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राजा परीक्षित

अभिमन्यु की शहादत की एक रात पूर्व परीक्षित उत्तरा के गर्भ में आये। कौरव और पाण्डव दोनों कुलों के एक मात्र परीक्षित ऐसे उत्तराधिकारी थे, जो महाभारत में बच गये। हस्तिनापुर और इन्द्रप्रस्थ दोनों के भावी सम्राट परीक्षित ऐसी विभूति थे, जिनके गर्भवास के ही समय भगवान को इन्हें ब्रह्मास्त्र से बचाने के लिये उत्तरा के गर्भ में पूरे गर्भकाल तक रहना पड़ा! ऐसी तेजस्वी सन्तान थे परीक्षित। धृतराष्ट्र और गान्धारी अपने मृत पुत्रों की करुण स्मृति में डूबे परीक्षित में सबको पाते थे। सुभद्रा और उत्तरा परीक्षित में अभिमन्यु को खोजती-पाती थी। द्रौपदी अपने मृत पुत्रों को परीक्षित में ढूँढ़ती थी। राजधानियाँ हस्तिनापुर और इन्द्रप्रथ अपने राजवंश के उत्तराधिकार परीक्षित में खोजती थी। सारा राष्ट्र परीक्षित में अपना भावी सम्राट खोजता था। परीक्षित इस प्रकार सर्वप्रिय जनप्रिय सबकी हृदय की धड़कन थे। परीक्षित ऐसी विभूति थे जो द्वापर में भी थे और कलियुग में थी। प्रलय के बाद द्वापर का अंत हुआ, पर परीक्षित का अन्त प्रलय भी नहीं कर सका और प्रलय द्वारा द्वापर के अन्त पर कलियुग के आरंभ-दो युगों के राज्य शृष्टि के इतिहास में केवल परीक्षित हैं, जिनका राज्यारोहण द्वापर में हुआ और कलियुग में शासन किया।

द्वापर की विदाई और कलियुग का समारंभ और दोनों के बीच का प्रलय! परीक्षित सम्राट के रूप में इन तीनों स्थितियों में गरिमा के साथ सम्राट रूप में उपस्थित! द्वापर के अन्त और प्रलय के दिन से पहले भगवान कृष्ण अपने धाम पधारे। यह समाचार सुनकर सबसे पहले कुन्ती ने देह त्याग किया। युधिष्ठिर ने भीम के नेतृत्व में राजमाता के चितारोहण और अर्जुन के नेतृत्व में परीक्षित का राज्यारोहण-अवसाद और आनन्द के दो विरोधी आयोजन एक साथ एक समय एक ही राजधानी में सम्पन्न करने का शासनादेश जारी किया। शवयात्रा में सम्मिलित मंत्रि परिषद के एक सदस्य ने अभिभूत होकर सम्राट युधिष्ठिर से कहा-'धन्य हैं आप, जो एक साथ राजमाता के चितारोहण और युवराज परीक्षित के राज्यारोहण आयोजित किये हैं। मनस्वी सम्राट ही ऐसा कर सकते हैं। युधिष्ठिर ने कहा-'नहीं! हमारे जैसा निकृष्ट कौन हो सकता है, जो कृष्ण के स्वधाम जाने के बाद भी नियंजनों की तरह सांसारिक प्रपंचों के बोझ ढो रहा है!

कृष्ण के बिना जीवित हूँ-इसी से ऐसे हृदय विदारक आयोजनों के मानसिक आघात झेल रहा हूँ। धन्य तो हैं राजमाता, जो कृष्ण के बिना एक क्षण एक श्वास भी ग्रहण नहीं की! राजमाता चिता पर रखी गयीं। शोकध्वनि बजायी गयी और चिता में आग की लपटें उठी और कुन्ती की ऐहिक कायाः भस्मसात हो गयी। चिताभूमि कुछ २१ करुण दृश्य था। परीक्षित राजा बनने को तैयार ही नहीं थे। वे अपने पितामह पाण्डवों की सेवा में उनके साथ वन जाना चाहते थे। उन्हें लग रहा था कि उनके किसी अपराध के कारण पितामहगण परीक्षित का त्याग कर रहे थे। परीक्षित का पक्ष था-बिना पिता की गोद देखे पितामहों की गोद में अभी वे पले हैं, सीख नहीं पाये कि इनका त्याग पाण्डव क्यों कर रहे हैं? पिता का अभाव परीक्षित से कम पाण्डवों को क्या कम खला था! सम्राट पद उन्हें दण्ड लग रहा था। पाण्डवों का पक्ष था-परीक्षित सिंह-शावक हैं। हृदयवीर! मोहासक्त भाषा से बचें। कर्त्तव्य पथ पर बढ़े।

