काशी के घाट
आज सवेरे ही गाइड मेरी बैरक में पहुँचा। मैं चाय पी रहा था। बोला - 'चलिये, आज घाट की सैर आपको करा दूँ।' मैंने कहा - 'इतने तड़के वहाँ कौन होगा, सर्दी से मुँह में चाय जमी जा रही है।' वह बोला - 'इसी समय तो वहाँ लोग स्नान करने जाते हैं। यही तो वहाँ चलने का समय है।'
मैं भी किसी प्रकार तैयार हुआ। परन्तु सर्दी में इसी समय चलना मुझे ऐसा जान पड़ा मानो फाँसी के तख्ते पर जा रहा हूँ। सावन की झड़ी के समान बमों की वर्षा हो रही हो, उसके बीच मैं खड़ा हो सकता हूँ, नंगे बदन नागफनी की झाड़ी में लोट सकता हूँ और पागल हाथी की सूँड़ में चिकोटी काट सकता हूँ किन्तु जाड़े में सवेरे उठना तो एक सपना है और जाड़े में नहाना तो भले आदमियों का काम ही नहीं है।
मोटर कार पर मैं चला - आगे गाइड बैठा था। काशी में देखा - सभी सवेरे ही उठते हैं। पहले तो यहाँ के मेहतर भी बहुत तड़के उठते हैं और सोचते हैं कि जब हम उठते हैं तब सड़कों को भी जगा देना चाहिये और दोनों हाथों में झाड़ू लेकर सड़कों पर ऐसा चलाते हैं जैसे क्रूसेड के युद्ध में मुसलमान सिपाही तलवार भाँजते थे।
मैंने एकाएक देखा कि मेरी मोटर कार बादलों में से चल रही है परन्तु शीघ्र ही पता चला कि यह बादल नहीं बनारस, जिसे हिन्दू लोग काशी कहते हैं और जो उनका पवित्र नगर माना जाता है यह बादल उसी पवित्र नगरी की पवित्र रज है। काशी की म्यूनिसपैलिटी इसके लिये बधाई की पात्र है क्योंकि मेरे ऐसे विदेशी व्यक्तियों को यह पवित्र मिट्टी कैसे मिलती?
घाट के किनारे पहुँचा तो कई नाववाले सामने आये और उन्होंने मुझे सलाम किया मानो मेरा-उनका दस-पन्द्रह साल पुराना परिचय हो। यद्यपि मैं हिन्दुस्तानी जानता था, फिर भी बातचीत गाइड ही करता रहा। तीन रुपये पर एक छोटी-सी नौका मिली। ऊपर के भाग पर दो कुर्सियाँ रख दी गयीं। कुर्सियाँ बेंत की बनी थीं और पीछे उसी बेंत का ही ऊँचा, लम्बा तकिया बना था। मेरी बगल में गाइड बैठा।
पूरब में सूरज निकलने लगा था। मैं अपने फौजी ओवरकोट में लिपटा हुआ था। देखा कि अनेक लोग पानी में झम्-झम् कूद रहे हैं। यदि मेरे हाथ में होता तो मैं इन्हें विक्टोरिया क्रास अवश्य देता। यह स्नान नहीं, वीरता और साहस का परिचय था। पुरुषों से अधिक स्त्रियाँ स्नान कर रही थीं। ऐसी वीर महिलायें हैं, तब न इनकी संतान बेल्जियम और फ्रांस के मैदान में अपनी छाती से गोली रोकती है।
मैंने घाटों पर इतने रंग की साड़ियाँ देखीं कि उनका वर्णन किया जाये तो एक अलग से डायरी उसी की बन जाये। गाइड प्रत्येक घाट के सम्बन्ध में कुछ न कुछ बताता जा रहा था किन्तु मैं तो घाट के नहानेवालों की ओर अधिक आकर्षित था।
एक घाट की ओर दिखाकर बताया गया कि यहाँ केवल मुसलमान स्नान करते हैं। जान पड़ता है, गंगा का जल मुसलमानों को पवित्र नहीं कर सकता, परन्तु वह गंगाजल को अपवित्र कर सकते हैं।
एक स्थान पर मुर्दे जल रहे थे। बड़ी-बड़ी लपटें निकल रही थीं। मेरी समझ में मुर्दा जला देने में एक बड़ी हानि हो जाती है। कब्र में उनका शरीर खाद का काम दे सकता है। जान पड़ता है मुसलमानों और अंग्रेजों के नेता कृषि-विज्ञान के बड़े पंडित थे, इसलिये उन्होंने अपने मुर्दे पृथ्वी के नीचे रख देने की व्यवस्था कर दी जिसमें धरती बराबर उपजाऊ बनती रहे। जिस धरती के अन्न से शरीर बना है, उसी धरती को फिर यह शरीर दे देना भी ठीक ही है।
