Get it on Google Play
Download on the App Store

मयमतम् - अध्याय २०


 (मन्दिर के) दूसरे तल के पाँच प्रकार के प्रमाण को क्रमशः संक्षेप में कहता हूँ । पाँच-छः हाथ से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ की वृद्धि से तेरह या चौदह हाथपर्यन्त उसकी ऊँचाई पूर्व-वर्णित नियम के अनुसार होनी चाहिये । (निचले तल के) विस्तार के छः या सात भाग करने चाहिये । उसके एक भाग को सौष्ठिक (कर्णकूट) के लिये ग्रहण करना चाहिये ॥१-२॥
कोष्ठ (मन्दिर के मध्य भाग का कूट) की लम्बाई के लिये दो या तीन भाग का प्रमाण एवं शेष भाग में हार (गलियारा) एवं पञ्जर (अलङ्करणविशेष) होना चाहिये । विमान (देवालय) की ऊँचाई को अट्ठाईस भागों में बाँटना चाहिये ॥३॥
(उपर्युक्त अट्ठाईस भाग में) तीन भाग मसूरक (अधिष्ठान), छः भाग अङिघ्र (भूतल), तीन भाग मञ्च, पाँच भाग अंघ्रि (तल), दो भाग मञ्च, एक भाग वितर्दिक (वेदिका), दो भाग कन्धर, साढ़े चार भाग शिकर एवं डेढ़ भाग कुम्भ के लिये होता है । यह परिकल्पना मूल से (शिखरपर्यन्त) की गई है ॥४-५॥
स्वस्तिक
(स्वस्ति देवालय का) अधिष्ठान चतुर्भुज होता है एवं कन्धर तथा मस्तक (शीर्षभाग) भी उसी प्रकार होता है । यह चार कूटों एवं चार कोष्ठों (मध्य-कूट) से युक्त होता है ॥६॥
ऊपरी भाग में आठ दभ्रनीड (सजावटी खिड़कियाँ) तथा अड़तालीस अल्पनासिक (अत्यन्त छोटे अलङ्करण-विशेष) होते है । शिखरभाग में चार बड़े आकार के नीड (सजावटी खिड़कियाँ) होते है ॥७॥
हार (चारो ओर निर्मित गलियारा) के मध्य भाग में भित्ति पर कुम्भ से निर्गत लतायें निर्मित होती है तथा तोरण, वेदिका एवं विभिन्न प्रकार के अङ्कनों से भवन सुसज्जित रहता है । यह भवन सभी देवों के अनुकूल होता है एवं इसका नाम स्वस्तिक होत है ॥८॥
यदि देवालय के सौष्ठिक (कर्णकूट) नीचे हों एवं कोष्ठक (मध्य-कूट) ऊँचा हो तथा अन्तर प्रस्तर से युक्त हो तो उसे 'विपुलसुन्दर' कहते है ॥९॥
कूट का लक्षण - 
द्वितल आदि वाले विमान (देवालय) में पादोदय, (पूरे देवालय) के दश भाग होने चाहिये । एक भाग से वितर्दि, तीन भाग से अङिघ्र, पौने दो भाग से प्रस्तर, सवा भाग से ग्रीव तथा तीन भाग से मस्तक निर्मित होना चाहिये । अन्तर प्रस्तर से युक्त ऊँचे भवन को 'कूटशाल' कहते है ॥१०-११॥
यदि कोष्ठक नीचा हो एवं सौष्ठिक ऊँचा हो तथा अन्तर-प्रस्तर से युक्त हो तो उस भवन (देवालय) को कैलास कहते है ॥१२॥
यदि वेदी, कन्धर, शिखर एवं घट वर्तुलाकार हो, आठ कूट हो, चार शाल से युक्त हो, छप्पन नासिक (सजावटी खिड़कियों की आकृतियाँ) हों, कोष्ठक (मध्य कूट) से प्राराम्भ हुये दो या तीन दण्ड के निर्गम सौष्ठिक से सम्बद्ध होते है । समान माप वाले ग्रीवा एवं शीर्षभाग से युक्त कूट-कोष्ठ होते है । विविध प्रकार के अधिष्ठान से युक्त एवं विविध प्रकार के स्तम्भों से सुसज्जित विमान की संज्ञा 'पर्वत' होती है एवं यह सभी के अनुकूल होती है ॥१३-१५॥