पिता-पितामह संरक्षक उतना नहीं होते, जितना कि शास्त्र, विधि-व्यवस्था, न्याय, धर्म और आचार-संहितायें। अन्ततः परीक्षित भावी सम्राट को तत्कालीन वर्तमान सम्राट युधिष्ठिर ने अपना राजमुकुट पहना दिया और मौन रहे। नये सम्राट का राज्यारोहण हुआ ही था कि पाँचों पाण्डव सदा सदा के लिये राज-पाट छोड़कर निकल पड़े प्राणोत्सर्ग के लिये। परीक्षित भी बिलखते हुए उनके साथ उन्हें लौटाने बढ़े, पर, सब व्यर्थ! पाण्डव अंधे, बहरे, गूंगे हो गये थे। जनता का क्रन्दन, परीक्षित के आँसू उन्हें लौटाने में असमर्थ सिद्ध हुए। पाण्डवों के प्राणोत्सर्ग की यात्रा ‘महाप्रस्थान' के नाम से जानी गयी। इस महाप्रस्थान में पाण्डवों ने व्रत लिया था-बिना खाये-पिये, रूके, विश्रामविहीन तब तक चलते जायेंगे, जब तक शरीर गिरकर निष्प्राण नहीं हो जाता। वाणी से मौन, नेत्रों से अन्धे, कानों से बहरे जैसे ये चलते जायेंगे। द्रौपदी हताश विलाप करती दौड़ी, पर किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। द्रौपदी का हृदय सहन नहीं कर सका और पहला प्राणोत्सर्ग द्रौपदी ने किया। एक-एक कर सारे पाण्डव गिरते चले गये। अकेले युधिष्ठिर ही सप्राण-सशरीर स्वर्ग तक पहुँचे। उत्तर की पुत्री इरावती से परीक्षित का विवाह हुआ, जिनसे जनमेजय आदि चार पुत्र हुए। परीक्षित ने भद्राश्व, केतुमाल, भारत, उत्तरकुरु और किम्पुरुष आदि सभी वर्षों को जीतकर वहाँ के राजाओं से भेंट ली। परीक्षित का शासनकाल राष्ट्र के पुनर्निमाण का काल था। महाभारत ने घर-घर को विधवाओं के क्रन्दन का निवास बना डाला था। परीक्षित जहाँ भी जाते, सबके आँसू पोंछते, पुनर्वास की समस्यायें सुलझाते निजी सुख- दुःख के अवसर ही नहीं पाते थे।

कलियुग के प्रदूषणों को देशनिकाला दे दिया था परीक्षित ने। एक बार देखा कि एक राजवेशधारी शूद्र हाथ में डंडा ले कर गाय-बैल के युगल को पीटता जा रहा है, जैसे वे दोनों अनाथ हों। बैल श्वेत रंग का एक पैर पर खड़ा काँपता डर से मलमूत्र त्याग कर रहा था गाय भी उस शूद्र की ठोकरों से दीन-हीन खड़ी थी। वृषभ के चार चरण तप, पवित्रता; दया और सत्य थे। इन चार चरणों में से गर्व से तप, आसक्ति बच रहा था। परीक्षित तत्वज्ञ थे-उन्होंने कहा-आप वृषभ रूप में निश्चित ही धर्म हैं। परीक्षित अधर्मरूप राजचिह्नधारी को मारने के लिए तलवार उठाया तो उसने राजसी वेष त्याग कर कहा-मैं कलियुग हूँ। मैं परीक्षित महाराज ! आपकी शरण हूँ! शरणागत वत्सल परीक्षित तत्वज्ञ थे। बोले-तुम्हें चार स्थान देता हूँ - द्यूत, मद्यपान, स्त्रीसंग और हिंसा। कलियुग ने और स्थान मांगे तो परीक्षित एक स्थान फिर दिया- सुवर्ण (धन)। परीक्षित अब दिग्विजय में निकल पड़े। वृषभ के तीनों चरण परीक्षित ने जोड़ दिये थे। एक दिन राजमुकुट में कलियुग प्रवेश कर गया। परीक्षित उसके वश में मात्र मुकुट धारण के चलते मस्तिष्क और विचार के क्षेत्र में आकर शिकार खेलने गहन वन में प्रवेश कर गये। भूख-प्यास और थकान से चूर्ण राजा परीक्षित ने एक आश्रम देखा। यह आश्रम था महर्षि शमीक का। वहाँ ये जब पहुँचे तो महर्षि शमीकध्यानस्थ थे, जिससे उन्हें पता नहीं चला कि उनके पास राजा परीक्षित पधारे हैं। कलि के वश परीक्षित के मस्तिष्क ने उनके हृदय में भावना जगायी-यह ध्यान का ढोंग किया गया है।

