दसवां भाग : बयान - 3
अब जरा उन कैदियों की सुध लेनी चाहिए, जिन्हें नकली दारोगा ने दारोगा वाले बंगले में मैगजीन की बगल वाली कोठरी में बन्द किया था। वास्तव में वह तेजसिंह ही थे, जो दारोगा की सूरत बनाकर मायारानी से मिलने और उसके दिल का भेद लेने जा रहे थे, मगर जब दारोगा वाले बंगले पर पहुंचे तो मायारानी की लौंडियों तथा लाली की जबानी मालूम हुआ कि दो आदमियों के पीछे-पीछे मायारानी और नागर टीले पर गई हैं। तेजसिंह उस टीले का हाल बखूबी जानते थे और सुरंग की राह बाग के चौथे दर्जे में आने-जाने का भेद भी उन्हें बता दिया गया था, इसलिए उन्हें शक हुआ और वे सोचने लगे कि मायारानी जिन दो आदमियों के पीछे-पीछे टीले पर गई है, कहीं वे दोनों हमारी तरफ के ऐयार ही न हों जो बाग के चौथे दर्जे में जाने का इरादा रखते हों, यदि वास्तव में ऐसा हो तो निःसन्देह मायारानी के हाथ से उन्हें कष्ट पहुंचेगा। यह सोचते ही तेजसिंह भी उसी टीले की तरफ रवाना हुए और यही सबब था कि सुरंग में दारोगा की शक्ल बने हुए तेजसिंह की मायारानी से मुलाकात हुई थी और उसके बाद जो कुछ हुआ ऊपर लिखा ही जा चुका है।
मैगजीन की बगल वाली कोठरी में कैदियों को कैद करने के बाद जब खाने-पीने का सामान लेकर तेजसिंह उस तहखाने में गये तो कैदियों को होश में लाकर संक्षेप में सब हाल कह दिया था और अजायबघर की ताली जो मायारानी से वापस ली थी, राजा गोपालसिंह को देकर कहा कि इस ताली की मदद से जहां तक हो सके आप लोग यहां से जल्द निकल जाइये। गोपालसिंह ने जवाब दिया था कि ''यदि यह ताली न मिलती तो भी हम लोग यहां से निकल जाते क्योंकि मुझे यहां का पूरा-पूरा हाल मालूम है और अब आप हम लोगों की तरफ से निश्चिन्त रहिये, मगर चौबीस घण्टे के अन्दर मायारानी का साथ न छोड़िये और न उसे कोई काम इस बीच में करने दीजिये, इसके बाद हम लोग स्वयं आपको ढूंढ़ लेंगे।''
इस दारोगा वाले बंगले का हाल केवल तेजसिंह को ही नहीं, बल्कि हमारे और भी कई ऐयारों को मालूम था। क्योंकि कमलिनी ने, जो कुछ भी वह जानती थी, सभी को बता दिया था।
अब जब तेजसिंह दारोगा वाले बंगले से चले तो राजा गोपालसिंह और कमलिनी इत्यादि को ढूंढ़ने के लिए उत्तर की तरफ रवाना हुए। वे जानते थे कि मैगजीन की बगल वाली कोठरी से निकलकर वे लोग उत्तर की तरफ ही किसी ठिकाने बाहर होंगे।
तेजसिंह कोस भर से ज्यादा नहीं गये होंगे कि रात की पहली अंधेरी ने चारों तरफ अपना दखल जमा लिया। जिसके सबब से वे उन लोगों को बखूबी ढूंढ़ न सकते थे और न उन लोगों का ठीक पता ही था, तथापि उन्हें विशेष कष्ट न उठाना पड़ा क्योंकि थोड़ी ही दूर जाने के बाद देवीसिंह से मुलाकात हो गई, जो इन्हीं को ढूंढ़ने के लिए जा रहे थे। देवीसिंह के साथ चलकर तेजसिंह थोड़ी ही देर में वहां जा पहुंचे, जहां गोपालसिंह इत्यादि घने जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठे इनके आने की राह देख रहे थे। तेजसिंह को देखते ही सब लोग उठ खड़े हुए और खातिर की तौर पर दो-चार कदम आगे बढ़ आये।
देवीसिंह - देखिए, इन्हें कितना जल्दी ढूंढ़ लाया हूं।
गोपालसिंह - (तेजसिंह से) आइये-आइये।
तेजसिंह - इतनी दूर आये तो क्या दो-चार कदम के लिए रुके रहेंगे
गोपालसिंह - (हंस के और तेजसिंह का हाथ पकड़ के) आज आप ही की बदौलत हम लोग जीते-जागते यहां दिखाई दे रहे हैं।