देवालय के शिखर पर चार अर्धकोष्ठ हो, इनका शिरोभाग चौकोर हो एवं चार कूटों से युक्त हो, अनेक प्रकार के अधिष्ठान से युक्त हों एवं अड़तालीस अल्पनासिक हो, तो उसकी संज्ञा 'स्वस्तिबन्ध' होती है एवं यह विभिन्न अङ्गों से सुसज्जित होता है ॥१६-१७॥
यदि कोणों एवं मध्य में अन्तर-प्रस्तर से युक्त कोष्ठ हों, हारा (गलियारा) एवं अल्प-पञ्जर नीचे हो, बहत्तर अल्प-नासिक हो तथा विभिन्न अलङ्करणों से युक्त हो तो उस देवालय को 'कल्याण' कहते है ॥१८-१९॥
यदि देवालय के शिखरभाग पर अर्धकोष्ठ न हो तथा वहाँ चार नीडा (सजावटी खिड़की की आकृतिविशेष) निर्मिथो तो उसे 'पाञ्चाल' कहते है ॥२०॥
यदि देवालय की वेदी, कन्धर, शिखर एवं घट अष्ट-कोण हो तथा शिखर पर आठ महानासी निर्मित हो, तो उसकी संज्ञा 'विष्णुकान्त' होती है ॥२१॥
यदि देवालय कूट, शाला (मध्य कोष्ठ) एवं अन्तर-प्रस्तर से रहित हो, चार भुजाओं वाला हो तथा लम्बाई चौड़आई से चतुर्थांश अधिक हो, वेदी, कन्धर एवं शिखर आयताकार हो एवं तीन स्तूपियाँ हो तो उसका नाम 'सुमङ्गल' होता है ॥२२-२३॥
यदि देवालय की वेदिका, गल एवं शिरोभाग वृत्तायत (लम्बाई लिये वृत्ताकार) हो तथा सभी अङ्गों से भवन युक्त हो तो उसकी संज्ञा 'गान्धार' होती है ॥२४॥
यदि देवालय आयताकार हो तथा लम्बाई चौड़ाई से आधा भाग अधिक हो, शिरोभाग दो कोण से युक्त गोलाई लिये हो तथा मुखभाग (सामने) पर नेत्रशाला (नेत्र की आकृति का प्रकोष्ठ) हो तो उसे 'हस्तिपृष्ठ कहते है । इसका अधिष्ठान दो कोण से युक्त गोलाकार भी हो सकता है ॥२५॥
यदि देवालय का अधिष्ठान चौकोर हो एवं गर्भगृह वृत्ताकार हो तथा भवन सभी अलङ्करणों से युक्त हो तो उसकी संज्ञा 'मनोहर' होती है ॥२६॥
यदि जन्म (भवन के मूल) से लेकर कुम्भ (शिखर भाग) तक देवालय बाहर एवं भीतर से वृत्ताकार हो एवं शेष भाग पूर्ववर्णित विधि के अनुसार हो तो उसे 'ईश्वरकान्त' कहते है ॥२७॥
यदि देवालय का गर्भगृह चौकोर हो, अधिष्ठान गोलाकार हो तथा जन्म से लेकर स्तूपिकापर्यन्त भवन वृत्ताकार हो तो उसे 'वृत्तहर्म्य' कहते है ॥२८॥
यदि अधिष्ठान चौकोर हो तथा कन्धर एवं शिर षट्‍कोण हो एवं शेष सभी भाग पूर्ववत् हो तो उस देवालय की संज्ञा 'कुबेरकान्त' होती है ॥२९॥
दो तल वाले भवनों के प्रमाण पाँच प्रकार के होते है एवं उनके भेद पन्द्रह होते है । बुद्धिमान (स्थपति) को भवन का निर्माण उसी प्रकार करना चाहिये, जिस प्रकार उनका वर्णन किया गया है ॥३०॥
पुनः धामभेद
पुनः भवन के भेद - सञ्चित, असञ्चित एव उपसञ्चित संज्ञक भवन के तीन भेद होते है ॥३१॥
