Get it on Google Play
Download on the App Store

भाग 10

 


यह दालान जिसमें इस समय महाराज सुरेन्द्रसिंह वगैरह आराम कर रहे हैं, बनिस्बत उस दालान के जिसमें ये लोग पहले-पहल पहुंचे थे बड़ा और खूबसूरत बना हुआ था। तीन तरफ दीवार थी और बाग की तरफ तेरह खंभे और महराब लगे हुए थे जिससे इसे बारहदरी भी कह सकते हैं। इसकी कुर्सी लगभग ढाई हाथ के ऊंची थी और इसके ऊपर चढ़ने के लिए पांच सीढ़ियां बनी हुई थीं। बारहदरी के आगे की तरफ कुछ सहन छूटा हुआ था जिसकी जमीन (फर्श) संगमर्मर और संगमूसा के चौखूटे पत्थरों से बनी हुई थी। बारहदरी की छत में मीनाकारी का काम बना हुआ था और तीनों तरफ की दीवारों में कई अलमारियां भी थीं।
रात पहर भर से कुछ ज्यादे जा चुकी थी। इस बारहदरी में जिसमें सब कोई आराम कर रहे थे एक अलमारी की कार्निस के ऊपर मोमबत्ती जल रही थी जो देवीसिंह ने अपने ऐयारी के बटुए में से निकालकर जलाई थी। किसी को नींद नहीं आयी थी बल्कि सब कोई बैठे हुए आपस में बातें कर रहे थे। महाराज सुरेन्द्रसिंह बाग की तरफ मुंह किये बैठे थे और उन्हें सामने की पहाड़ी का आधा हिस्सा भी जिस पर इस समय अंधकार की बारीक चादर पड़ी हुई थी, दिखाई दे रहा था। उस पहाड़ी पर यकायक मशाल की रोशनी देखकर महाराज चौंके और सभों को उस तरफ देखने का इशारा किया।
सभों ने उस रोशनी की तरफ ध्यान दिया और दोनों कुमार ताज्जुब के साथ सोचने लगे कि यह क्या मामला है इस तिलिस्म में हमारे सिवाय किसी गैर आदमी का आना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव है, तब फिर मशाल की रोशनी कैसी! खाली रोशनी ही नहीं बल्कि उसके पास चार-पांच आदमी भी दिखाई देते हैं, हां यह नहीं जान पड़ता कि वे सब औरत हैं या मर्द।
और लोगों के विचार भी दोनों कुमारों ही की तरह थे और मशाल के साथ कई आदमियों को देखकर सभी ताज्जुब कर रहे थे। यकायक वह रोशनी गायब हो गई और आदमी दिखाई देने से रह गये मगर थोड़ी ही देर बाद वह रोशनी फिर दिखाई दी। अबकी दफे रोशनी और भी नीचे की तरफ थी और उसके साथ के आदमी साफ-साफ दिखाई देते थे।
गोपाल - (इंद्रजीतसिंह से) मैं समझता था कि आप दोनों भाइयों के सिवाय कोई गैर आदमी इस तिलिस्म में नहीं आ सकता।
इंद्रजीत - मेरा भी यही खयाल था मगर क्या आप भी यहां तक नहीं आ सकते आप तो तिलिस्म के राजा हैं।
गोपाल - हां मैं तो आ सकता हूं मगर सीधी राह से और अपने को बचाते हुए, वे काम मैं नहीं कर सकता जो आप कर सकते हैं, परंतु आश्चर्य तो यह है कि वे लोग पहाड़ पर से आते हुए दिखाई दे रहे हैं जहां से आने का रास्ता ही नहीं है। तिलिस्म बनाने वालों ने इस बात को जरूर अच्छी तरह विचार लिया होगा।
इंद्रजीत - बेशक ऐसा ही है मगर यहां पर क्या समझा जाय मेरा खयाल है कि थोड़ी ही देर में वे लोग इस बाग में आ पहुंचेंगे।
गोपाल - बेशक ऐसा ही होगा, (रुककर) देखिए रोशनी फिर गायब हो गई, शायद वे लोग किसी गुफा में घुस गये।
कुछ देर तक सन्नाटा रहा और सब कोई बड़े गौर से उस तरफ देखते रहे, इसके बाद यकायक बाग के पश्चिम तरफ वाले दालान में रोशनी मालूम होने लगी जो उस दालान के ठीक सामने था जिसमें हमारे महाराज तथा ऐयार लोग टिके हुए थे, मगर पेड़ों के सबब से साफ नहीं दिखाई देता था कि दालान में कितने आदमी आए हैं और क्या कर रहे हैं।
जब सभों को निश्चय हो गया कि वे लोग धीरे-धीरे पहाड़ों के नीचे उतरकर बाग के दालान या बारहदरी में आ गए हैं तब महाराज सुरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह को हुक्म दिया कि जाकर देखो और पता लगाओ कि वे लोग कौन हैं और क्या कर रहे हैं?