तेजसिंह - यह सब तो भगवती की कृपा से हुआ और उन्हीं की कृपा से इस समय मैं इसके लिए अच्छी तरह तैयार भी हो रहा हूं कि मेरी जितनी तारीफ आपके किये हो सके कीजिये और मैं फूला नहीं समाता हुआ चुपचाप बैठा सुनता रहूं और घण्टों बीत जायें, मगर तिस पर भी आपकी की हुई तारीफ को उस काम के बदले में न समझूं, जिसकी वजह से आप लोग छूट गये, बल्कि एक दूसरे ही काम के बदले में समझूं, जिसका पता खुद आप ही की जुबान से लगेगा और यह भी जाना जायगा कि मैं कौन-सा अनूठा काम करके आया हूं, जिसे खुद नहीं जानता, मगर जिसके बदले में तारीफों की बौछार सहने को चुप्पी का छाता लगाये पहले ही से तैयार था। साथ ही इसके यह भी कह देना अनुचित न होगा कि मैं केवल आप ही को तारीफ करने के लिए मजबूर न करूंगा, बल्कि आपसे ज्यादा कमलिनी और लाडिली को मेरी तारीफ करनी पड़ेगी।
गोपालसिंह - (कुछ सोचकर और हंसी के ढंग से) अगर गुस्ताखी और बेअदबी में न गिनिये तो मैं पूछ लूं कि आज आपने भंग के बदले में ताड़ी तो नहीं छानी है
यद्यपि यह जंगल बहुत ही घना और अंधकारमय हो रहा था, मगर तेजसिंह को साथ लिए देवीसिंह के आने की आहट पाते ही भूतनाथ ने बटुए में से एक छोटी-सी अबरख की लालटेन जो मोड़माड़ के बहुत छोटी और चिपटी कर ली जाती थी, निकाल ली थी और रोशनी के लिए तैयार बैठा था। देवीसिंह की आवाज पाते ही उसने बत्ती बालकर उजाला कर दिया था, जिससे सभी की सूरत साफ-साफ दिखाई दे रही थी। तेजसिंह की इज्जत के लिए सब कोई उठकर दो-चार कदम आगे बढ़ गये थे, और इसके बाद मायारानी का समाचार जानने की नीयत से सभी ने उन्हें घेर लिया था। तेजसिंह के चेहरे पर खुशी की निशानियां मामूली से ज्यादा दिखाई दे रही थीं, इसलिए गोपालसिंह इत्यादि किसी भारी खुशखबरी के सुनने की लालसा मिटाने का उद्योग करना चाहते थे। मगर तेजसिंह की रेशम की गुत्थी की तरह उलझी हुई बातों को सुनकर गोपालसिंह भौंचक से हो गये और सोचने लगे कि वह कैसी खुशखबरी है कि जिसे तेजसिंह स्वयं नहीं जानते, बल्कि मुझसे ही सुनकर मुझी को सुनाने और खुश करके तारीफों की बौछार सहने के लिए तैयार हैं, और यही सबब था कि राजा गोपालसिंह ने दिल्लगी के साथ तेजसिंह पर भंग के बदले में ताड़ी पीने की आवाज कसी।
तेजसिंह - (हंसकर) ताड़ी और शराब पीना तो आप लोगों का काम है जिन्हें अपने-बेगानों की कुछ खबर ही नहीं रहती! मैं यह बात दिल्लगी से नहीं कहता, बल्कि साबित कर दूंगा कि आप भी उन्हीं में अपनी गिनती करा चुके हैं। सच तो यों है कि इस समय आपके पेट में चूहे कूदते होंगे, और यह जानने के लिए आप बहुत ही बेताब होंगे कि मैं आपसे क्या पूछूंगा और क्या कहूंगा। अच्छा आप बताइये कि 'लक्ष्मीदेवी' किसका नाम है?
गोपालसिंह - क्या आप नहीं जानते यह तो उसी कम्बख्त मायारानी का नाम है।
तेजसिंह - बस-बस-बस! अब आपकी जुबानी मुझे उस बात का पता लग गया जिसे मैं एक भारी खुशखबरी समझता हूं। अब आप सुनिये, (कुछ रुककर) मगर नहीं, पहले आपसे इनाम पाने का इकरार तो करा ही लेना चाहिए, क्योंकि खाली तारीफों की बौछार से काम नहीं चलेगा।
गोपालसिंह - मैं आपको कुछ इनाम देने योग्य तो हूं नहीं, पर यदि आप मुझे इस योग्य समझते ही हैं तो इनाम का निश्चय भी आप ही कर लीजिए, मुझे जी-जान से उसे पूरा करने के लिए तैयार पाइएगा।
तेजसिंह - (हाथ फैलाकर) अच्छा, तो आप हाथ पर हाथ मारिये, मैं अपना इनाम जब चाहूंगा, मांग लूंगा और आप उस समय उसे देने योग्य होंगे।
गोपालसिंह - (तेजसिंह के हाथ पर हाथ मार के) लीजिए अब तो कहिए, आप तो हम लोगों की बेचैनी बढ़ाते ही जा रहे हैं।
तेजसिंह – हां-हां सुनिये। (कमलिनी और लाडिली से) तुम दोनों भी जरा पास आ जाओ और ध्यान देकर सुनो कि मैं क्या कहता हूं। (हंसकर) आप लोग बड़े खुश होंगे। हां, अब आप सब बैठ जाइये।
गोपालसिंह - (बैठकर) तो आप कहते क्यों नहीं, इतना नखरा-तिल्ला क्यों कर रहे हैं?
