कौए की चालाकी
रेल सिग्नल पास बैठा एक पीपल पेड़ ऊपर,
एक कौआ रोज़ सुनता गाड़ियों का शब्द 'घर-घर।
देखता व्ह रेल-गाड़ी रोज़ स्टेशन पर पहुँचती
और सीटी शीघ्र देकर फिर वहाँ से छूट चलती।
गाड़ियों के पहुँचने और छूटने का शोर सुन कर
वह खुशी से फूल जाता पर अपने फड़फड़ा कर ।
एक दिन मन में न जाने, क्या उसे सूझी अचानक
बुला लाया सभी भाई-बन्धुओं को वह वहाँ तक।
जब सभी कौए वहाँ आ पेड़ पर आसन लगा कर
जम गए तो कहा उसने-'सुनो सब जन कान देकर!
मैं चलाता रेल गाड़ी। जब कहूँ तब आयगी वह
और मेरा हुक्म पाकर फिर यहाँ से जायगी वह ।।
एक कौए ने कहा-'यह तो कभी हो ही न सकता!
रेल तेरी बात क्यों सुनने लगे? तू व्यर्थ बकता।"
कहा उसने बहुत अच्छा, जोर मेरा देख लो सब!
रोक लूँगा रेल गाड़ी को यहाँ कुछ देर तक अब ।'
झुकी तरुती तभी सिग्नल की, वहाँ आ रेल ठहरी;
सभी कौओं के मनों पर पड़ गई अब छाप गहरी ।
और थोड़ा समय बीता, गार्ड ने सीटी बजाई ।
कहा कौए ने कि 'अब इस रेल को दे दूँ विदाई !
रेल! अब तू जा यहाँ से, मैं तुझे देता इजाज़त ।'
रेल चल दी। इधर कौए की पलट अब गई किस्मत|
बन गया सरदार कौओं का, सभी करते बड़ाई।
बन गया नेता बड़ा, अब खूब नामवरी कमाई ।