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अपराध का स्वीकार

“संस्थानक महोदय, क्या आप चुप नहीं रहेंगे? न्यायाधीश आप नहीं, मैं हूँ। कृपा कर के चुप रहिए।” उसी समय मैत्रेय अदालत में आया। उसने सुरक्षा के लिए वसन्तसेना के आभूषण एक थैले में ले रखे थे। चारुदत्त के घर में उन्हें छोड़ आना उसने ठीक नहीं समझा था।

मैत्रेय को देखकर संस्थानक चिल्लाया, “वसन्तसेना के मारने के अपराध में यह साथी है। यह उतना ही अपराधी है जितना चारुदत्त।"

मैत्रेय ने एकाएक बिजली की फुर्ती से संस्थानक को गले से पकड़ लिया और चिल्लाया, “ओ इर्ष्यालु सूअर, तुम ने मेरे मित्र को इस हालत तक पहुंचा दिया है। यह ले और यह ले, और यह ले।" उसने उसे खूब मारा भी| 

“तुमने मुझे मारा है|” संस्थानक चिल्लाया, “तुमने राजा के साले को मारा है|" और उसने मैत्रेय को मारना प्रारम्भ कर दिया।

“शाँति!! शांति!!!” न्यायाधीश चिल्लाया।

वहाँ के अधिकारी लपक कर उन झगड़ने वालों के पास पहुंचे और जल्दी ही शांति स्थापित कर दी। लेकिन लड़ते समय मैत्रेय का थैला खुल गया और वसन्तसेना के आभूषण गिर पड़े।

“यह देखिए..!!” संस्थानक चिल्लाया, “ये आभूषण वसन्तसेना के हैं। महोदय, मैंने तो पहले ही कहा था कि वसन्तसेना को मारने में यह भी चारुदत्त का साथी है।”

“क्या ये आभूषण वसन्तसेना के हैं?" न्यायाधीश ने पूछा, “मैं कैसे इस पर विश्वास करूं?” 

“उसकी माता जी से पूछ लीजिए कि ये आभूषण उनकी बेटी के हैं या नहीं, वह यहाँ पर उपस्थित हैं|” संस्थानक ने उत्तर दिया।

“देवी” न्यायाधीश ने वसन्तसेना की माता से पूछा, “क्या आपके विचार में ये आभूषण वसन्तसेना के हैं?"

वसन्तसेना की माता अपनी बेटी के खून के लिए चारुदत्त को लपेटना नहीं चाहती थीं। वह अच्छी तरह से जानती थी कि चारुदत्त और वसन्तसेना एक दूसरे से प्रेम करते हैं। लेकिन वह यह नहीं जानती थी कि उसकी बेटी ने स्वयं अपने आभूषण चारुदत्त के यहाँ छोड़े थे। वह जानती थी कि आभूषण वसन्तसेना के हैं और उसे अदालत में यह बात माननी पड़ी। फिर भी वह किसी तरह भी इस बात पर विश्वास नहीं कर सकती थी कि चारुदत्त जो इतना भला और सज्जन है वसन्तसेना को किसी भी तरह हानि पहुंचाने की बात सोच सकता है।

“चारुदत्त,” न्यायाधीश ने पुकारा, “मैत्रेय आपका मित्र है। उसके पास वसन्तसेना के आभूषण कैसे आये?"

चारुदत्त बहुत परेशान था। वसन्तसेना की मृत्यु हो गई थी और वह उसके बिना जीवित नहीं रहना चाहता था। वह बहुत गरीब और दुखी था। उसके लिए जीना वैसे ही बहुत मुश्किल था। यदि वह मर जाये तो शायद दूसरी दुनिया में अपनी वसन्तसेना से मिल सके। उसने सोचा मरना इस जीने से अच्छा होगा। जो अपराध संस्थानक ने उसके सिर थोपा है उसकी सज़ा मौत होगी। चारुदत्त ने अपराध स्वीकार करने का निश्चय किया|