तेजसिंह - इसलिए कि खुशी के बाद आप लोगों को रंज भी होगा और आप लोग एक तरद्दुद में फंस जायेंगे।
गोपालसिंह - आप तो उलझन पर उलझन डाले जाते हैं और कुछ कहते भी नहीं।
तेजसिंह - कहता तो हूं, सुनिए - यह जो मायारानी है वह असल में आपकी स्त्री लक्ष्मीदेवी नहीं है।
इतना सुनते ही राजा गोपालसिंह, कमलिनी और लाडिली को हद से ज्यादा खुशी हुई, यहां तक कि दम रुकने लगा और थोड़ी देर तक कुछ कहने की सामर्थ्य न रह गयी। इसके बाद अपनी अवस्था ठीक करके कमलिनी ने कहा।
कमलिनी - ओफ, आज मेरे सिर से बड़े भारी कलंक का टीका मिटा। मैं इस ताने के सोच में मरी जाती थी कि तुम्हारी बहिन जब इतनी दुष्ट है तो तुम न जाने कैसी होगी!
गोपालसिंह - मैं जिस खयाल से लोगों को अपना मुंह दिखाने से हिचकिचाता था आज वह जाता रहा। अब मैं खुशी से जमानिया के राजकर्मचारियों के सामने मायारानी का इजहार लूंगा, मगर यह तो कहिए इस बात का निश्चय आपको क्योंकर हुआ?
तेजसिंह - मैं संक्षेप में आपसे यह कह चुका हूं कि जब मैं दारोगा की सूरत में सुरंग के अन्दर पहुंचा और मायारानी से मुलाकात हुई, तो आपको होश में लाने के लिए मायारानी से खूब हुज्जत हुई।
गोपालसिंह - हां, यह आप कह चुके हैं।
तेजसिंह - उस समय जो-जो बातें मायारानी से हुईं वह तो पीछे कहूंगा, मगर मायारानी की थोड़ी-सी बात, जिसे मैंने इस तरह अक्षर-अक्षर खूब याद कर रखा है जैसे पाठशाला के लड़के अपना पाठ याद कर रखते हैं, आप लोगों से कहता हूं, उसी से आप लोग उस भेद का मतलब निकाल लेंगे। मायारानी ने मुझे समझाने की रीति से कहा था कि -
''यद्यपि आपको इस बात का रंज है कि मैंने गोपालसिंह के साथ दगा की और यह भेद आपसे छिपा रखा, मगर आप भी तो जरा पुरानी बातों को याद कीजिए! खास करके उस अंधेरी रात की बात, जिसमें मेरी शादी और पुतले की बदलौअल हुई थी! आप ही ने तो मुझे यहां तक पहुंचाया! अब अगर मेरी दुर्दशा होगी तो क्या आप बच जायेंगे मान लिया जाय कि अगर गोपालसिंह को बचा लें तो लक्ष्मीदेवी का बच के निकल जाना आपके लिए दुःखदायी न होगा और जब इस बात की खबर गोपालसिंह को लगेगी, तो क्या वह आपको छोड़ देगा बेशक जो कुछ आज तक मैंने किया है, सब आप ही का कसूर समझा जायेगा! मैंने इसे इसलिए कैद किया था कि लक्ष्मीदेवी वाला भेद इसे मालूम न होने पावे या इसे इस बात का पता न लग जाय कि दारोगा की करतूत ने लक्ष्मीदेवी की जगह...''