गोपाल - (महाराज से) तेजसिंहजी का वहां जाना उचित न होगा क्योंकि यह तिलिस्म का मामला है और यहां की बातों से ये बिल्कुल बेखबर हैं, यदि आज्ञा हो तो कुंअर इंद्रजीतसिंह को साथ लेकर मैं जाऊं।
महाराज - ठीक है, अच्छा तुम्हीं दोनों आदमी जाकर देखो क्या मामला है। कुंअर इंद्रजीतसिंह और राजा गोपालसिंह वहां से उठे और धीरे-धीरे तथा पेड़ों की आड़ में अपने को छिपाते हुए उस दालान की तरफ रवाना हुए जिसमें रोशनी दिखाई दे रही थी, यहां तक कि उस दालान अथवा बारहदरी के बहुत पास पहुंच गये और एक पेड़ की आड़ में खड़े होकर गौर से देखने लगे।
इस दालान में उन्हें पंद्रह आदमी दिखाई दिये जिनके विषय में यह जानना कठिन था कि वे मर्द हैं या औरत, क्योंकि सभों की पोशाक एक ही रंग-ढंग की तथा सभों के चेहरे पर नकाब पड़ी हुई थी। इन्हीं पंद्रह आदमियों में से दो आदमी मशालची का काम दे रहे थे। जिस तरह उनकी पोशाक खूबसूरत और बेशकीमती थी उसी तरह मशाल भी सुनहरी तथा जड़ाऊ काम की दिखाई दे रही थी और उसके सिरे की तरफ बिजली की तरह रोशनी हो रही थी, इसके अतिरिक्त उनके हाथ में तेल की कुप्पी न थी और इस बात का कुछ पता नहीं लगता था कि इस मशाल की रोशनी का सबब क्या है।
राजा गोपालसिंह और इंद्रजीतसिंह ने देखा कि वे लोग शीघ्रता के साथ उस दालान को सजाने और फर्श वगैरह को ठीक करने का इंतजाम कर रहे हैं। बारहदरी के दाहिने तरफ एक खुला हुआ दरवाजा है जिसके अंदर वे लोग बार-बार जाते हैं और जिस चीज की जरूरत समझते हैं ले आते हैं। यद्यपि उन सभों की पोशाक एक ही रंग-ढंग की है और इसलिए बड़ाई-छुटाई का पता लगाना कठिन है तथापि उन सभों में से एक आदमी ऐसा है जो स्वयं कोई काम नहीं करता और एक किनारे कुर्सी पर बैठा हुआ अपने साथियों से काम ले रहा है। उसके हाथ में एक विचित्र ढंग की छड़ी दिखाई दे रही है जिसके मुट्ठे पर निहायत खूबसूरत और कुछ बड़ा हिरन बना हुआ है। देखते ही देखते थोड़ी देर में बारहदरी सज के तैयार हो गई और कंदीलों की रोशनी से जगमगाने लगी। उस समय वह नकाबपोश जो कुर्सी पर बैठा हुआ था और जिसे हम उस मंडली का सरदार भी कह सकते हैं अपने साथियों से कुछ कह-सुनकर बारहदरी के नीचे उतर आया और धीरे-धीरे उस तरफ रवाना हुआ जिधर महाराज सुरेन्द्रसिंह वगैरह टिके हुए थे।
यह कैफियत देखकर राजा गोपालसिंह और इंद्रजीतसिंह जो छिपे-छिपे सब तमाशा देख रहे थे वहां से लौटे और शीघ्र ही महाराज के पास पहुंचकर जो कुछ देखा था संक्षेप में बयान किया। उसी समय एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया। सभों का ध्यान उसी तरफ चला गया और इंद्रजीतसिंह और राजा गोपालसिंह ने समझा कि यह वही नकाबपोशों का सरदार होगा जिसे हम उस बारहदरी में देख आये हैं और जो हमारे देखते-देखते वहां से रवाना हो गया था मगर जब पास आया तो सभों का भ्रम जाता रहा और एकाएक इंद्रदेव पर निगाह पड़ते ही सब कोई चौंक पड़े। राजा गोपालसिंह और इंद्रजीतसिंह को इस बात का भी शक हुआ कि वह नकाबपोशों का सरदार शायद इंद्रदेव ही हो, मगर यह देखकर उन्हें ताज्जुब मालूम हुआ कि इंद्रदेव उस (नकाबपोश की-सी) पोशाक में न था जैसा कि उस बारहदरी में देखा था बल्कि वह अपनी मामूली दरबारी पोशाक में था।
