श्रीवामनपुराण - अध्याय १४
ऋषिगण बोले - राक्षसश्रेष्ठ ! अहिंसा, सत्य, अस्तेय ( चोरी न करना ), दान, क्षमा, दम ( इन्द्रियनिग्रह ), शम, अकार्पण्य, शौच एवं तप - धर्मके ये दसों अङ्ग सभी वणोंके लिये उपदिष्ट हैं; ब्राह्मणोंके लिये तो चार आश्रमोंका और भी विधान विहित किया गया है ॥१ - २॥
सुकेशि बोला - तपोधनो ! ब्राह्मणोंके लिये विहित चारों आश्रमोंके नियम आदिको आप लोग विस्तारसे कहें । मुझे उसे सुनते हुए तृप्ति नहीं हो रही है - मैं और भी सुनना चाहता हूँ ॥३॥
ऋषिगण बोले - सुकेशि ! ब्रह्मचारी ब्राह्मण भलीभाँति उपनयन - संस्कार कराकर गुरुके गृहपर निवास करे । वहाँके जो कर्तव्य हैं, उन्हें बतलाया जा रहा है, तुम उन्हें सुनो । उनके कर्तव्य हैं - स्वाध्याय, दैनिक हवन, स्नान, भिक्षा माँगना और उसे गुरुको निवेदित करके तथा उनसे आज्ञा प्राप्त कर भोजन करना, गुरुके कार्यहेतु उद्यत रहना, सम्यक् रुपसे गुरुमें भक्ति रखना, उनके बुलानेपर तत्पर एवं एकाग्रचित्त होकर पढ़ना ( - ये ब्राह्मण ब्रह्मचारीके धर्म हैं ) । गुरुके मुखसे एक, दो या सभी वेदोंका अध्ययन कर गुरुको धन तथा दक्षिणा दे करके उनसे आज्ञा प्राप्त कर गृहस्थाश्रममें जानेका इच्छुक ( शिष्य ) गृहस्थ आश्रममें प्रवेश करे अथवा अपनी इच्छाके अनुसार वानप्रस्थ या संन्यासका अवलम्बन करे ॥४ - ८॥
अथवा ब्राह्मण ब्रह्मचारी वहीं गुरुके घरमें ब्रह्मचर्यकी निष्ठा प्राप्त करे अर्थात् जीवनपर्यन्त ब्रह्मचारी रहे । गुरुके अभावमें उनके पुत्र एवं पुत्र न हो तो उनके शिष्यके समीप निवास करे । राक्षस सुकेशि ! अभिमानरहित तथा शुश्रूषा करते हुए ब्रह्मचर्याश्रममें रहे । इस प्रकार अनुष्ठान करनेवाला द्विज मृत्युको जीत लेता है । हे निशाचर ! वहाँकी अवधि समाप्त कर ब्रह्मचारी द्विज ग्रुहस्थाश्रमसी कामनासे अपने गोत्रसे भिन्न गोत्रके ऋषिवाले कुलमें उत्पन्न कन्यासे विवाह करे । सदाचारमें रत द्विज अपने नियत कर्मद्वारा धनोपार्जनकर पितरों, देवों एवं अतिथियोंको अपनी भक्तिसे अच्छी तरह तृप्त करे ॥९ - १२॥
( ब्रह्मचारी ब्राह्मणके नियमोंको सुननेके बाद ) सुकेशिने कहा - श्रेष्ठ व्रतवाले ऋषियो ! आप लोगोंने मुझसे इसके पूर्व सदाचारका वर्णन किया है । सदाचारका लक्षण क्या है ? अब मैं उसे सुनना चाहता हूँ । कृपया मुझसे अब उसका वर्णन करें ॥१३॥
ऋषियोंने कहा - राक्षस ! हम लोगोंने तुमस्से श्रद्धापूर्वक जिस सदाचारका वर्णन किया है, उसका ( अब ) लक्षण बतलाते हैं; तुम उसे सुनो । गृहस्थको आचारका सदा पालन करना चाहिये । आचारहीन व्यक्तिका इस लोक और परलोकमें कल्याण नहीं होता है । सदाचारका उल्लङ्घन कर लोक - व्यवहार तथा शास्त्र - व्यवहार करनेवाले पुरुषके यज्ञ, दान एवं तप कल्याणकर नहीं होते । दुराचारी पुरुष इस लोक तथा परलोकमें सुख नहीं पाता । अतः आचार - पालनमें सदा तत्पर रहना चाहिये । आचार दुर्लक्षणोंको नष्ट कर देता है ॥१४ - १७॥