बस इतना कहकर वह चुप हो गई और मैंने भी इस भेद को सोचते हुए यह समझकर, कि कहीं बात-ही-बात में मेरा अनजानपन न झलक जावे और मायारानी को यह न मालूम हो जाय कि मैं वास्तव में दारोगा नहीं हूं, इन बातों का कुछ जवाब देना उचित न जाना और चुप हो रहा।
गोपालसिंह - बस-बस! मायारानी के मुंह से निकली हुई इतनी ही बातें सबूत के लिए काफी हैं और बेशक वह कम्बख्त मेरी स्त्री नहीं है। अब मुझे ब्याह के दिन की कुछ बातें धीरे-धीरे याद आ रही हैं जो इस बात को और भी मजबूत कर रही हैं और इसमें भी कोई शक नहीं कि हरामखोर दारोगा ही सारे फसादों की जड़ है।
कमलिनी - मगर उस हरामजादी की बातों से, जैसा कि आपने अभी कहा, यह भी साबित होता है कि दारोगा की मदद से अपना काम पूरा करने के बाद वह मेरी बहिन लक्ष्मीदेवी की जान लेना चाहती थी, मगर वह किसी तरह बच के निकल गई।
तेजसिंह - बेशक ऐसा ही है और मेरा दिल गवाही देता है कि लक्ष्मीदेवी अभी तक जीती है। यदि उसकी खोज की जाय तो अवश्य मिलेगी।
गोपालसिंह - मेरा भी दिल यही गवाही देता है, मगर अफसोस की बात है कि उसने मुझ तक पहुंचने या इस भेद को खोलने के लिए कुछ उद्योग न किया।
कमलिनी - यह आप कैसे कह सकते हैं कि उसने कोई उद्योग न किया होगा कदाचित उसका उद्योग सफल न हुआ हो इसके अतिरिक्त मायारानी की और दारोगा की चालाकी कुछ इतनी कच्ची न थी कि किसी की कलई चल सकती, फिर उस बेचारी का क्या कसूर जब मैं उसकी सगी बहिन होकर धोखे में फंस गई और इतने दिनों तक उसके साथ रही तो दूसरे की क्या बात है उसके ब्याह के चार वर्ष बाद जब मैं माता-पिता के मर जाने के कारण लाडिली को साथ लेकर आपके घर आई तो मायारानी की सूरत देखते ही मुझे कुछ शक पड़ा, परन्तु इस खयाल ने उस शक को जमने न दिया कि कदाचित् चार वर्ष के अन्तर ने उसकी सूरत-शक्ल में इतना फर्क डाल दिया और यह आश्चर्य की बात है भी नहीं, बहुतेरी कुंआरी लड़कियों की सूरत-शक्ल ब्याह होने के तीन या चार वर्ष बाद ही ऐसी बदल जाती है कि पहचानना कठिन होता है।
तेजसिंह - प्रायः ऐसा होता है, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
कमलिनी - और कम्बख्त ने हम दोनों बहिनों की उतनी ही खातिर की जितनी कोई बहिन किसी बहिन की कर सकती है। मगर यह बात भी तभी तक रही जब तक उसने (गोपालसिंह की तरफ इशारा करके) इनको कैद नहीं कर लिया।
गोपालसिंह - मेरे साथ तो रस्म और रिवाज ने दगा की! ब्याह के पहले मैंने उसे देखा ही न था, फिर पहचानता क्योंकर?
कमलिनी - बेशक बड़ी चालाकी खेली गई। हाय, अब मैं बहिन लक्ष्मीदेवी को कहां ढूंढूं, और कैसे पाऊं?
तेजसिंह - जिस ढंग से मायारानी ने मुझे समझाया था, उससे तो मालूम होता है कि यह चालाकी करने के सथ ही दारोगा ने लक्ष्मीदेवी को कैद करके किसी गुप्त स्थान में रख दिया था, मगर कुछ दिनों के बाद वह किसी ढंग से छूट के निकल गई। शायद इसी सबब से वह कमलिनी या लाडिली से न मिल सकी हो।
गोपालसिंह - बिना दारोगा को सताये इसका पूरा हाल मालूम नहीं होगा।
तेजसिंह - दारोगा तो रोहतासगढ़ में ही कैद है।
इतने ही में एक तरफ से आवाज आई, ''दारोगा अब रोहतासगढ़ में कैद नहीं है, निकल भागा।'' तेजसिंह ने घूमकर देखा तो भैरोसिंह पर निगाह पड़ी। भैरोसिंह ने पिता के चरण छुए और राजा गोपालसिंह को भी प्रणाम किया, इसके बाद आज्ञा पाकर बैठ गया।
तेजसिंह - (भैरोसिंह से) क्या तुम बड़ी देर से खड़े-खड़े हम लोगों की बातें सुन रहे थे हम लोग बातों में इतना डूबे हुए थे कि तुम्हारा आना जरा भी मालूम न हुआ।
भैरोसिंह - जी नहीं, मैं अभी-अभी चला आ रहा हूं और सिवाय इस आखिरी बात के, जिसका जवाब दिया है, आप लोगों की और कोई बात मैंने नहीं सुनी।
तेजसिंह - तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि हम लोग यहां हैं?