गंगा के दूसरे तट पर विशाल बालू की बेला है। बड़ी दूर तक रेती फैली हुई है। मैंने देखा कि अनेक लोग मिट्टी का एक पात्र हाथ में लिये उधर जा रहे हैं। मैंने पूछा - 'यह लोग कहाँ जा रहे हैं?' उसने बड़ी काव्यमय भाषा में उनका वर्णन किया और बोला कि काशी का वास्तविक स्वरूप यही है। इतनी बातों से काशी जानी जाती है - संस्कृत विद्या के भंडार से, लोगों की मस्ती से, सड़क पर तीन-तीन फुट के गड्ढों से और प्रातःकाल गंगा पार के इस दृश्य से। और बातें तो सभी नगरों में मिलेंगी परन्तु यह यहाँ की विशेषता है।
आज की चहल-पहल से जान पड़ता था कि दंगे का आतंक अब नगर में नहीं रहा। आठ बजे के लगभग मैं नौका से उतरा और विश्वनाथ के मन्दिर की ओर चला। अनेक व्यक्ति चिथड़ों से सुसज्जित मेरे पीछे-पीछे चलने लगे। उनकी सब बातें तो मैं नहीं समझ सका; इतना जान गया कि वह भिखमंगे हैं। गाइड ने बताया कि इनमें प्रत्येक भिखमंगा लखपति है। इसलिये मैंने कुछ दिया नहीं; यद्यपि मेरा मन कुछ देने का अवश्य था।
काशी में भिखमंगों की भी संख्या उतनी ही है जितनी इस देश में नेताओं की।
विश्वनाथजी की गली में पैठा। मैंने समझा कि थरमापिली के दर्रे की यह नकल की गयी है। साँड़ वहाँ इतनी स्वतन्त्रता से घूम रहे थे जैसे पुरानी खाट में खटमल घूमते हैं। परन्तु खटमल छोटा जन्तु होने पर भी बड़े-बड़ों के रक्त चूस लेता है और यह इतने विशालकाय, पर देखा कि छोटे-छोटे बालक भी इनकी पीठ सहलाते चले जा रहे हैं!
फिर मैंने विश्वनाथजी का भव्य कलश देखा जो स्वर्ण से मंडित था। भारतवासी विचित्र बुद्धि के होते हैं। इतना सोना इम्पीरियल बैंक में न रखकर मन्दिर के कलश में लगा दिया! सवेरे जब सूर्य की किरण उस पर पड़ने लगी तक ऐसा मेरा मन लालच से लुभा गया कि सच कहता हूँ जी हुआ कि इसे खुरच कर ले चलूँ।
मैंने मन्दिर के भीतर देखने की इच्छा प्रकट की, किन्तु पता चला कि भीतर कोई जा नहीं सकता। हिन्दुओं ने ऐसा क्यों किया? सम्भव है, कोई षड्यंत्र इसके भीतर यह लोग रचते हों। परन्तु गाइड से पता लगा कि केवल धार्मिक भावनाओं के कारण उसमें कोई अहिन्दू नहीं जा सकता। उसके बाद एक स्थान में गाइड ले गया जहाँ मिठाइयों की दुकानें लगातार पंक्तियों में थीं।
यहाँ जान पड़ा कि काशी की मक्खियाँ और स्थानों की मक्खियों से भिन्न हैं। क्योंकि यह मिठाइयों और खाने के पदार्थों पर वह बड़ी स्वतन्त्रता से आक्रमण कर रही हैं। यदि इनसे कोई रोग उत्पन्न होने का भय होता तो लोग उन पर बैठने न देते। मेरी इच्छा हुई कि इनके कुछ अंडे विलायत भेज दूँ, कि वहाँ ऐसी ही मक्खियाँ रहें। खाने में धुएँ का भी पर्याप्त भाग रहता है। और सारी मिठाइयाँ धुएँ से इतनी स्नात हो जाती हैं कि वह जर्मप्रूफ हो जाती हैं।
हम लोगों को विशेष चेतावनी रहती है कि किसी स्थान का भोजन न किया जाये जो बैरक से बाहर हो। बाहर केवल अंग्रेजी होटलों में ही हम लोग खा-पी सकते हैं। किन्तु मेरी इच्छा कुछ भारतीय मिठाइयाँ खाने की हुई। एक दुकान पर जो और दुकानों से अधिक स्वच्छ थी, हम लोग गये और गाइड से कहा कि कुछ काशी की मिठाइयों का यदि स्वाद मिल जाये तो मैं उसकी स्मृति अपने साथ ले जाऊँगा।