राक्षस ! हम उस ( पृष्ट ) सदाचारका स्वरुप कहते हैं । यदि तुम कल्याण चाहते हो तो एकाग्रचित्त होकर उसे सुनो । सुकेशिन् ! सदाचारका मूल धर्म है, धन इसकी शाखा है, काम ( मनोरथ ) इसका पुष्प है, धन इसकी शाखा है, काम ( मनोरथ ) इसका पुष्प है एवं मोक्ष इसका फल है - ऐसे सदाचाररुपी वृक्षका जो सेवन करता हैं, वह पुण्यभोगी बन जाता है । मनुष्योमको ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर सर्वप्रथम श्रेष्ठ देवों एवं महर्षियोंका स्मरण करना चाहिये तथा देवाधिदेव महादेवद्वारा कथित प्रभातकालीन मङ्गलस्तोत्रका पाठ करना चाहिये ॥१८ - २०॥
सुकेशिने पूछा - ऋषिये ! महादेव शंकरने कौनसा ' सुप्रभात ' कहा है कि जिसका प्रातः काल पाठ करने और पढ़नेसे मनुष्य सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है । ( स्तुति इस प्रकार है - ) ' ब्रह्मा, विष्णु, शंकर ये देवता तथा सूर्य, चन्द्रमा, मङ्गल, बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनैश्वर ग्रह - ये सभी मेरे प्रातः कालको मङ्गलमय बनायें । भृगु, वसिष्ठ, क्रतु, अङ्गिरा, मनु, पुलस्त्य, पुलह, गौतम, रैभ्य, मरीचि, च्यवन तथा ऋभु - ये सभी ( ऋषि ) मेरे प्रातः कालको मङ्गलमय बनायें । सनत्कुमार, सनक, सनन्दन, सनातन, आसुरि, पिङ्गल, सातों स्वर एवं सातों रसातल - ये सबी मेरे प्रातःकालको मङ्गलमय बनायें ' ॥२२ - २५॥
' गन्धगुणवाली पृथ्वी, रसगुणवाला जल, स्पर्शगुणवाली वायु, तेजोगुणवाली अग्नि, शब्दगुणवाला आकाश वें महत्तत्व - ये सभी मेरे प्रातःकालको मङ्गलमय बनायें । सातों समुद्र, सातों कुलपर्वत, सप्तर्षि, सातों श्रेष्ठ द्वीप और भू आदि सातों लोक - ये सभी प्रभातकालमें मुझे मङ्गल प्रदान करें । ' इस प्रकार प्रातः कालमें परम पवित्र सुप्रभातस्तोत्रको भक्तिपूर्वक पढ़े, स्मरण करे अथवा सुने । निष्पाप ! ऐसा करनेसे भगवानकी कृपासे निश्चय ही उसके दुःस्वप्नका नाश होता है तथा सुन्दर प्रभात होता है । उसके बाद उठकर धर्म तथा अर्थके विषयमें चिन्तन करे और शय्या त्याग करनेके बाद ' हरि ' का नाम लेकर उत्सर्ग - विधि ( शौच आदि करनेके लिये जाय ॥२६ - २९॥
मल - त्याग देवता, गौ, ब्राह्मण और अग्निके मार्ग, राजपथ ( सड़क ) और चौराहेपर, गोशालामें तथा पूर्व या पश्चिम दिशाकी ओर मुख करके न करे । मलत्यागके बाद फिर शुद्धिके लिये मिट्टी ग्रहण करे और मलद्वारमें तीन बार, बाएँ हाथमें सात बार तथा दोनों हाथोंमें दस बार एवं लिङ्गमें एक बार मिट्टी लगाये । राक्षस ! सदाचार जाननेवाले मनुष्यको जलके भीतरसे, चूहेकी बिलसे, दूसरोंके शौचसे बची हुई एवं गृहसे मिट्टी नहीं लेनी चाहिये । दीमककी बाँबीसे भी शुद्धिके लिये मिट्टी नहीं लेनी चाहिये । विद्वान् पुरुष पैर धोनेके पश्चात् उत्तर या पूर्वमुख बैठकर फेनरहित जलसे पहले मुखको दो बार धोये फिर धोनेके बाद आचमन करे ॥३० - ३३॥