भैरोसिंह - मैं तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जा रहा था, मगर जब दारोगा वाले बंगले के पास पहुंचा तो उसकी बिगड़ी हुई अवस्था देखकर जी व्याकुल हो गया, क्योंकि इस बात का विश्वास करने में किसी तरह का शक नहीं हो सकता था कि उस बंगले की बरबादी का सबब बारूद और सुरंग है और यह कार्रवाई बेशक हमारे दुश्मनों की है। अस्तु, तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जाने के पहले इस मामले का असल हाल जानने की इच्छा हुई और किसी से मिलने की आशा में मैं इस जंगल में घूमने लगा। मगर इस लालटेन की रोशनी ने, जो यहां बल रही है, मुझे ज्यादा देर तक नहीं भटकने दिया। अब सबसे पहले मैं उस बंगले की बरबादी का सबब जानना चाहता हूं। यदि आपको मालूम हो तो कहिये।
तेजसिंह - मैं भी यही चाहता हूं कि राजा वीरेन्द्रसिंह का कुशल-क्षेम पूछने के बाद जो कुछ कहना है, सो तुमसे कहूं और उस बंगले की कायापलट का सबब तुमसे बयान करूं, क्योंकि इस समय एक बड़ा ही कठिन काम तुम्हारे सुपुर्द किया जायेगा जो कितना जरूरी है सो उस बंगले का हाल सुनते ही तुम्हें मालूम हो जायेगा।
भैरोसिंह - राजा वीरेन्द्रसिंह बहुत अच्छी तरह हैं। इधर का हाल सुनकर उन्हें बहुत क्रोध आता है और चुपचाप बैठने की इच्छा नहीं होती, परन्तु आपकी वह बात उन्हें बराबर याद आती रहती है जो उनसे बिदा होने के समय अपनी कसम का बोझ देकर आप कह आये थे। निःसन्देह वे आपको सच्चे दिल से चाहते हैं और यही सबब है कि बहुत कुछ कर सकने की शक्ति रखकर भी कुछ नहीं कर रहे हैं।
तेजसिंह - हां, मैं उनसे यह ताकीद कर आया था कि चुपचाप चुनार जाकर बैठिए और देखिए कि हम लोग क्या करते हैं। तो क्या राजा वीरेन्द्रसिंह चुनार गये
भैरोसिंह - जी हां, वे चुनार गये और मैं अबकी दफे चुनार ही से चला आ रहा हूं। रोहतासगढ़ में केवल ज्योतिषीजी हैं और उन्हें राज्य-सम्बन्धी कार्यों से बहुत कम फुरसत मिलती है। इसी सबब से दारोगा धोखा देकर न मालूम किस तरह कैद से निकल भागा। जब यह खबर चुनार पहुंची तो यह सोचकर कि भविष्य में कोई गड़बड़ न होने पाये, चुन्नीलाल ऐयार रोहतासगढ़ भेजे गये और जब तक कोई दूसरा हुक्म न पहुंचे, उन्हें बराबर रोहतासगढ़ ही में रहने की आज्ञा हुई और मैं इधर का हालचाल लेने के लिए भेजा गया।
तेजसिंह - अच्छा, तो मैं दारोगा वाले बंगले की बरबादी का सबब बयान करता हूं।
इसके बाद तेजसिंह ने सब हाल अर्थात् अपना सुरंग में जाना, मायारानी से मुलाकात और बातचीत, राजा गोपालसिंह और कमलिनी इत्यादि का गिरफ्तार होना और फिर उन्हें छुड़ाना, तथा दारोगा वाले बंगले के उड़ने का सबब और इसके बाद का पूरा-पूरा हाल कह सुनाया जिसे भैरोसिंह बड़े गौर से सुनता रहा और जब बातें पूरी हो गयीं तो बोला -
भैरोसिंह - यह एक विचित्र बात मालूम हुई कि मायारानी वास्तव में कमलिनी की बहिन नहीं है। (कुछ सोचकर) मगर मैं समझता हूं कि असल बातों का पूरा-पूरा पता लगाने के लिए उसे बहुत जल्द गिरफ्तार करना चाहिए, केवल उसी को नहीं बल्कि कम्बख्त दारोगा को भी ढूंढ़ निकालना चाहिए।
गोपालसिंह - बेशक ऐसा ही होना चाहिए, और अब मैं भी अपने को गुप्त रखना नहीं चाहता जैसे कि आज के पहले सोचे हुए था।
तेजसिंह - सबसे पहले यह तय कर लेना चाहिए कि अब हम लोगों को करना क्या है! (गोपालसिंह से) आप अपनी राय दीजिए।
गोपालसिंह - राय और बहस में तो घण्टों बीत जायेंगे, इसलिए यह काम भी आप ही की मर्जी पर छोड़ा, जो कहिए वही किया जाय।
तेजसिंह - (कुछ सोचकर) अच्छा तो फिर आप कमलिनी और लाडिली को लेकर जमानिया जाइए और तिलिस्मी बाग में पहुंचकर अपने को प्रकट कर दीजिए, मैं समझता हूं कि वहां आपका विपक्षी (खिलाफ) कोई भी न होगा।
गोपालसिंह - आप खिलाफ कह रहे हैं! मेरे नौकरों को मुझसे मिलने की खुशी है, अपने नौकरों में मैं अपने को प्रकट भी कर चुका हूं!