इंद्रदेव ने वहां पहुंचकर महाराज सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, राजा गोपालसिंह तथा दोनों कुमारों को अदब के साथ झुककर सलाम किया और इसके बाद बाकी ऐयारों से भी “जै माया की” कहा।
सुरेन्द्र - इंद्रदेव, जब से हमने इंद्रजीतसिंह की जुबानी यह सुना है कि इस तिलिस्म के दारोगा तुम हो तब से हम बहुत ही खुश हैं, मगर ताज्जुब होता था कि तुमने इस बात की हमें कुछ भी खबर नहीं की और न हमारे साथ यहां आये ही। अब यकायक इस समय यहां पर तुम्हें देखकर हमारी खुशी और भी ज्यादे हो गई। आओ हमारे पास बैठ जाओ और यह कहो कि हम लोगों के साथ तुम यहां क्यों नहीं आये?
इंद्रदेव - (बैठकर) आशा है कि महाराज मेरा वह कसूर माफ करेंगे। मुझे कई जरूरी काम करने थे जिनके लिए अपने ढंग पर अकेले आना पड़ा। बेशक मैं इस तिलिस्म का दारोगा हूं और इसीलिए अपने को बड़ा ही खुशकिस्मत समझता हूं कि ईश्वर ने इस तिलिस्म को आप जैसे प्रतापी राजा के हाथ सौंपा है। यद्यपि आपके फर्माबर्दार और होनहार पोतों ने इस तिलिस्म को फतह किया है और इस सबब से वे इसके मालिक हुए हैं तथापि इस तिलिस्म का सच्चा आनंद और तमाशा दिखाना मेरा ही काम है, यह मेरे सिवाय किसी दूसरे के किए नहीं हो सकता। जो काम कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह का था उसे ये कर चुके अर्थात् तिलिस्म तोड़ चुके और जो कुछ इन्हें मालूम होना था हो चुका, परंतु उन बातों, भेदों और स्थानों का पता इन्हें नहीं लग सकता जो मेरे हाथ में हैं और जिसके सबब से मैं इस तिलिस्म का दारोगा कहलाता हूं। तिलिस्म बनाने वालों ने तिलिस्म के संबंध में दो किताबें लिखी थीं जिनमें से एक तो दारोगा के सुपुर्द कर गये और दूसरी तिलिस्म तोड़ने वाले के लिए छिपाकर रख गये जो कि अब दोनों कुमारों के हाथ लगीं, या कदाचित इनके अतिरिक्त और भी कोई किताब उन्होंने लिखी हो तो उसका हाल मैं नहीं जानता, हां जो किताब दारोगा के सुपुर्द कर गये थे वह वसीयतनामे के तौर पर पुश्तहापुश्त से हमारे कब्जे में चली आ रही है और आजकल मेरे पास मौजूद है। यह मैं जरूर कहूंगा कि तिलिस्म में बहुत से मुकाम ऐसे हैं जहां दोनों कुमारों का जाना तो असंभव ही है परंतु तिलिस्म टूटने के पहले मैं भी नहीं जा सकता था, हां अब मैं वहां बखूबी जा सकता हूं। आज मैं इसीलिए इस तिलिस्म के अंदर आपके पास आया हूं कि इस तिलिस्म का पूरा-पूरा तमाशा आपको दिखाऊं जिसे कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह नहीं दिखा सकते। परंतु इन कामों के पहले मैं महाराज से एक चीज मांगता हूं जिसके बिना काम नहीं चल सकता।
महाराज - वह क्या?