आचमन करनेके बाद अपनी इन्द्रियों तथा सिरको हाथस्से स्पर्शकर क्रमशः केश - संशोधन, दन्तधावन एवं दर्पण - दर्शनकर संध्योपासन करे । शिरः स्नान ( सिरसे पैरतक स्नान ) अथवा अर्धस्नान कर पितरों एवं देवताओंका जलसे पूजन करनेके पश्चात् हवन एवं देवताओंका जलसे पूजन करनेके पश्चात् हवन एवं माङ्गलिक वस्तुओंका स्पर्श कर बाहर निकलना प्रशस्त होता है । दूर्वा, दधि, घृत, जलपूर्ण कलश, बछड़ेके साथ गाय, बैल, सुवर्ण, मिट्टी, गोबर स्वस्तिक चिह्न , अक्षत, लाजा, मधुका स्पर्श करे तथा सुन्दर श्वेतपुष्प, अग्नि, चन्दनका दर्शन कर अश्वत्थ ( पीपल ) वृक्षका स्पर्श करनेके बाद अपने जाति - धर्म ( अपने वर्णके लिये नियतकर्म ) - का पालन करे ॥३४ - ३७॥
देश - विहित धर्म, श्रेष्ठ कुलधर्म और गोत्रधर्मका त्याग नहीं करना चाहिये, उसीसे अर्थकी सिद्धि करनी चाहिये । असत्प्रलाप, सत्यरहित, निष्ठुर और वेद - आगमशास्त्रसे असंगत वाक्य कभी न कहे, जिससे साधुजनोंद्वारा निन्दिन होना पड़े । किसीके धर्मको हानि न पहुँचाये एवं बुरे लोगोंको सङ्ग भी न करे । वीर ! सन्ध्या एवं दिनके समय रति नहीं करनी चाहिये । सभी योनियोंकी परस्त्रियोंमें, गृहहीन पृथ्वीपर, रजस्वला स्त्रीमें तथा जलमें सुरतव्यापार वर्जित है । गृहस्थको व्यर्थ भ्रमण, व्यर्थ दान, व्यर्थ पशुवध तथा व्यर्थ दार - परिग्रह नहीं करना चाहिये ॥३८ - ४१॥
व्यर्थ घूमनेसे नित्यकर्मकी हानि होती है तथा वृथा दानसे धनकी हानि होती है और वृथा पशुवध करनेवाला नरक प्राप्त करानेवाले पापको प्राप्त होता है । अवैध स्त्री - संग्रहसे सन्तानकी निन्दनीय हानि, वर्णसांकर्यका भय तथा लोकमें भी स्त्री - संग्रहसे सन्तानकी निन्दनीय हानि, वर्णसांकर्यका भय तथा लोकमें भी भय होता है । उत्तम व्यक्ति परधन तथा परस्त्रीमें बुद्धि न लगाये । परधन नरक देनेवाला और परस्त्री मृत्युका कारण होती है । परस्त्रीको नग्नावस्थामें न देखे, चोरोंसे बातचीत न करे एवं रजस्वला स्त्रीको न तो देखे, न उसका स्पर्श ही करे और न उससे बातचीत ही करे ॥४२ - ४५॥
अपनी बहन तथा परस्त्रीके साथ एक आसनपर न बैठे । इसी प्रकार अपनी माता तथा कन्याके साथ भी एक आसनपर न बैठे । नग्न होकर स्नान और शयन न करे । वस्त्रहीन होकर इधर - उधर न घूमे, टूटे आसन और बर्तन आदिको अलग रख दे । नन्दा ( प्रतिपद, षष्ठी और एकादशी ) तिथियोंमें तेलसे मालिश न करे, रिक्ता ( चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी ) तिथियोंमें क्षौर कर्म न करे ( न कराये ) तथा