श्री व्यंकटेश स्तोत्र ५
श्री चैतन्यकृपा अलोकिक |
संतोषोनी वैकुंठनायक |
वर दिधला अलोकिक |
जेणे सुख सकळांसी || १०१ ||
हा ग्रंथ लिहिता गोविंद |
या वचनी न धरावा भेद |
हृदयी वसे परमानंद |
अनुभवसिद्ध सकळांसी || १०२ ||
या ग्रंथीचा इतिहास |
भावे बोलिला विष्णुदास |
आणिक न लागती सायास |
पठणमात्रे कार्यसिद्धी || १०३ ||
पार्वतीस उपदेशी कैलासनायक |
पूर्णानंद प्रेमसुख |
त्याचा पार न जाणती ब्रम्हादिक |
मुनि सुरवर विस्मित || १०४ ||
प्रत्यक्ष प्रकटेल वनमाळी |
त्रैलोक्य भजत त्रिकाळी |
ध्याती योगी आणि चंद्रमौळी |
शेषाद्रीपर्वती उभा असे || १०५ ||
देवीदास विनवी श्रोतया चतुरा |
प्रार्थनाशतक पठण करा |
जावया मोक्षाचिया मंदिरा |
काही न लागती सायास || १०६ ||
एकाग्रचित्ते एकांती |
अनुष्ठान कीजे मध्यराती |
बैसोनिया स्वस्थचित्ती |
प्रत्यक्ष मूर्ति प्रकटेल || १०७ ||
तेथें देहभावासी नुरे ठाव |
अवघा चतुर्भुज देव |
त्याचे चरणी ठेवोनि भाव |
वरप्रसाद मागावा || १०८ ||
इति श्री देवी दास विरचितं श्री व्यंकटेश स्तोत्रं संपूर्णम |
श्री व्यंकटेशार्पणमस्तु ||