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भाग 1

 


भूतनाथ अपना हाल कहते-कहते कुछ देर के लिए रुक गया और इसके बाद एक लंबी सांस लेकर पुनः यों कहने लगा –
भूत - मैं अपने को कैदियों की तरह और अपने सामने अपनी ही स्त्री को सरदारी के ढंग पर बैठे हुए देखकर एक दफे घबड़ा गया और सोचने लगा कि यह क्या मामला है मेरी स्त्री मुझे अपने सामने ऐसी अवस्था में देखे और सिवाय मुस्कराने के कुछ न बोले!! अगर वह चाहती तो मुझे अपने पास गद्दी पर बैठा लेती क्योंकि इस कमरे में जितने दिखाई दे रहे हैं उन सभों की वह सरदार मालूम पड़ती है, इत्यादि बातों को सोचते-सोचते मुझे क्रोध चढ़ आया और मैंने लाल आंखों से उसकी तरफ देखकर कहा, “क्या तू मेरी स्त्री वही रामदेई है जिसके लिए मैंने तरह-तरह के कष्ट उठाये और जो इस समय मुझे कैदियों की अवस्था में अपने सामने देख रही है?'
इसके जवाब में मेरी स्त्री ने कहा, “हां, मैं वही रामदेई हूं जिसके लड़के को तुम किसी जमाने में अपना होनहार लड़का समझकर चाहते और प्यार करते थे मगर आज उसे दुश्मनी की निगाह से देख रहे हो; मैं वही रामदेई हूं जो तुम्हारे असली भेदों को न जानकर और तुम्हें नेक, ईमानदार और सच्चा ऐयार समझकर तुम्हारे फंदे में फंस गई थी मगर आज तुम्हारे असली भेदों का पता लग जाने के कारण डरती हुई तुमसे अलग हुआ चाहती हूं; मैं वही रामदेई हूं जिसे तुमने नकाबपोशों के मकान में देखा था; और मैं वही रामदेई हूं जिसने उस दिन तुम्हें जंगल में धोखा देकर बैरंग वापस होने पर मजबूर किया था, मगर मैं वह रामदेई नहीं हूं जिसे तुम 'लामाघाटी' में छोड़ आए हो।”
मुझे उस ओैरत की बातों ने ताज्जुब में डाल दिया और मैं हैरानी के साथ उसका मुंह देखने लगा, अनूठी बात तो यह थी कि वह अपनी बातों में शुरू से तो रामदेई अथवा मेरी स्त्री बनती चली आई मगर आखिर में बोल बैठी कि 'मगर मैं वह रामदेई नहीं हूं जिसे तुम लामाघाटी में छोड़ आए हो', आखिर बहुत सोच-विचारकर मैंने पुनः उससे कहा, “अगर तू वह रामदेई नहीं है जिसे मैं लामाघाटी में छोड़ आया था तो तू मेरी स्त्री भी नहीं है।”
स्त्री - तो यह कौन कहता है कि मैं तुम्हारी स्त्री हूं।
मैं - अभी इसके पहले तूने क्या कहा था?
स्त्री - (हंसकर) मालूम होता है कि तुम अपने होश में नहीं हो।
इतना सुनते ही मुझे क्रोध चढ़ आया और मैं अपनी हथकड़ी-बेड़ी तोड़ने का उद्योग करने लगा। यह हाल देखकर उस औरत को भी क्रोध आ गया और उसने अपनी एक सखी या लौंडी की तरफ देखकर कुछ इशारा किया। वह लौंडी इशारा पाते ही उठी और उसी जगह आले पर से एक बोतल उठा लाई जिसमें किसी प्रकार का अर्क था। उस अर्क से चुल्लू भर उसने दो-तीन छींटे मेरे मुंह पर दिये जिसके सबब से मैं बेहोश हो गया और मुझे तनोबदन की सुध न रही। मैं यह नहीं बता सकता कि इसके बाद कै घंटे तक मैं उसके कब्जे में रहा परंतु जब होश में आया तो मैंने अपने को जंगल में एक पेड़ के नीचे पाया। घंटों तक ताज्जुब के साथ चारों तरफ देखता रहा, इसके बाद एक चश्मे के किनारे जाकर हाथ-मुंह धोने के बाद इस तरफ रवाना हुआ। बस यही सबब था कि मुझे हाजिर होने में देर हो गई।
भूतनाथ की बातें सुनकर सभों को ताज्जुब हुआ मगर वे दोनों नकाबपोश एकदम खिलखिलाकर हंस पड़े और उनमें से एक ने भूतनाथ की तरफ देखकर कहा –
नकाब - भूतनाथ, निःसंदेह तुम धोखे में पड़ गये, उस औरत ने तो जो कुछ तुमसे कहा उसमें शायद ही दो-तीन बातें सच हों।
भूत - (ताज्जुब से) सो क्या! उसने कौन-सी बातें सच कही थीं, कौन-सी झूठ?
नकाब - सो मैं नहीं कह सकता मगर आशा है कि शीघ्र ही तुम्हें सच-झूठ का पता लग जायगा।
भूतनाथ ने बहुत कुछ चाहा मगर नकाबपोश ने उसके मतलब की कोई बात न कही। थोड़ी देर तक इधर-उधर की बातें करके नकाबपोश बिदा हुए और जाते समय एक सवाल के जवाब में कह गये कि “आप लोग दो दिन और सब्र करें, इसके बाद कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह के सामने ही सब भेदों का खुलना अच्छा होगा क्योंकि उन्हें इन बातों के जानने का बड़ा शौक था।”