जया ( तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी ) तिथियोंमें फलका गूदा नहीं खाना चाहिये । पूर्णा ( पञ्चमी, दशमी और पूर्णिमा ) तिथियोंमें स्त्रीका सम्पर्क न करे तथा भद्रा ( द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी ) तिथियोंमें सभी कार्य करे । रविवार एवं मङ्गलवारको तेलकी मालिश, शुक्रवारको क्षौरकर्म नहीं कराना चाहिये ( न करना चाहिये ) । शनिवारको फलका गूदा न खाये तथा बुधवारको स्त्री वर्ज्य है । शेष दिनोंमें सभी कार्य सदैव कर्तव्य हैं ॥४६ - ४९॥
चित्रा, हस्त और श्रवण नक्षत्रोंमें तेल तथा विशाखा और अभिजित नक्षत्रोंमें क्षौर - कार्य नहीं करना - कराना चाहिये । मूल, मृगशिरा, पूर्वाभाद्रपद और उत्तराभाद्रपदमें गूदा - भक्षण तथा मघा, कृत्तिका और तीनों उत्तरा ( उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा ) - में स्त्री - सहवास न करे । राक्षसराज ! उत्तर एवं पश्चिमकी ओर सिर करके शयन नहीं करना चाहिये । दक्षिण एवं पश्चिममुख भोजन नहीं करना चाहिये । देवमन्दिर, चैत्यवृक्ष, देवताके समान पूज्य पीपल आदिके वृक्ष, चौराहे, अपनेसे अधिक विद्वान तथा गुरुकी प्रदक्षिणा करे । बुद्धिमान् व्यक्ति यत्नपूर्वक दूसरेके द्वारा व्यवहत माला, अन्न और वस्त्रका व्यवहार न करे । नित्य सिरके ऊपरसे स्नान करे । ग्रहोपराग ( ग्रहणके समय ) और स्वजनकी मृत्यु तथा जन्म - नक्षत्रमें चन्द्रमाके रहनेके अतिरिक्त समयमें रात्रिमें बिना विशेष कारण स्नान नहीं करना चाहिये ॥५० - ५३॥
राक्षसेश्वर ! तेल - मालिश किये हुए किसीके शरीरका स्पर्श नहीं करना चाहिये । स्नानके बद बालोंको उसी समय कंघीसे न झाड़े । मनुष्यको वहाँ रहना चाहिये जहाँका राजा धर्मात्मा हो एवं जनवर्गमें समता हो, लोग क्रोधी न हों, न्यायी हों, परस्परमें डाह न हो, खेती करनेवाले किसान और ओषधियाँ हों । जहाँ चतुर वैद्य, धनी - मानी दानी, श्रेष्ठ श्रोत्रिय विद्वान् हों वहाँ निवास करना चाहिये । जिस देशका राजा प्रजाको मात्र दण्ड ही देना चाहता हो तथ उत्सवोंमें जन - समाजमें नित्य किसी - न - किसी प्रकारका वैर - विद्वेष हो एवं लड़ाईझगड़ा करनेकी ही लालसा हो, निर्बल मनुष्यको ऐसे स्थानपर नहीं रहना चाहिये ॥५४ - ५७॥
ऋषियोंने कहा - महाबाहो ! जो पदार्थ धर्मात्मा व्यक्तियोंके लिये सदैव त्याज्य है एवं जो भोज्य है, हम उनका वर्णन कर रहे हैं । तैल, घी आदि स्निग्ध पदार्थोसे पकाया गया अन्न बासी एवं बहुत पहलेका बने रहनेपर भी भोज्य ( खानेयोग्य ) है तथा सूखे भूने हुए चावल एवं दूधके विकार - दही, घी आदि भी बासी एवं पुराने होनेपर भी भक्ष्य - खानेयोग्य हैं । इसी प्रकार मनुने चने, अरहर, मसूर आदिके भूने ( तले ) हुए दालको भी अधिक कालतक भोजनके योग्य बतलाये हैं ॥५८ - ६०॥