इंद्रदेव - जब तक इस तिलिस्म में आप लोगों के साथ हूं तब तक अदब, लेहाज और कायदे की पाबंदी से माफ रखा जाऊं!
महाराज - इंद्रदेव, हम तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। जब तक तिलिस्म में हम लोगों के साथ हो तभी तक के लिए नहीं बल्कि हमेशा के लिए हमने इन बातों से तुम्हें छुट्टी दी, तुम विश्वास रखो कि हमारे बाल-बच्चे और सच्चे साथी भी हमारी इस बात का पूरा-पूरा लेहाज रखेंगे।
यह सुनते ही इंद्रदेव ने उठकर महाराज को सलाम किया और फिर बैठकर कहा, “अब आज्ञा हो तो खाने-पीने का सामान जो आप लोगों के लिए लाया हूं हाजिर करूं।”
महाराज - अच्छी बात है लाओ, क्योंकि हमारे साथियों में से कई ऐसे हैं जो भूख के मारे बेताब हो रहे होंगे।
तेज - इंद्रदेव, तुमने इस बात का परिचय तो दिया ही नहीं कि तुम वास्तव में इंद्रदेव ही हो या कोई और?
इंद्रदेव - (मुस्कराकर) मेरे सिवाय कोई गैर यहां आ नहीं सकता।
तेज - तथापि - 'चिलेण्डोला'।
इंद्रदेव - 'चक्रधर'।
वीरेन्द्र - मैं एक बात और पूछना चाहता हूं।
इंद्रदेव - आज्ञा।
वीरेन्द्र - वह स्थान कैसा है जहां तुम रहा करते हो और जहां मायारानी अपने दारोगा को लेकर तुम्हारे पास गई थी।
इंद्रदेव - वह स्थान तिलिस्म से संबंध रखता है और यहां से थोड़ी ही दूर पर है। मैं स्वयं आप लोगों को लेकर वहां की सैर कराऊंगा। इसके अतिरिक्त अभी मुझे बहुत-सी बातें कहनी हैं। पहले आप लोग भोजन से छुट्टी पा लें।
तेज - हम लोग मशाल की रोशनी में क्या आप ही लोगों को पहाड़ से उतरते देख रहे थे
इंद्र - जी हां, मैं एक निराले ही रास्ते से यहां आया हूं। आप लोग बेशक ताज्जुब करते होंगे कि पहाड़ पर से कौन उतर रहा है परंतु मैं अकेला ही नहीं आया हूं बल्कि कई तमाशे भी अपने साथ लाया हूं मगर उनका जिक्र करने का अभी मौका नहीं है।
इतना कहकर इंद्रदेव उठ खड़ा हुआ और देखते-देखते दूसरी तरफ चला गया, मगर उनकी इस बात ने कि - 'कई तमाशे भी अपने साथ लाया हूं' कइयों को ताज्जुब और घबड़ाहट में डाल दिया।