फ़कीर की बुद्धिमानी
ऊँट हाँक ले जाने वाले
बैठे सुख से ताल किनारे।
लंगड़ा ऊँट खो गया जब,
तो लगे ढूंडने बेचारे।
उसी समय भटका फकीर
आ पहुँचा, वहीं दैव की नाई।
कहा ऊँट-वालों ने-'भाई !
ऊँट कही क्या दिया दिखाई?" '
लंगड़ा था?' पूछा फकीर ने,
हां हां एक साथ बोरे सब ।
दांत नहीं थे। फिर फकीर ने
पूछा तो वे हाँ बोले तब ।
'चावल ढोता था?' यह सुन कर
सबके मुँह खिल गये खुशी से।
हां हां वह किस ओर गया हैं?"
बोले सब निचोड़ कर साँसें।
तब फकीर बोला- मैंक्या जानू?
मुझ को 'ऊँट न दिया दिखाई।।
वे सब उससे लगे झगड़ने
'ऊँट कहाँ! सच बोलो भाई!"
पकड़ ले गए वे फकीर को,
नालिश की जाकर काज़ी से ।
काज़ी बोला-'ऊँट कहाँ है?
सत्य बताओ तुम जल्दी से।"
'सत्य बताता हूँ, काज़ी जी!"
वह फकीर योला यों डर कर- '
क्यों न बताऊँ सत्य, मुझे क्या
नहीं जान जाने का है डर?
चिन्ह तीन टाँगों के ही जब
मुझे दिखाई दिए भूमि पर-
मैंने समझा, यह अवश्य ही
चलता है धीरे लंगड़ा कर।
उसकी चरी घास जब, जड से
कुतरी-सी दी नहीं दिखाई-
मैंने समझा, हाँ! अवश्य ही
दाँत नहीं हैं इसके भाई।
चावल गिरे देख कर मैंने
समझा, यह ढोंता है चावल!"
सुन काज़ी ने उसे छुड़ाया;
गए ऊँट-वाले हो व्याकुल।