( यहाँसे आगे अब द्रव्य - शुद्धि बतलाते हैं । ) मणि, रत्न, प्रवाल ( मूँगा ), मोती, पत्थर और लकड़ीके बने बर्तन, तृण, मूल तथा ओषधियाँ, सूप ( दाल ), धान्य, मृगचर्म, सिले हुए वस्त्र एवं वृक्षोंके सभी छालोंकी शुद्धि जलसे होती है । तैल - घृत आदिसे मलिन वस्त्रोंकी शुद्धि उष्ण जल तथा तिल - कल्क ( खली ) - से एवं कपासके वस्त्रोंकी शुद्धि भस्मसे ( पत्थर कोयले आदिकी राखसे ) होती है । हाथीके दाँत, हड्डी और सींगकी बनी चीजोंकी शुद्धि तराशनेसे ( खरादनेसे ) होती है । मिट्टीके बर्तन पुनः आगमें जलानेसे शुद्ध होते हैं । भिक्षान्न, कारीगरोंका हाथ, विक्रेय वस्तु, स्त्री - मुख, अज्ञात वस्तु, ग्रामके मध्य मार्ग या चौराहेसे लायी जानेवाली तथा नौकरोंद्वारा निर्मित्त वस्तुएँ पवित्र मानी गयी हैं । वचनद्वारा प्रशंसित, पुराना, अनेकानेक जनोंसे होती हुई लायी जानेवाली छोटी वस्तुएँ, बालकों और वृद्धोंद्वारा किया गया कर्म तथा शिशुका मुख शुद्ध होता है ॥६१ - ६६॥
कर्मशाला, अन्तर्गृह एवं अग्निशालामें दुधमुँहे बच्चोंको ली हुई स्त्रियाँ, सम्भाषण करते हुए विद्वान् ब्राह्मणोंके मुखके छीटे तथा उष्ण जलके बिन्दु पवित्र होते हैं । पृथ्वीकी शुद्धि खोदने, जलाने, झाडू देने, गौओंके चलने, लीपने, खरोंचने तथा सींचनेसे होती हैं और गृहकी शुद्धि झाडू देने, जलके छिड़कने तथा पूजा आदिसे होती हैं । केश, कीट पड़े हुए और मक्खीके बैठ जानेपर तथा गायके द्वारा सूँघे जानेपर अन्नकी शुद्धिके लिये उसपर जल, भस्म, क्षार या मृत्तका छिड़कनी चाहिये । ताम्रपात्रकी शुद्धि खटाईसे, जस्ते और शीशेकी क्षारके द्वारा, काँसेकी वस्तुएँ भस्म और जलके द्वारा तथा तरल पदार्थ कुछ अंशको बहा देनेसे शुद्ध हो जाते हैं ॥६७ - ७०॥
अपवित्र वस्तुसे मिले पदार्थ जल और मिट्टीसे धोने तथा दुर्गन्ध दूर कर देनेसे शुद्ध होते हैं । अन्य ( गन्धवाले ) पदार्थोंकी शुद्धि भी गन्ध दूर करनेसे होती है । माताके स्तनको प्रस्नुत कराने ( पेन्हाने ) - में बछड़ा, वृक्षसे फल गिरानेमें पक्षी, बोझा ढोनेमें गधा और शिकार पकड़नेमें कुत्ता शुद्ध ( माना गया ) है । मार्गके कीचड़ और जल, नाव तथा रास्तेकी घास, तृण एवं पके हुए ईंटोंके समूह वायुके द्वारा ही शुद्ध हो जाते हैं । यदि एक द्रोण ( ढाई सेरसे अधिक ) पके अन्नके अपवित्र वस्तुसे सम्पर्क हो जाय तो उसके ऊपरका अंश निकाल कर फेंक देना एवं शेषपर जल छिड़क देना चाहिये । इससे उसकी शुद्धि हो जानेका विधान है, किंतु जान - बूझकर दूषित अन्न खानेपर शुद्धि नहीं हो सकती ॥७१ - ७५॥