तेजसिंह - (ताज्जुब से) यह कब मैं तो इसका हाल कुछ भी नहीं जानता!
गोपालसिंह - इधर आपसे मुलाकात ही कब हुई जो आप जानते कमलिनी, लाडिली, भूतनाथ और देवीसिंह को यह मालूम है।
तेजसिंह - खैर, कह तो जाइए कि क्या हुआ?
गोपालसिंह - बड़ा ही मजा हुआ। मैं आपसे खुलासा कह दूं सुनिये। एक दिन रात के समय मैं भूतनाथ को साथ लिए गुप्त राह से तिलिस्मी बाग के उस दर्जे में पहुंचा जिसमें मायारानी सो रही थी। हम दोनों नकाब डाले हुए थे। उस समय इसके सिवाय और कोई काम न कर सके कि कुछ रुपये देकर एक मालिन को इस बात पर राजी करें कि कल रात के समय तू चुपके से चोरदरवाजा खोल दीजो क्योंकि कमलिनी इस बाग में आना चाहती है। यह काम इस मतलब से नहीं किया गया कि वास्तव में कमलिनी वहां जाने वाली थी बल्कि इस मतलब से था कि किसी तरह से कमलिनी के जाने की झूठी खबर मायारानी को मालूम हो जाय और वह कमलिनी को गिरफ्तर करने के लिए पहले से तैयार रहे जिसके बदले में हम और भूतनाथ जाने वाले थे, क्योंकि आगे जो कुछ मैं कहूंगा उससे मालूम होगा कि वह मालिन तो इस भेद को छिपाया चाहती थी और हम लोग हर तरह से प्रकट करके अपने को गिरफ्तार कराया चाहते थे। इसी सबब से दूसरे दिन आधी रात के समय हम दोनों फिर उस बाग में उसी राह से पहुंचे जिसका हाल मेरे सिवाय और कोई भी नहीं जानता - बाग ही में नहीं, बल्कि उस कमरे में पहुंचे जिसमें मायारानी अकेली सो रही थी। उस समय वहां केवल एक हांडी जल रही थी जिसे जाते ही मैंने बुझा दिया और इसके बाद दरवाजे में ताला लगा दिया जो अपने साथ ले गया था। यद्यपि दरवाजे पर पहरा पड़ रहा था मगर मैं दरवाजे की राह से नहीं गया था बल्कि एक सुरंग की राह से गया था जिसका सिरा उसी कोठरी में निकलता था। उस कोठरी की दीवार लकड़ी की थी और इस बात का गुमान भी नहीं हो सकता था कि दीवार में कोई दरवाजा है। यह दरवाजा केवल एक तख्ते के हट जाने से खुलता है और तख्ता एक कमानी के सहारे पर है। खैर ताला बन्द कर देने के बाद मैंने जानबूझकर एक शीशा जमीन पर गिरा दिया जिसकी आवाज से मायारानी चौंक उठी। अंधेरे के कारण सूरत तो दिखाई नहीं देती थी इसलिए मैं नहीं कह सकता कि उसने क्या - क्या किया मगर इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह बहुत ही घबड़ाई होगी और वह घबड़ाहट उसकी उस समय और भी बढ़ गई होगी, जब दरवाजे के पास पहुंचकर उसने देखा होगा कि वहां ताला बन्द है। मैं पैर पटक-पटककर कमरे में घूमने लगा। थोड़ी देर में टटोलता हुआ मायारानी के पास पहुंचकर मैंने उसकी कलाई पकड़ ली और जब वह चिल्लाई तो एक तमाचा जड़ के अलग हो गया। तब मैंने एक चोर लालटेन जलाई जो मेरे पास थी। उस समय तक मायारानी डर और मार खाने के कारण बेहोश हो चुकी थी। मैंने दरवाजे का ताला खोल दिया और उसे उठाकर चारपाई पर लिटा देने के बाद वहां से चलता बना। यह कार्रवाई इसलिए की गई थी कि मायारानी घबड़ाकर बाहर निकले और उसकी लौंडियां इस घटना का पता लगाने के लिए चारों तरफ घूमें जिससे आगे हम लोग जो कुछ करेंगे उसकी खबर मायारानी को लग जाय। इसके बाद मैं और भूतनाथ एक नियत स्थान पर उस मालिन से जाकर मिले और उससे बोले कि आज तो कमलिनी नहीं आ सकी मगर कल आधी रात को जरूर आवेगी, चोरदरवाजा खुला रखियो! बेशक इस बात की खबर मायारानी को लग गई जैसा कि हम लोग चाहते थे, क्योंकि दूसरे दिन जब हम लोग चोरदरवाजे की राह बाग में पहुंचे तो हम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए कई आदमी मुस्तैद थे।
