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श्रीवामनपुराण - अध्याय २९


 लोमहर्षण बोले - उसके बाद ( दैत्योंके तेजके समाप्त हो जानेपर ) असुरराज बलिने समस्त असुरोंको श्रीहीन देखकर अपने पितामह प्रह्लादजीसे पूछा - ॥१॥ 
बलिने कहा - तात ! ( इस समय ) दैत्य लोग आगसे झुलसे हुए - से कान्तिहीन हो गये हैं । आज ये ऐसे क्यों हो गये हैं ? प्रतीत होता है कि मनो इन्हें ब्राह्मणका अभिशाप लग गया है - ये ब्रह्मदण्डसे जैसे पीड़ित हो गये हैं ! क्या दैत्योंका कोई अशुभ होनेवाला है ? अथवा इनके नाशके लिये ब्रह्माने कृत्या ( पुरश्चरणसे उत्पन्न की गयी मारिकाशक्ति ) - को उत्पन्न कर दिया है, जिससे ये असुरलोग इस प्रकार तेजसे रहित हो गये हैं ॥२ - ३॥ 
लोमहर्षण बोले - ब्राह्मणो ! अपने पौत्र ( पुत्रके पुत्र ) राजा बलिके इस प्रकार पूछनेपर दैत्योंमें प्रधान प्रह्लादने देरतक ध्यान करके तब असुर बलिसे कहा - ॥४॥ 
प्रह्लादने कहा - दानवाधिप ! इस समय पहाड़ डगमगा रहे हैं, पृथ्वी एकएक अपनी ( स्वाभाविक ) धीरता छोड़ रही है, समुद्रमें जोरोंकी लहरें उठ रही हैं और दैत्य तेजसे रहित हो गये हैं । सूर्योदय होनेपर अब पहलेके समान ग्रहोंकी चाल नहीं दीखती है । इन कारणों ( लक्षणों ) - से अनुमान होता है कि देवताओंका अभ्युदय होनेवाला है । महाबाहु ! दानवेश्वर ! यह कोई विशेष कारण आवश्यक है । इस कारणको छोटा नहीं मानना चाहिये और आपको इसका कोई प्रतियत्न ( उपाय ) करना चाहिये ॥५ - ७॥
लोमहर्षणने कहा - असुरोंमें श्रेष्ठ महान् भक्त प्रह्लादने दैत्यराज बलिसे इस प्रकार कहकर मनसे श्रीहरिका ध्यान किया । असुर प्रह्लादने अपने मनको भगवानके ध्यान - पथमें लगाकर चिन्तन किया - जैसा कि भगवानका स्वरुप है । उन्होंने उस समय ( चिन्तन करते समय ) अदितिकी कोखमें वामनके रुपमें भगवानको देखा । उनके भीतर वसुओं, रुद्रों, दोनों अश्विनीकुमारों, मरुतों, साध्यों, विश्वेदेवों, आदित्यों, गन्धर्वों, नागों, राक्षसों तथा अपने पुत्र विरोचन एवं असुरनायक बलि, जम्भ, कुजम्भ, नरक, बाण तथा इस प्रकारके दूसरे बहुत - से असुरों एवं अपनेको और पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, अग्नि, समुद्रों, पर्वतों, नदियों, द्वीपों, सरों, पशुओं, भूसम्पतियों, पक्षियों, सम्पूर्ण मनुष्यों, सरकनेवाले जीवों, समस्त लोकोंके स्त्रष्टा ब्रह्मा, शिव, ग्रहों, नक्षत्रों, ताराओं तथा दक्ष आदि प्रजापतियोंको भी देखा । प्रह्लाद इन्हें देखकर आश्चर्यमें पड़ गये, किंतु क्षणमात्रमें ही पुनः पूर्ववत् प्रकृतिस्थ हो गये और विरोचन - पुत्र दैत्योंके राजा बलिसे बोले - ॥८ - १५॥
( दैत्यों ! ) मैंने तुम लोगोंकी कान्तिहीनताके ( वास्तविक ) सब कारणको - अच्छी तरहसे समझ लिया है । ( अब ) उसे तुम लोग भलीभाँति सुनो । देवोंके देव, जगद्योनि, ( विश्वको उत्पन्न करनेवाले ) किंतु स्वयं अयोनि, विश्वके प्रारम्भमें विद्यमान पर स्वयं अनादि, फिर भी विश्वके आदि, वर देनवाले वरणीय हरि, सर्वश्रेष्ठोंमें भी परम ( श्रेष्ठ ), बड़े - छोटे सज्जनोंकी गति, मानोंके भी प्रमाणभूत प्रभु, सातों लोकोंके गुरुओंके भी गुरु एवं चिन्तनमें न आने योग्य विश्वके स्वामी मर्यादा ( धर्महेतु ) - की स्थापना करनेके लिये ( अदितिके ) गर्भमें आ गये हैं । प्रभुओंके प्रभु, श्रेष्ठोंमें श्रेष्ठ, आदिमध्यसे रहित, अनन्त भगवान् तीनों लोकोंको सनाथ करनेके लिये अदितिके पुत्रके रुपमें अंशावतारस्वरुपसे अवतीर्ण हुए हैं ॥१६ - १९॥
दैत्यपते ! जिन वासुदेव भगवानके वास्तविक स्वरुपको रुद्र, ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य, चन्द्र एवं मरीचि आदि श्रेष्ठ पुरुष नहीं जानते, वे ही वासुदेव भगवान् अपनी एक कलासे अवतीर्ण हुए हैं । वेदके जाननेवाले जिन्हें अक्षर कहते हैं तथा ब्रह्मज्ञानके होनेसे जिनके पाप नष्ट हो गये हैं - ऐसे निष्पाप शुद्ध प्राणी जिनमें प्रवेश पाते हैं और जिनके भीतर प्रविष्ट हुए लोग पुनः जन्म नहीं लेते - ऐसे उन वासुदेव भगवानको मैं प्रणाम करता हूँ । समुद्रकी लहरोंके समान जिनसे समस्त जीव निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं तथा प्रलयकालमें जिनके भीतर विलीन हो जाते हैं, उन अचिन्त्य वासुदेवको मैं प्रणाम करता हूँ । ब्रह्मा आदि जिन परम पुरुषके रुप, बल, प्रभाव और प्रतापको नहीं जान पाते उन वासुदेवको मैं नित्य प्रणाम करता हूँ ॥२० - २३॥ 
