्भे के पास पहुंचे जिस पर गरारीदार पहिया लगा हुआ था। अब मायारानी बड़ी उत्कण्ठा से देखने लगी कि बाबाजी किस तरह से दरवाजा खोलते हैं और इसलिए जब बाबाजी ने गरारीदार पहिये को घुमाकर सुरंग का दरवाजा खोला तो मायारानी को बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि इसी पहिये को वह कई दफे उलट-फेरकर घुमा चुकी थी मगर दरवाजा नहीं खुला था। मायारानी ने अब बड़े आग्रह से इसका सबब बाबाजी से पूछा और कहा कि ''इसी पहिये को मैं पहले कई दफे घुमा चुकी थी मगर दरवाजा न खुला, इस समय क्योंकर खुल गया' इसके जवाब में बाबाजी हंसकर बोले, ''इसका सबब किसी दूसरे वक्त तुमसे कहूंगा क्योंकि समझाने में बहुत देर लगेगी और पहले उन कामों को बहुत जल्द कर लेना चाहिए जिनका करना आवश्यक है!''
यह जवाब सुनकर मायारानी चुप हो गई और यह सोच लिया कि खैर किसी दूसरे समय इसका पता लग जाएगा क्योंकि इस समय वह बाबाजी से बहुत ही दबी हुई थी और किसी बात में जिद करना उचित नहीं समझती थी। उधर बाबाजी ने दरवाजा खोलने का भेद जान-बूझकर मायारानी से छिपा रखा था, क्योंकि उसका भेद खोलना उन्हें मंजूर न था। यद्यपि मायारानी को उसका भेद मालूम न हुआ मगर हम अपने पाठकों को दरवाजा खोलने का भेद बताए देते हैं। लोहे के खम्भे पर जो गरारीदार पहिया था उसके घूमने से दरवाजा बन्द हो जाता था। परन्तु खोलने के समय उसे एक बंधे हुए अन्दाज से घुमाना पड़ता था। उस पहिये को इक्कीस दफे बाईं तरफ, इसके बाद बारह दफे दाहिनी तरफ और नौ दफे बाईं तरफ घुमाने से दरवाजा खुलता था। अगर इससे कुछ भी कम या ज्यादा पहिया घूम जाय तो दरवाजा नहीं खुलता था। दरवाजा खोलते समय बाबाजी ने बड़ी तेजी के साथ गिनकर पहिया घुमाया किन्तु मायारानी का उसकी गिनती की तरफ कुछ भी ध्यान न था, इसीलिए वह इस बात को समझ न सकी।
मायारानी और नागर को साथ लिए हुए जब बाबाजी सुरंग से बाहर निकले तो सबेरा हो चुका था, मगर सूर्य अभी नहीं निकला था। टीले पर से देखा तो चारों तरफ मैदान में सन्नाटा था इसलिए राय हुई कि इसी समय गोपालसिंह, भूतनाथ, देवीसिंह, कमलिनी और लाडिली को निकालकर बंगले में पहुंचा देना चाहिए। नागर दौड़ी हुई चली गई और लीला तथा लौंडियों को बुला लाई और इसके बाद सभी ने मिलकर पांचों कैदियों को सुरंग से निकालकर दारोगा वाले बंगले में पहुंचाया।
अब यह विचार होने लगा कि पांचों कैदियों को किस जगह कैद करना चाहिए, बाबाजी की राय हुर्ह कि पांचों कैदियों को अजायबघर की ड्यौढ़ी में बन्द करना चाहिए मगर मायारानी ने कुछ सोच-विचारकर कहा कि इन सब लोगों को मैगजीन के बगल वाले तहखाने में कैद करना चाहिए। मायारानी की बात सुनकर बाबाजी के होंठ फड़कने लगे और माथे पर दो एक बल पड़ गये, जिससे मालूम होता था कि उनको क्रोध चढ़ आया है मगर उन्होंने बहाने के साथ दूसरी तरफ देखकर बहुत जल्द अपने को सम्हाला जिससे सूरत देखकर मायारानी को उनके दिल का हाल कुछ मालूम न हो। बाबाजी को चुप देखकर मायारानी ने फिर टोका और कहा कि कैदियों को मैगजीन के बगल वाले तहखाने में बन्द करना उचित होगा, जिस पर बाबाजी ने हंसकर जवाब दिया, ''बहुत अच्छा, जो तुम कहती हो वही होगा।''