उपर्युक्त भेदों को स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक कहते है । ईंटों अथवा शिलाओं से निर्मित भवन 'सञ्चित' होता है ॥३२॥
कपोत आदि जिस भवन के शीर्षभाग पर हो, उसे पुरुष भवन कहते है । ईटों या काष्ठ से निर्मित, भोग एवं आग (शिरोभाग के विशिष्ट निर्माण) से युक्त भवन स्त्रीत्वयुक्त 'असञ्चित' संज्ञक होते है । काष्ठ अथवा ईंटों से निर्मित भोग एवं अभोग से युक्त तथा घन एवं अघन अङ्गों से युक्त भवन नपुंसक होता है । इसकी संज्ञा 'उपसञ्चित' होती है ॥३३-३४॥
मनीषियों के अनुसार खण्डभवन की स्थूपी (स्तूपिका) का मान ऊपरी तल के स्तम्भके सातवें भाग के बराबर होता है । छत की ऊँचाई (स्तम्भ के सात भाग) के तीन भाग के बराबर, गल दो भाग के बराबर एवं वितर्दिक (गल का आधार) एक भाग के बराबर होता है ॥३५॥
तोरण की ऊँचाई के लिये स्तम्भ के दश, नौ या आठ भाग करने चाहिये । उनमें क्रमशः सातवें, छठे या पाँचवे भाग को ग्रहण करना चाहिये । शेष भाग से झषांश (मछली की आकृति के सदृश गोलाई लिये पट्टिका) निर्मित करना चाहिये । इसकी चौड़ाई लम्बाई की आधी, छठवें भाग, पाँचवे भाग अथवा चौथे भाग के बराबर रखनी चाहिये ॥३६॥
नीड (सजावटी खिड़की की आकृति) की चौड़ाई उसकी ऊँचाई के बराबर होनी चाहिये । उन दोनों (तोरण एवं नीड) की परिधि स्तम्भ के मूल भाग के तीन चौथाई के बराबर होनी चाहिये । हार के मध्य, भवन-मध्य, कूट पर एवं कोष्ठ पर तोरण से अलङ्करण करना चाहिये ॥३७॥
द्वार के रक्षक का कक्ष द्वार के दोनों पार्श्वों में, द्वार के समीप अथवा पद के मध्य में होना चाहिये । इसकी ऊँचाई उत्तरमण्डपर्यन्त, खण्डपर्यन्त, पोतिकापर्यन्त अथवा तोरणपर्यन्त कही गई है । सभी भवनों में उचित रीति से प्रवेश-भाग का निर्माण युक्तिपूर्वक करना चाहिये ॥३८-३९॥
 

मयमतम्‌

Contributor
Chapters
मयमतम् - अध्याय १ मयमतम् - अध्याय २ मयमतम् - अध्याय ३ मयमतम् - अध्याय ४ मयमतम् - अध्याय ५ मयमतम् - अध्याय ६ मयमतम् - अध्याय ७ मयमतम् - अध्याय ८ मयमतम् - अध्याय ९ मयमतम् - अध्याय १० मयमतम् - अध्याय ११ मयमतम् - अध्याय १२ मयमतम् - अध्याय १३ मयमतम् - अध्याय १४ मयमतम् - अध्याय १५ मयमतम् - अध्याय १६ मयमतम् - अध्याय १७ मयमतम् - अध्याय १८ मयमतम् - अध्याय १९ मयमतम् - अध्याय २० मयमतम् - अध्याय २१ मयमतम् - अध्याय २२ मयमतम् - अध्याय २३ मयमतम् - अध्याय २४ मयमतम्‌ - अध्याय २५ मयमतम्‌ - अध्याय २६ मयमतम्‌ - अध्याय २७ मयमतम्‌ - अध्याय २८ मयमतम्‌ - अध्याय २९ मयमतम्‌ - अध्याय ३० मयमतम् - अध्याय ३१ मयमतम् - अध्याय ३२ मयमतम् - अध्याय ३३ मयमतम् - अध्याय ३४ मयमतम् - अध्याय ३५ मयमतम् - अध्याय ३६ मयमतम्‌ - परिशिष्ट