ऊपर लिखे हुए बयान से पाठक इतना तो जरूर समझ गये होंगे कि मायारानी के बाग में पहुंचने वाले दोनों नकाबपोश जिनका हाल सन्तति के नौवें भाग के चौथे और सातवें बयान में लिखा गया है ये ही राजा गोपालसिंह और भूतनाथ थे, इसलिए उन दोनों ने और जो कुछ काम किया उसे इस जगह दोहराकर लिखना हम इसलिए उचित नहीं समझते कि वह हाल पाठकगण पढ़ ही चुके हैं और उन्हें याद होगा। अस्तु यहां केवल इतना ही कह देना काफी है कि ये दोनों गोपालसिंह और भूतनाथ थे और राजा गोपालसिंह ने ही कोठरी के अन्दर बारी-बारी से पांच-पांच आदमियों को बुलाकर अपनी सूरत दिखाई और कुछ थोड़ा-सा हाल भी कहा था।
राजा गोपालसिंह ने यह सब पूरा - पूरा हाल तेजसिंह और भैरोसिंह से कहा और देर तक वे सुन-सुनकर हंसते रहे। इसके बाद देवीसिंह और भूतनाथ ने भी अपनी कार्रवाई का हाल कहा और फिर इस विषय में बातचीत होने लगी कि अब क्या करना चाहिए।
तेजसिंह - (गोपालसिंह से) अब आप खुले दिल से अपने महल में जाकर राज्य का काम कर सकते हैं इसलिए अब जो कुछ आपको करना है, हुकूमत के साथ कीजिए। ईश्वर की कृपा से अब आपको किसी तरह की चिन्ता न रही इसलिए इधर-उधर...
गोपालसिंह - यह आप नहीं कह सकते कि अब मुझे किसी तरह की चिन्ता नहीं, मगर हां बहुत-सी बातें जिनके सबब से मैं अपने महल में जाने से हिचकता था जाती रहीं इसलिए मेरी भी राय है कि कमलिनी और लाडिली को साथ लेकर मैं अपने घर जाऊं और वहां से दोनों कुमारों को मदद पहुंचाने का उद्योग करूं जो इस समय तिलिस्म के अन्दर जा पहुंचे हैं, क्योंकि यद्यपि तिलिस्म का फैसला उन दोनों के हाथों होना ब्रह्मा की लकीर-सा अटल हो रहा है तथापि मेरी मदद पहुंचने से उन्हें विशेष कष्ट न उठाना पड़ेगा। इसके साथ मैं यह भी चाहता हूं कि किशोरी और कामिनी को भी अपने तिलिस्मी बाग ही में बुलाकर रक्खूं...।
कमलिनी - जी नहीं, मैं तिलिस्मी बाग में तब तक नहीं जाऊंगी जब तक कम्बख्त मायारानी से अपना बदला न ले लूंगी और अपनी बहिन को, यदि वह अभी तक इस दुनिया में है, न ढूंढ़ निकालूंगी। किशोरी और कामिनी का भी आपके यहां रहना उचित नहीं है इसे आप अच्छी तरह गौर करके सोच लें। उनकी तरफ से आप निश्चिन्त रहें, तालाब वाले मकान में जो आजकल मेरे दखल में है, उन्हें किसी तरह की तकलीफ न होगी। मैं हाथ जोड़ के प्रार्थना करती हूं कि आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करें और मुझे अपनी राय पर छोड़ दें।
गोपालसिंह - (कुछ सोचकर) तुम्हारी बातों का बहुत - सा हिस्सा सही और वाजिब है मगर बेइज्जती के साथ तुम्हारा इधर-उधर मारे-मारे फिरना मुझे पसन्द नहीं। यद्यपि तुम्हें ऐयारी का शौक है और तुम इस फन को अच्छी तरह जानती हो मगर मेरी और इसी के साथ किसी और की इज्जत पर भी ध्यान देना उचित है। यह बात मैं तुम्हारी गुप्त इच्छा को अच्छी तरह समझकर कहता हूं। मैं तुम्हारी अभिलाषा में बाधक नहीं होता बल्कि उसे उत्तम और योग्य समझता हूं।
कमलिनी - (कुछ शर्माकर) उस दिन आप जो चाहें मुझे सजा दें जिस दिन किसी की जुबानी, जो ऐयार या उन लोगों में से न हो जिनके सामने मैं हो सकती हूं, आप यह सुन पावें कि कमलिनी या लाडिली की सूरत किसी ने देख ली या दोनों ने कोई ऐसा काम किया जो बेइज्जती या बदनामी से सम्बन्ध रखता है।
गोपालसिंह - (तेजसिंह से) आपकी क्या राय है?