जिन परमेश्वरने रुप देखनेके लिये आँखोंको, स्पर्शज्ञानके लिये त्वचाको, खट्टे - मीठे स्वाद लेनेके लिये जीभको और सुगन्ध - दुर्गन्ध सूँघनेके लिये नाकको नियत किया हैं; पर स्वयं उनके नाक, आँख और कान आदि नहीं हैं । जो वस्तुतः स्वयं प्रकाशस्वरुप हैं, वे सर्वेश्वर युक्तिके द्वारा ( कुछ - कुछ ) जाने जा सकते हैं; उन सर्वसमर्थ, स्तुतिके योग्य, किसी भी प्रकारके मलसे रहित, ( भक्तिसे ) ग्राह्य, ईश हरिदेवको मैं प्रणाम करता हूँ । जिनके द्वारा एक मोटे तथा बड़े दाँतसे निकाली गयी चिरस्थायिनी पृथ्वी सभी कुछ धारण करनेमें समर्थ है तथा जो समस्त संस्कारको अपनेमें स्थान देकर सोनेका स्वाँग धारण करते हैं, उन स्तुत्य ईश विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ । जिन्होंने अपने अंशसे अदितिके गर्भमें आकर महासुरोंके तेजका अपहरण कर लिया, उन समस्त संसाररुपी वृक्षके लिये कुठाररुप धारण करनेवाले अनन्त देवाधीश्वरको मैं प्रणाम करता हूँ । हे महासुरो ! जगतकी उत्पत्तिके स्थान वे ही महात्म देव अपने सोलहवें अंशकी कलासे इन्द्रकी माताके गर्भमें प्रविष्ट हुए हैं और उन्होंने ही तुम लोगोंके शारीरिक बलको अपहत कर लिया है ॥२४ - २८॥
बलिने कहा - तात ! जिनसे हम सबको डर है वे हरि कौन हैं ? हमारे पास वासुदेवसे अधिक शक्तिशाली सैकड़ों दैत्य हैं; जैसे - विप्रचिति, शिबि, शङ्कु, अयः शंकु, हयशिरा, अश्वशिरा, ( विघटन करनेवाला ) भङ्गकार, महाहनु, प्रतापी, प्रघश, शम्भु कुक्कुराक्श एवं दुर्जय । ये तथा अन्य भी ऐसे अनेक दैत्य एवं दानव हैं । ये सभी महाबलवान्‍ तथा महापराक्रमी एवं पृथ्वीके भाराको धारण करनेमें समर्थ हैं । कृष्ण तो हमारे इन बलवान् दैत्योंमेंसे पृथक - पृथक एक - एकके आधे बलके समान भी नहीं हैं ॥२९ - ३२॥ 
लोमहर्षणने कहा - अपने पौत्रकी इस उक्तिको सुनकर दैत्यश्रेष्ठ प्रह्लाद कुद्ध हो गये और भगवानकी निन्दा करनेवाले बलिसे बोले - बलि ! तेरे - जैसे विवेकहीन एवं दुर्बुद्धि राजाके साथ ये सारे दैत्य एवं दानव मारे जायँगे । हे पापको ही सोचनेवाले पापबुद्धि ! तुम्हारे सिवा ऐसा कौन है, जो देवाधिदेव महाभाग अज एवं सर्वव्यापी वासुदेवको इस तरह कहेगा ॥३३ - ३५॥ 
तुमने जिन - जिनका नाम लिया है, वे सभी दैत्य एवं दानव तथा ब्रह्माके साथ सभी देवता एवं चराचरकी समस्त विभूतियाँ, तुम और मैं, पर्वत तथा वृक्ष, नदी और वनसे युक्त सारा जगत् तथा समुद्र एवं द्वीपोंसे युक्त सम्पूर्ण लोक तथा चर और अचर जिन सर्ववन्द्य श्रेष्ठ सर्वव्यापी परमात्माके एक अंशकी अंशकलासे उत्पन्न हुए हैं, उनके विषयमें विनाशकी ओर चलनेवाले विवेकहीन, मूर्ख, इन्द्रियोंके गुलाम, वृद्धोंके आदेशोंका उल्लङ्घन करनेवाले तुम्हारी अपेक्षा कौन ऐसा ( कृत्या नामसे ) कह सकेगा ? ॥३६ - ३९॥
मैं ( ही सचमुच ) शोचनीय हूँ, जिसके घरमें तुम्हारा अधम पिता उत्पन्न हुआ, जिसका तुम्हारे - जैसा देवदेव ( विष्णु ) - का तिरस्कार करनेवाला पुत्र है । जो अनेक संसारके समूहोंके प्रवाहका विनाश करनेवाले हैं, ऐसे कृष्णमें भक्तिके लिये तुम्हें क्या मेरा भी ध्यान नहीं रहा । दितिनन्दन ! मेरे विषयमें समस्त संसार एवं तुम भी यह जानते हो कि मुझे यह मेरी देह भी कृष्णसे अधिक प्रिय नहीं है । फिर यह समझते हुए भी कि भगवान् कृष्ण मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय हैं, फिर भी तुम मेरी मर्यादापर ध्यान न देकर ठेस पहुँचाते हुए उनकी निन्दा कर रहे हो । बलि ! तुम्हारा गुरु ( पिता ) विरोचन है, उसका गुरु ( पिता ) मैं हूँ तथा मेरे भी गुरु सम्पूर्ण जगतके स्वामी भगवान् नारायण श्रीहरि हैं ॥४० - ४४॥ 