हम ऊपर लिख आये हैं कि इस मकान के चारों कोनों में चार कोठरियां और चारों तरफ दालाना हैं। बंगले में जाने के लिए जो सदर दरवाजा है, उसके बाईं तरफ वाली कोठरी के नीचे दो तहखाने हैं। एक तो मैगजीन के नाम से पुकारा जाता है और उसमें बारूद तथा छोटी-छोटी कई तोपें रखी हुई हैं, और उसी के साथ सटा हुआ जो दूसरा तहखाना है उसमें बाबाजी का खजाना रहता है। उसी खजाने वाले तहखाने में कैदियों को कैद करने की राय मायारानी ने दे दी थी और बाबाजी ने भी यह बात मंजूर कर ली।
बाबाजी उस कोठरी के अन्दर गये। वहां दोनों तरफ की दीवारों में लोहे के दो दरवाजे थे जिन्हें दोनों तहखानों का दरवाजा कहना चाहिए। दाहिनी तरफ के दरवाजे को किसी गुप्त रीति से बाबाजी ने खोला और नागर, लीला तथा लौंडियों की मदद से पांचों कैदियों को उनके ऐयारी के बटुए सहित तहखाने में पहुंचाकर बाहर निकल आये और दरवाजा बन्द कर दिया। बाहर निकलते समय तहखाने से तांबे का एक घड़ा भी लेते आये और मायारानी की तरफ देखकर बोले, ''अब कैदियों के लिए कुछ खाने-पीने का सामान भी कर देना चाहिए, इसी घड़े में भरकर जल और थोड़े से जंगली फल वहां रखवा देता हूं, जो तीन दिन के लिए काफी होगा, फिर देखा जायेगा।'' (लौंडियों की तरफ देखकर), ''जाओे तुम लोग थोड़े से फल बहुत जल्द तोड़ लाओ।'' आज्ञानुसार लौडियां चारों तरफ चली गईं और बात-की-बात में बहुत से फल तोड़कर ले आईं। एक कपड़े में बांधकर वही फल और जल से भरा हुआ घड़ा हाथ में लिए हुए बाबाजी फिर उसी तहखाने में उतरे मगर अबकी दफे किसी को साथ न ले गये, बल्कि अन्दर जाती दफे दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया और आधी घड़ी से जयादा देर के बाद तहखाने से बाहर निकले। मायारानी ने ताज्जुब में आकर पूछा कि ''आपको तहखाने में इतनी देर क्यों लगी' इसके जवाब में बाबाजी ने कहा - ''कैदियों के बटुओं की तलाशी ले रहा था मगर कोई चीज मेरे मतलब की न निकली।''
इस समय मायारानी का चेहरा फतहमन्दी की खुशी से दमक रहा था। उसे केवल इसी बात की खुशी न थी कि राजा गोपालसिंह और अपनी दोनों बहिनों तथा ऐयारों को कैद कर लिया था बल्कि उसकी खुशी का सबब कुछ और भी था। थोड़ी ही देर पहले उसे इस बात का रंज था कि कम्बख्त दारोगा ने यकायक पहुंचकर हमारे काम में विघ्न डाल दिया नहीं तो गोपालसिंह तथा कमलिनी और लाडिली को मारकर मैं हमेशा के लिए निश्चिन्त हो जाती मगर अब उसे इन बातों का रंज नहीं है और यह उसकी मुस्कुराहट से साफ जाहिर हो रहा है।