तेजसिंह - मैं इस विषय में कुछ भी न बोलूंगा, हां, इतना अवश्य कहूंगा कि यदि आप कमलिनी की प्रार्थना स्वीकार कर लेंगे तो मैं अपने दो ऐयारों को इनकी हिफाजत के लिए छोड़ दूंगा।
गोपालसिंह - जब आप ऐसा कहते हैं तो मुझे कमलिनी की बात माननी पड़ी। खैर, थोड़े से सिपाही इनकी मदद के लिए मैं भी मुकर्रर कर दूंगा।
कमलिनी - मुझे उससे ज्यादा आदमियों की जरूरत नहीं है जितने मेरे पास थे, हां आप उन लोगों को एक चीठी मेरे जाने के बाद अवश्य लिख दें कि 'हम इस बात से खुश हैं कि तुम इतने दिनों से कमलिनी के साथ रहे और रहोगे।' हां इसके साथ एक काम और भी चाहती हूं।
गोपालसिंह - वह क्या?
कमलिनी - जब मैंने अपना किस्सा आपसे बयान किया था तो यह भी कहा था कि मायारानी ने तिलिस्मी मकान के जरिए से कुमार और उनके ऐयारों के साथ-ही-साथ कई बहादुर सिपाहियों को गिरफ्तार कर लिया था।
गोपालसिंह - हां, मुझे याद है, जिस मकान में बारी-बारी हंसकर वे लोग कूद गये थे।
कमलिनी - जी हां, कुमार और उनके ऐयार तो छूट गये, मगर मेरे सिपाहियों का अभी तक पता नहीं है, बेशक वे भी तिलिस्मी बाग में किसी ठिकाने कैद होंगे, जिसका पता आप लगा सकते हैं। मुझे आज तक यह न मालूम हुआ कि उनके हंसने और कूद पड़ने का क्या कारण था। इस विषय में कुमार से भी कुछ पूछने का मौका न मिला।
गोपालसिंह - मैं वादा करता हूं कि उन आदमियों को यदि वे मारे नहीं गए हैं तो अवश्य ढूंढ़ निकालूंगा, और इसका कारण कि वे लोग हंसते-हंसते उस मकान के अन्दर क्यों कूद पड़े सो तुम इसी समय देवीसिंह से भी पूछ सकती हो जो यहां मौजूद हैं और उन हंसते-हंसते कूद पड़ने वालों में शरीक थे।
देवीसिंह - माफ कीजिए, मैं उस विषय में तब तक कुछ भी न कहूंगा जब तक इन्द्रजीतसिंह मेरे सामने मौजूद न होंगे, क्योंकि उन्होंने इस बात को छिपाने के लिए मुझे सख्त ताकीद की है बल्कि कसम दे रखी है।
कमलिनी - यह और भी आश्चर्य की बात है, खैर, जाने दीजिए, फिर देखा जायेगा। हां, आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार की लाडिली मेरे साथ रहेगी।
गोपालसिंह - हां, स्वीकार की। मगर देखना, जो कुछ करना होशियारी ही से करना और मुझे बराबर खबर देती रहना।
तेजसिंह - मैं प्रतिज्ञानुसार अपने दो ऐयार तुम्हारे सुपुर्द करता हूं। जिन्हें तुम चाहो अपनी मदद के लिए ले लो।
कमलिनी - अच्छा, तो आप कृपाकर भूतनाथ और देवीसिंह को दे दीजिए।
तेजसिंह - भूतनाथ तो तुम्हारा ही ऐयार है उस पर अभी मेरा कोई अख्तियार नहीं है, वह अवश्य तुम्हारे साथ रहेगा, उसके अतिरिक्त दो ऐयार तुम और ले लो।
कमलिनी - निःसन्देह आपका मुझ पर बड़ा अनुग्रह है, मगर मुझे ज्यादा ऐयारों की आवश्यकता नहीं है।
तेजसिंह - खैर, यही सही फिर देखा जायेगा। (देवीसिंह से) अच्छा, तो तुम कमलिनी का काम करो और इनके साथ रहो।
देवीसिंह - बहुत अच्छा।
तेजसिंह - खैर, तो अब सभा विसर्जित होनी चाहिए, देखिये आसमान का रंग बदल गया। कमलिनी और लाडिली के लिए सवारी का क्या इन्तजाम होगा
कमलिनी - थोड़ी दूर जाकर मैं रास्ते में इसका इन्तजाम कर लूंगी आप बेफिक्र रहिये।
थोड़ी - सी और बातचीत के बाद सब कोई उठ खड़े हुए। कमलिनी, लाडिली, भूतनाथ तथा देवीसिंह ने दक्खिन का रास्ता पकड़ा और कुछ दूर जाने के बाद सूर्य भगवान की लालिमा दिखाई देने के पहले ही एक जंगल में गायब हो गये।