जिस कारण तुम अपने गुरु ( पिता विरोचन ) - के गुरु ( पिता मैं प्रह्लाद ) - के भी गुरु विष्णुकी निन्दा कर रहे हो, इस कारण तुम यहीं ऐश्वर्यसे भ्रष्ट हो जाओगे । बलि ! वे प्रभु जनार्दनदेव जगतके स्वामी हैं । इस विषयमें मेरा गुरु ( अर्थात् मैं ) भक्तिमान् हूँ, यह विचारकर तुझे मेरी अवहेलना नहीं करनी चाहिये । जिस कारणसे जगदगुरुकी निन्दा करनेवाले तुमने मेरी इतनी भी अपेक्षा नहीं की, इस कारण मैं तुम्हें शाप देता हूँ; क्योंकि बलि ! तुम्हारे द्वारा अच्युतके प्रति अपमानजनित ये वचन मेरे लिये सिर कट जानेसे भी अधिक कष्टदायी हैं, अतः तुम राज्यसे भ्रष्ट होकर गिर जाओ । भवसागरमें भगवान् विष्णुको छोड़कर दूसरा कोई रक्षक नहीं हैं, अतः शीघ्र ही मैं तुम्हें राज्यसे भ्रष्ट हुआ देखूँगा ॥४५ - ४९॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें उन्तीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥२९॥
 

वामन पुराण Vaman Puran

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Chapters
श्रीवामनपुराण - अध्याय १ श्रीवामनपुराण - अध्याय २ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६ श्रीवामनपुराण - अध्याय ७ श्रीवामनपुराण - अध्याय ८ श्रीवामनपुराण - अध्याय ९ श्रीवामनपुराण - अध्याय १० श्रीवामनपुराण - अध्याय ११ श्रीवामनपुराण - अध्याय १२ श्रीवामनपुराण - अध्याय १३ श्रीवामनपुराण - अध्याय १४ श्रीवामनपुराण - अध्याय १५ श्रीवामनपुराण - अध्याय १६ श्रीवामनपुराण - अध्याय १७ श्रीवामनपुराण - अध्याय १८ श्रीवामनपुराण - अध्याय १९ श्रीवामनपुराण - अध्याय २० श्रीवामनपुराण - अध्याय २१ श्रीवामनपुराण - अध्याय २२ श्रीवामनपुराण - अध्याय २३ श्रीवामनपुराण - अध्याय २४ श्रीवामनपुराण - अध्याय २५ श्रीवामनपुराण - अध्याय २६ श्रीवामनपुराण - अध्याय २७ श्रीवामनपुराण - अध्याय २८ श्रीवामनपुराण - अध्याय २९ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३० श्रीवामनपुराण - अध्याय ३१ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३२ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३३ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३४ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३५ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३६ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३७ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३८ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३९ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४० श्रीवामनपुराण - अध्याय ४१ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४२ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४३ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४४ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४५ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४६ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४७ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४८ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४९ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५० श्रीवामनपुराण - अध्याय ५१ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५२ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५३ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५४ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५५ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५६ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५७ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५८ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५९ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६० श्रीवामनपुराण - अध्याय ६१ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६२ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६३ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६४ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६५ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६६ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६७ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६८