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श्रीवामनपुराण - अध्याय ३२


 ऋषियोंने पूछा - ( लोमहर्षणजी ! ) कुरुक्षेत्रमें प्रवाहित होनेवाली नदियोंमें श्रेष्ठ भाग्यशालिनी यह सरस्वती नदी कैसे उत्पन्न हुई ? सरोवरमें जाकर अगलबगलमें ( अपने दोनों तटोंपर ) तीर्थोंकी स्थापना करती हुई दृश्य और अदृश्यरुपसे यह शुभ नदी किस प्रकार पश्चिम दिशाको गयी ? इस सनातन तीर्थ - वंशका विस्तारपुर्वक वर्णन करें ॥१ - २॥
लोमहर्षणने कहा - ( ऋषियो ! ) स्मरण करनेमात्रसे ही नित्य सभी पापोंको नष्ट करनेवाली यह सनातनी श्रेष्ठ ( सरस्वती ) नदी पाकड़ वृक्षसे उत्पन्न हुई है । यह पवित्र जलधारमयी महानदी हजारों पर्वतोंको तोड़ती - फोड़ती हुई प्रसिद्ध द्वैत वनमें प्रविष्ट हुई, ऐसी प्रसिद्धि है । महामुनि मार्कण्डेयने उस प्लक्षवृक्षमें स्थित सरस्वती नदीको देखकर सिरसे ( सिर झुकाकर नम्रतापूर्वक ) प्रणा, करनेके बाद उसकी स्तुति की - हे देवि ! आप सभी लोकोंकी माता एवं देवोंकी शुभ अरणि हैं । देवि ! समस्त सद, असद, मोक्ष देनेवाले एवं अर्थवान् पद, यौगिक क्रियासे युक्त पदार्थकी भाँति आपमें मिलकर स्थित हैं । देवि ! अक्षर परमब्रह्म तथा यह विनाशशील समस्त संसार आपमें प्रतिष्ठित हैं ॥३ - ७॥ 
जिस प्रकार काठमें आग एवं पृथिवीमें गन्धकी निश्चित स्थिति होती है, उसी प्रकार तुम्हारे भीतर ब्रह्म और यह सम्पूर्ण जगत नित्य ( सदा ) स्थित हैं । देवि ! जो कुछ भी स्थिर ( अचर ) तथा अस्थिर ( चर ) है, वह सब ओंकार अक्षरमें अवस्थित है । जो कुछ भी अस्त्वित्वयुक्त है या अस्तित्वविहीन, उन सबमें ओंकरकी तीन मात्राएँ ( अनुस्यूत ) हैं । हे सरस्वति ! भू; भुवः, स्वः - ये तीनों लोक; ऋक, यजुः, साम - ये तीनों वेद; आन्वीक्षिकी, त्रयी और वार्ता - ये तीनों विद्याएँ; गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि - ये तीनों अग्नियाँ; सूर्य, चन्द्र, अग्नि - ये तीनों ज्योतिषां ; धर्म, अर्थ, काम - ये तीनों वर्ग; सत्त्व, रज, तम - ये तीनों गुण; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य - ये तीनों वर्ण; तीनों देव; वात, पित्त, कफ - ये तीनों धातुएँ तथा जाग्रत् , स्वप्न, सुषुप्ति - ये तीनों अवस्थाएँ एवं पिता, पितामह, प्रपितामह - ये तीनों पितर इत्यादि - ये सभी ओंकारके मात्रात्रयस्वरुप आपके रुप हैं । आपको ब्रह्मकी विभिन्न रुपोंवाली आद्या एवं सनातनी मूर्ति कहा जाता है ॥८ - १२॥
देवि ! ब्रह्मवादी लोग आपकी शक्तिसे ही उच्चारण करके सोमसंस्था, हविः संस्था एवं सनातनी पाकसंस्थाको सम्पन्न करते हैं । अर्धमात्रामें आश्रित आपका यह अनिर्देश्य पद अविकारी, अक्षय, दिव्य तथा अपरिणामी है । यह आपका अनिर्देश्य पद परम रुप है, जिसका वर्णन मैं नहीं कर सकता है और न जिह्वा, तालु, ओष्ठ आदिसे ही । तुम्हारा वह रुप ही विष्णु, वृष ( धर्म ), ब्रह्मा, चन्द्रमा, सूर्य एवं ज्योति है । उसीको विश्वावास, विश्वरुप, विश्वात्मा एवं अनीश्वर ( स्वतन्त्र ) कहते हैं ॥१३ - १६॥ 
आपका यह रुप सांख्य - सिद्धान्त तथा वेदद्वारा वर्णित, ( वेदोंकी ) बहुत - सी शाखाओंद्वारा स्थिर किया हुआ, आदि - मध्य - अन्तसे रहित, सत - असत अथवा एकमात्र सत ( ही ) है । यह एक तथा अनेक प्रकारका, वेदोंद्वारा एकाग्र भक्तिसे अवलम्बित, आख्या ( नाम ) - विहीन, ऐश्वर्य आदि षडगुणोंसे युक्त, बहुत नामोंवाला तथा त्रिगुणाश्रय है । आपका यह तत्त्वगुणात्मक रुप सुखसे भी परम सुख, महान् सुखरुप नाना शक्तियोंके विभावको जाननेवाला है । हे देवि ! वह अद्वैत तथा द्वैतमें आश्रित ' निष्कल ' तथा ' सकल ब्रह्म ' आपके द्वारा व्याप्त है ॥१७ - २०॥ 
( सरस्वती ) देवि ! जो पदार्थ नित्य हैं तथा जो विनष्ट हो जानेवाले हैं, जो पदार्थ स्थूल हैं तथा जो सूक्ष्म हैं, जो भूमिपर हैं तथा जो अन्तरिक्षमें हैं या जो इनसे भिन्न स्थानोंमें हैं, उन समस्त पदार्थोंकी प्राप्ति आपसे ही होती है । जो मूर्त या अमूर्त है वह सब कुछ और जो सब भूतोंमें एक रुपसे स्थित है एवं केवल एकमात्र है और जो द्वैतमें अलग - अलग रुपसे दिखलायी पड़ता है, वह सब कुछ आपके स्वर - व्यञ्जनोंसे सम्बद्ध है । इस प्रकार स्तुति किये जानेपर विष्णुकी जीभरुपिणी सरस्वतीने महामुनि महात्मा मार्कण्डेयसे कहा - हे विप्र ! तुम मुझे जहाँ ले जाओगे, मैं वहीं आलस्य छोड़कर चली जाऊँगी ॥२१ - २३॥ 
मार्कण्डेयने कहा - आरम्भमें ( इसका ) पवित्र नाम ब्रह्मसर था, फिर रामह्नद प्रसिद्ध हुआ एवं उसके बाद कुरु ऋषिद्वारा कृष्ट होनेसे कुरुक्षेत्र कहा जाने लगा । ( अब ) उसके मध्यमें अत्यन्त पवित्र जलवाली गहरी सरस्वती प्रवाहित हों ॥२४॥ 
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें बत्तीसवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥३२॥
 