रजस्वला स्त्री, कुत्ता, नग्न ( दिगम्बर साधु ), प्रसूता स्त्री, चाण्डाल और शववाहकोंका स्पर्श हो जानेपर अपवित्र हुए व्यक्तिको पवित्र होनेके लिये स्नान करना चाहिये । मज्जायुक्त हड्डीके छू जानेपर वस्त्रसहित स्नान करना चाहिये, किंतु सूखी हड्डीका स्पर्श होनेपर आचमन करने, गो - स्पर्श तथा सूर्यदर्शन करनेमात्रसे ही शुद्धि हो जाती है । विष्ठा, रक्त, थूक एवं उबटनका उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये । जूठे पदार्थ, विष्ठा, मूत्र एवं पैर धोनेके जलको घरसे बाहर फेंक देना चाहिये । दूसरेके द्वारा निर्मित बावली आदिमें मिट्टीके पाँच टुकड़ोंके निकाले बिना स्नान नहीं करना चाहिये ॥७६ - ७९॥
बुद्धिमान् पुरुष बाग - बगीचोंमें असमयमें कभी न ठहरे । लोगोंसे द्वेष रखनेवाले व्यक्ति तथा पति - पुत्रसे रहित स्त्रीसे वार्तालाप नहीं करना चाहिये । देवता, पितरों, भले शास्त्रों ( पुराण, धर्मशास्त्र, रामायण आदि ), यज्ञ एवं वेदादिके निन्दकोंका स्पर्श और उनके साथ वार्तालाप करनेपर मनुष्य अपवित्र हो जाता है, वह सूर्यदर्शन करनेपर मनुष्य अपवित्र हो जाता है, वह सूर्यदर्शन करनेपर शुद्ध होता है । उसकी शुद्धि भगवान् सूर्यके समक्ष उपस्थान करके अपने किये हुए स्पर्श और वार्तालाप कर्मके त्याग तथा पश्चात्ताप करनेसे होती है । सूतिक, नपुंसक, बिलाव, चूहा, कुत्ते, मुर्गे, पतित, नग्न ( विधर्मी ) ( इनके लक्षण आगे बतलाये जायँगे ) समाजसे बहिष्कृत और जो चाण्डाल आदि अधम प्राणी हैं उनके यहाँ भोजन नहीं करना चाहिये ॥८० - ८२॥
सुकेशि बोला - ऋषिये ! आप लोगोंने जिन सूतिक आदिका अन्न अभक्ष्य कहा है, मैं उनके लक्षण विस्तारसे सुनना चाहता हूँ ॥८३॥
ऋषियोंने कहा - सुकेशि ! अन्य ब्राह्मणके साथ ब्राह्मणीके व्यभिचरित होनेपर उन दोनोंको ही ' सूतिक ' कहा जाता है । उन दोनोंका अन्न निन्दित है । उचित समयपर हवन, स्नान और दान न करनेवाला तथा पितरों एवं देवताओंकी पूजासे रहित व्यक्तिको ही यहाँ ' षण्ढ ' या नपुंसक कहा गया है । दम्भके लिये जप, तप और यज्ञ करनेवाले तथा परलोकार्थ उद्योत न करनेवाले व्यक्तिको यहाँ ' मार्जार ' या ' बिलाव ' कहा गया है । ऐश्वर्य रहते हुए भोग, दान एवं हवन न करनेवालेको ' आखु ' ( चूहा ) कहते हैं । उसका अन्न खानेपर मनुष्य कृच्छ्रव्रत करनेसे शुद्ध होता है ॥८४ - ८७॥
दूसरोंका मर्म भेदन करते हुए बातचीत करनेवाले तथा दूसरेके गुणोंसे द्वेष करनेवालेको ' श्वान ' या ' कुत्ता ' कहा गया है । सभामें आगत व्यक्तियोंमें जो सभ्य व्यक्ति पक्षपात करता है, उसे देवताओंने ' कुक्कुट ' ( मुर्गा ) कहा है; उसका भी अन्न निन्दित हैं । विपत्तिकालके अतिरिक्त अन्य समयमें अपना धर्म छोड़कर दूसरेका धर्म ग्रहण करनेवालेको विद्वानोंने ' पतित ' कहा है । देवत्यागी, पितृत्यागी, गुरुभक्तिसे विमुख तथ गो, ब्राह्मण एवं स्त्रीकी हत्या करनेवालेको ' अपविद्ध ' कहा जाता है ॥८८ - ९१॥