क्षुब्ध राजा ने एक मृत सर्प धनुष के कोण से उठाकर शमीक के कंठ में माला की तरह लपेट दिया और आश्रम से भूखे-प्यासे ही निकल पड़े, राजधानी पहुँचे। भूखे-प्यासे राजा ने मुकुट उतार कर रखा, अभी कुछ खाते-पीते कि उसके पूर्व ही उनके आत्मस्थ मस्तिष्क में पवित्रभाव जगा-एक महात्मा का ऐसा गर्हित अपमान उनसे कैसे हो गया। आत्मग्लानि से भरे राजा दुःखी हो बैठकर पश्चात्ताप करने लगे-बिना खाये-पीये। उधर शमीक पुत्र बालक शृंगी योग क्रीड़ा कर रहे थे। कुछ बालकों ने शमीक-कंठ में नाग लिपटा देखकर भय से हल्ला किये- साँप-साँप, महर्षि को लपेटे काटने को उद्यत है। दौड़े श्रृंगी ने साँप को पकड़ा तो वह मरा हुआ मिला। उसे फेंक दिया शृंगी ने और जल लेकर शाप दिया-'आज से सातवें दिन तक्षक नाग उसे डसेगा, जिसने इनके पिता के कंठ में मृत सर्प डालने की धृष्टता की है। आश्रम में खोज हुई कौन था आया? तब तक महर्षि शमीक भी ध्यान से जाग चुके थे।

पता चला परीक्षित पधारे थे। महर्षि शमीक ने शृंगी को समझाया तुममें इतनी उत्तेजना कैसे आ गयी? राजा को विषपान का शाप? उसके चलते हम निर्विघ्न सारे अनुष्ठान करते रहते हैं, उसका आतिथ्य करने की जगह उसे शाप? आत्मस्थ होकर महर्षि ने देखा तो राजा का प्रारब्ध था नागविष से निधन। उन्होंने आश्रम से दो शिष्यों को राजा परीक्षित के पास शाप की सूचना और तक्षक-दंश से मृत्यु का संदेश प्रेषित किया। समाचार सुनकर से बिना खाये- पिये, राज्यसिंहासन छोड़ गंगा के तट पर बैठ गये। शुकदेव जी पधारे और श्रीमद्भागवत सुनाकर सात दिन में इनके मन और प्राण भगवान श्रीकृष्ण पर परीक्षित नहीं, उनके निष्प्राण शरीर में उसका नागविष फैला। शरीर जलकर राख हो गया। एक बालयोगी ने शाप दिया मरने का, दूसरे बालयोगी ने मरने से बचाकर मृत्युंजयी बनाकर प्राणों को भगवदार्पित परीक्षित का करवा दिया।

दोनों बालयोगियों-शृंगी और शुकदेव- भारतीय संस्कृति के अनुपम उदाहरण हैं। परीक्षित क्षत्रिय थे, इन्हें मृत्यु का भय नहीं था। एक दिन तो सबको मरना ही है। प्रश्न है, नाग विष से मृत्यु होने पर पचास हजार वर्ष तक प्रेत योनि में रहना होता उन्हें। उन्होंने ऐसा कोई पाप नहीं किया था, फिर ऐसा दंड क्यों? न्याय के सिद्धांतों की अग्नि-परीक्षा थी यह। भगवान श्रीकृष्ण को प्राण अर्पित कर योगचर्या द्वारा नागदंश से बिना मरे, प्राणों को पहले ही प्राणायाम द्वारा कृष्ण ध्यान में अर्पण कर परीक्षित मरे नहीं, मुक्त हुए और इस तरह भारतीय संस्कृति का एक अप्रतिम इतिहास बनकर उदाहरण के रूप में जगमगाते चले आ रहे हैं।

(फणीन्द्र नाथ चतुर्वेदी के लेख)