भाग ३
आखिर माधव ने कहा, "यह आपकी शालीनता है कि आप ने मुझे पहचान लिया और भीतर बुलाया। अब आप अजनबी नहीं हैं,"
मालती ने उत्तर दिया, “हम कल मिले थे। हम अब एक दूसरे को जान गये हैं। अब आप को मुझ से बात करने की पूरी स्वतंत्रता है।“
“हम क्या बात करें?” माधव सोचने लगा। फिर भी कुछ तो कहना ही चाहिए।
"विश्वविद्यालय में पढ़ने के अतिरिक्त," माधव ने कहना शुरू किया, “मैं उच्च सैनिक प्रशिक्षण भी पा रहा हूँ। लेकिन यह सब कुछ नहीं है। आजकल तो सारा समय मैं आपके बारे में ही सोचता रहता हूँ।”
“मेरे बारे में सोचने की क्या बात है?" मालती ने पूछा।
माधव बोला, "मैं तुम्हारे लिए ही जीवित हूँ। यदि तुम मेरा प्रेम और मेरा हृदय स्वीकार करो तो मैं इन्हें तुम्हें समर्पित करता हूँ।”
“सिपाही तब तक कुछ पित नहीं करता है|" मालती बोली, "जब तक वह पूरी तरह हार न जाये।"
“मैं तो पूरी तरह हार चुका हूँ,” माधव ने उत्तर दिया, “कभी कभी अच्छे से अच्छा सिपाही भी हार जाता है। यहां मैं अपनी हार मानता हूँ।”
"तो मैंने लड़ाई जीत ली है...!!" मालती बोली।
"हां, हां, तुम जीत गयी हो,” माधव बोला,“ अब तुम मुझ से कुछ भी ले सकती हो।"
“अच्छा, तुम मुझे बाहर सैर के लिए ले चल सकते हो,” मालती ने कहा, लेकिन फिर एक क्षण सोचकर बोली, “ लेकिन आज नहीं। आज मैं भगवती माता कामंदकी के आने की राह देख रही हूँ। वे मुझे बहुत प्यार करती हैं।”
“भगवती कामंदकी?" माधव ने अचरज से पूछा|
“वे प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षुणी जिन से मेरे पिता ने मुझे मिलने के लिए कहा था। 'हां, वे प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षुणी हैं," मालती ने बताया। “यहां से कुछ दूर पर उनका बहुत बड़ा विहार है। वहां वे लोगों की भलाई के लिए बहुत से काम करती हैं। बहुत से दूसरे लोग भी उनकी सहायता करते हैं। हम सब काम उनकी सलाह से ही करते हैं।”
“एक दिन में भी जाकर उनसे मिलना चाहता हूँ,” माधव बोला।
“क्या मैं किसी समय जब उन्हें सुविधा हो तुम्हें उनके पास ले चलूँ। मैं तुम्हें विश्वास दिला सकती हूँ कि तुम्हें वे बहुत अच्छी लगेंगी।" मालती ने कहा|
“मालती," भगवती कामंदकी ने कहीं घर के भीतर से पुकारा।
“कृपा कर के अब मुझे जाने दीजिए। वे तो यहां पहुंच भी गई हैं। अलविदा। हम कल फिर मिलेंगे,"
यह कह कर मालती वहां से गायब हो गई।