जिनके कुलमें वेद, शास्त्र एवं व्रत नहीं हैं, उन्हें सज्जन लोग ' नग्न ' कहते हैं । उनका अन्न निन्दित है । आशा रखनेवालोंको न देनेवाला, दाताको मना करनेवाला तथा शरणागतका परित्याग करनेवाला अधम मनुष्य ' चाण्डाल ' कहा जाता है । बान्धवों, साधुओं एवं ब्राह्मणोंसे त्यागा गया तथा कुण्ड ( पतिके जीवित रहनेपर परफुरुषसे उत्पन्न पुत्र ) - के यहाँ अन्न खानेवालेको चान्द्रायण व्रत करना चाहिये । नित्य और नैमित्तिक कर्म न करनेवाले व्यक्तिका अन्न खानेपर मनुष्य तीन राततक उपवास करनेसे शुद्ध होता है ॥९२ - ९५॥
गणक ( ज्योतिषी ), निषाद ( मल्लाह ), वेश्या, वैद्य तथा कृपणका अन्न खानेपर भी मनुष्य तीन दिन उपवास करनेपर शुद्ध होता है । घरमें जन्म या मृत्यु होनेपर नित्यकर्म रुक जाते हैं, घरमें जन्म या मृत्यु होनेपर नित्यकर्म रुक जाते हैं, किंतु नैमित्तिक कर्म कभी बंद नहीं करना चाहिये । भगवान् भृगुने कहा है कि पुत्र उत्पन्न होनेपर पिताके लिये एवं मरणमें सभी बन्धुओंके लिये वस्त्रके साथ स्नान करना चाहिये । ग्रामके बाहर शवदाह करना चाहिये । शवदाह करनेके बाद सगोत्र लोग प्रेतके उद्देश्यसे जलदान ( तिलाञ्जलि ) करें तथा पहले दिन या चौथे अथवा तीसरे दिन अ स्थिचयन करें ॥९६ - ९९॥
अस्थि - चयनके बाद अङ्ग - स्पर्शका विधान है । शुद्ध होकर सोदकों ( चौदह पीढ़ीके अंदरके लोगों ) - को और्ध्वदैहिक क्रिया ( मरनेके बाद की जानेवाली विहित क्रिया ) करनी चाहिये । हे वीर ! विष, बन्धन, शस्त्र, जल, अग्नि और गिरनेसे मृत्युके होनेपर तथा बालक, परिव्राजक, संन्यासीकी एवं किसी व्यक्तिकी दूर देशमें मृत्यु होनेपर तत्काल शुद्धि हो जाती है । वह शुद्धि भी चार प्रकारकी कही गयी है । गर्भस्त्रावमें भी शीघ्र ही शुद्धि होती है । अन्य अशौच पुरे समयपर ही दूर होते हैं । ( वह सद्यः शौच ) ब्राह्मणोंका एक अहोरात्रका, क्षत्रियोंका तीन दिनोंका, वैश्योंका छः दिनोंका एवं शूद्रोंका बारह दिनोंका होता है ॥१०० - १०३॥
सभी वर्णोके लोग ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ) क्रमशः दस, बारह, पंद्रह दिन एवं एक मासके अन्तरपर अपनी - अपनी क्रियाएँ करें । प्रेतके उद्देश्यसे विधिके अनुसार एकोद्दिष्ट श्राद्ध करना चाहिये । मरनेके एक वर्ष बीत जानेपर मनुष्यको सपिण्डीकरण श्राद्ध करना चाहिये । उसके बाद प्रेतके पितर हो जानेपर अमावस्या और पूर्णिमा तिथिके दिन वेदविहित विधिसे उनका तर्पण करना चाहिये । राक्षस ! पिताके उद्देश्यसे स्वयंझ भूमिदान आदि करे, जिससे पितृगण इसके ऊपर प्रसन्न हो जायँ ॥१०४ - १०७॥
