श्री व्यंकटेश स्तोत्र ३
शेषशयना सार्वभौमा |
वैकुंठवासिया निरुपमा |
भक्तकैवारिया गुणधामा |
पाव आम्हां ये समयी || ५१ ||
ऐसी प्रार्थना करुनी देवीदास |
अंतरी आठविला श्रीव्यंकटेश |
स्मरता हृदयी प्रकटला ईश |
त्या सुखासी पार नाही || ५२ ||
हृदयी आविर्भवली मूर्ति |
त्या सुखाची अलोलिक स्थिती |
आपुले आपण श्रीपती |
वाचेहाती वदवीतसे || ५३ ||
ते स्वरूप अत्यंत सुंदर |
श्रोती श्रवण कीजे सादर |
सावळी तनु सुकुमार |
कुंकुमाकार पादपद्मे || ५४ ||
सुरेख सरळ अंगोळिका |
नखे जैसी चंद्ररेखा |
घोटीव सुनीळ अपूर्व देखा |
इंद्रनिळाचियेपरी || ५५ ||
चरणी वाळे घागरिया |
वाकी वरत्या गुजरिया |
सरळ सुंदर पोटरिया |
कर्दळीस्तंभाचियेपरी || ५६ ||
गुडघे मांडिया जानुस्थळ |
कटितटि किंकिणी विशाळ |
खालते विश्वंउत्पत्तिस्थळ |
वरी झळाळे सोनसळा || ५७ ||
कटीवरते नाभिस्थान |
जेथोनि ब्रम्हा झाला उत्पन्न |
उदरी त्रिवळी शोभे गहन |
त्रैलोक्य संपूर्ण जयामाजी || ५८ ||
वक्ष:स्थळी शोभे पदक |
पाहोनी चंद्रमा अधोमुख |
वैजयंती करी लखलख |
विद्युल्लतेचियेपरी || ५९ ||
हृदयी श्रीवत्सलांछन |
भूषण मिरवी श्रीभगवान |
तयावरते कंठस्थान |
जयासी मुनिजन अवलोकिती || ६० ||
उभय बाहुदंड सरळ |
नखे चंद्रापरीस तेजाळ |
शोभती दोन्ही करकमळ |
रातोत्पलाचियेपरी || ६१ ||
मनगटी विराजती कंकणे |
बाहुवटी बाहुभूषणे |
कंठी लेइली आभरणे |
सूर्यकिरणे उगवली || ६२ ||
कंठावरुते मुखकमळ |
हनुवटी अत्यंत सुनीळ |
मुखचंद्रमा अति निर्मळ |
भक्तस्नेहाळ गोविंदा || ६३ ||
दोन्ही अधरांमाजी दंतपंक्ती |
जिव्हा जैसी लावण्यज्योती |
अधरामृतप्राप्तीची गती |
ते सुख जाणे लक्ष्मी || ६४ ||
सरळ सुंदर नासिक |
जेथे पवनासी झाले सुख |
गंडस्थळीचे तेज अधिक |
लखलखीत दोन्ही भागी || ६५ ||
त्रिभुवनीचे तेज एकटवले |
बरवेपण शिगेसी आले |
दोन्ही पातयांनी धरिले |
तेज नेत्र श्रीहरीचे || ६६ ||
व्यंकटा भृकुटिया सुनीळा |
कर्णद्वयाची अभिनव लीळा |
कुंडलांच्या फाकती कळा |
तो सुखसोहळा अलोलिक || ६७ ||
भाळ विशाळ सुरेख |
वरती शोभे कस्तूरीटिळक |
केश कुरळ अलोलिक |
मस्तकावरी शोभती || ६८ ||
मस्तकी मुकुट आणि किरीटी |
सभोवती झिळमिळ्याची दाटी |
त्यावरी मयूरपिच्छांची वेटी |ऐसा जगजेठी देखिला || ६९ ||
ऐसा तू देवाधिदेव |
गुणातीत वासुदेव |
माझिया भक्तिस्तव |
सगुणरूप झालासी || ७० ||
आता करू तुझी पूजा |
जगज्जीवना अधोक्षजा |
आर्ष भावार्थ हा माझा |
तुज अर्पण केला असे || ७१ ||
करुनी पंचामृतस्नान |
शुद्धोधक वरी घालून |
तुज करू मंगलस्नान |
पुरुषसूक्ते करुनिया || ७२ ||
वस्त्रे आणि यज्ञोपवीत |
तुजलागी करू प्रीत्यर्थ |
गंधाक्षता पुष्पे बहुत |
तुजलागी समर्पू || ७३ ||
धूप दीप नैवेध्य |
फल तांबूल दक्षिणा शुद्ध |
वस्त्रे भूषणे गोमेद |
पद्मरागादिकरून || ७४ ||
भक्तवत्सला गोविंदा |
ही पूजा अंगीकारावी परमानंदा |
नमस्कारुनी पादारविंदा |
मग प्रदक्षिणा आरंभिली || ७५ ||