वामन पुराण Vaman Puran

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Chapters
श्रीवामनपुराण - अध्याय १ श्रीवामनपुराण - अध्याय २ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६ श्रीवामनपुराण - अध्याय ७ श्रीवामनपुराण - अध्याय ८ श्रीवामनपुराण - अध्याय ९ श्रीवामनपुराण - अध्याय १० श्रीवामनपुराण - अध्याय ११ श्रीवामनपुराण - अध्याय १२ श्रीवामनपुराण - अध्याय १३ श्रीवामनपुराण - अध्याय १४ श्रीवामनपुराण - अध्याय १५ श्रीवामनपुराण - अध्याय १६ श्रीवामनपुराण - अध्याय १७ श्रीवामनपुराण - अध्याय १८ श्रीवामनपुराण - अध्याय १९ श्रीवामनपुराण - अध्याय २० श्रीवामनपुराण - अध्याय २१ श्रीवामनपुराण - अध्याय २२ श्रीवामनपुराण - अध्याय २३ श्रीवामनपुराण - अध्याय २४ श्रीवामनपुराण - अध्याय २५ श्रीवामनपुराण - अध्याय २६ श्रीवामनपुराण - अध्याय २७ श्रीवामनपुराण - अध्याय २८ श्रीवामनपुराण - अध्याय २९ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३० श्रीवामनपुराण - अध्याय ३१ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३२ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३३ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३४ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३५ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३६ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३७ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३८ श्रीवामनपुराण - अध्याय ३९ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४० श्रीवामनपुराण - अध्याय ४१ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४२ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४३ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४४ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४५ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४६ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४७ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४८ श्रीवामनपुराण - अध्याय ४९ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५० श्रीवामनपुराण - अध्याय ५१ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५२ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५३ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५४ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५५ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५६ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५७ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५८ श्रीवामनपुराण - अध्याय ५९ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६० श्रीवामनपुराण - अध्याय ६१ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६२ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६३ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६४ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६५ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६६ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६७ श्रीवामनपुराण - अध्याय ६८