व्यक्तिकी जीवित - अवस्थामें घरमें जो - जो पदार्थ उसको अत्यन्त अभिलाषित एवं प्रिय रहा हो, उसकी अक्षयताकी कामना करते हुए गुणवान् पात्रको दान देना चाहिये । सदा त्रयी अर्थात् ऋक, यजुः और सामवेदका अध्ययन करना चाहिये, विद्वान् बनना चाहिये, धर्मपूर्वक धनार्जन एवं यथाशक्ति यज्ञ करना चाहिये । राक्षस ! मनुष्यको जिस कार्यके करनेसे कर्त्ताकी आत्मा निन्दत न हो एवं जो कार्य निः शङ्क ( आसक्तिरहित ) होकर करना चाहिये । इस प्रकारके आचरण करनेवाले पुरुषके गृहस्थ होनेपर भी उसे धर्म, अर्थ एवं कामकी प्राप्ति होती हैं तथा वह व्यक्ति इस लोक और परलोकमें कल्याणका भागी होता है ॥१०८ - १११॥
ऋषियोंने सुकेशिसे कहा - सुकेशि ! अबतक हमने संक्षेपसे उत्तम गृहस्थाश्रमका वर्णन किया है । अब हम वानप्रस्थ - आश्रमके धर्मका वर्णन करेंगे, उसे ध्यानपूर्वक सुनो । बुद्धिमान् व्यक्ति पुत्रकी संतान ( पौत्र ) और अपने शरीरकी गिरती अवस्था देखकर अपने आत्माकी शुद्धिके लिये वानप्रस्थ - आश्रमको ग्रहण करे । वहाँ अरण्यमें उत्पन्न मूल - फल आदिसे अपना जीवनयापन करते हुए तपद्वारा शरीर - शोषण करे । इस आश्रममें भूमिपर शयन, ब्रह्मचर्यका पालन एवं पितर, देवता तथा अतिथियोंकी पूजा करे । हवन, तीनों काल - प्रातः मध्याह्न, सन्ध्याकाल - स्नान, जटा और वल्कलका धारण तथा वन्य फलोंसे निकाले रसका सेवन करे । यह वानप्रस्थ - आश्रमकी विधि है ॥११२ - ११५॥
[ चतुर्थ आश्रम ( संन्यास ) - के धर्म ये हैं - ] सभी प्रकारकी आसक्तियोंका त्याग, ब्रह्मचर्य, अहंकारका अभाव, जितेन्द्रियता, एक स्थानपर अधिक समयतक न रहना, उद्योगका अभाव, भिक्षान्न - भोजन, क्रोधका त्याग, आत्मज्ञानकी इच्छा तथा आत्मज्ञान । निशाचर ! हमने तुमसे चतुर्थ - आश्रम ( संन्यास ) - के इन धर्मोंका वर्णन किया । अब अन्य वर्ण - धर्मोंको सुनो । क्षत्रियोंके लिये भी गार्हस्थ, ब्रह्मचर्य एवं वानप्रस्थ - इन तीन आश्रमों एवं ब्राह्मणोंके लिये विहित आचारोंका विधान है ॥११६ - ११९॥
राक्षस ! वैश्यजातिके लिये गार्हस्थ्य एवं वानप्रस्थ इन दो आश्रमोंका विधान है तथा शूद्रके लिये एकमात्र उत्तम गृहस्थ - आश्रमका ही नियम है । अपने वर्ण और आश्रमके लिये विहित धर्मोंका इस लोकमें त्याग नहीं करना चाहिये । जो इनका त्याग करता है, उसपर सूर्य भगवान् क्रुद्ध होते हैं । निशाचर ! भगवान् भास्कर क्रुद्ध होकर उस मनुष्यकी रोगवृद्धि एवं उसके कुलका नाश करनेके लिये प्रयत्न करते हैं । अतः मनुष्य स्वधर्मका न तो त्याग करे और न अपने वंशकी हानि होने दे । जो मनुष्य अपने धर्मका त्याग करता है, उसपर भगवान् सूर्य क्रोध करते हैं ॥१२० - १२३॥
पुलस्त्यजी बोले - मुनियोंके ऐसा कहनेके बाद सुकेशी उन ब्रह्मज्ञानी महर्षियोंको बारम्बार प्रणामकर धर्मका चिन्तन करते हुए उड़कर अपने पुरको चला गया ॥१२४॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें चौदहवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥१४॥