लन्दन को वापस
आज मुझे तीन बजे जहाज पर सवार होकर लन्दन लौट जाना है। दो साल की छुट्टी मिल गयी। सब सामान ठीक है। आज आखिरी बार पापड़ खा रहा हूँ। दो साल के बाद क्या होता है कौन जाने। दो साल मैं भारत में रहा। इतने में चार बार मलेरिया हुआ, ग्यारह बार अधकपारी हुई, सैंतीस बार जुकाम हुआ। यहाँ की फस्ल, अण्डे और दूध देखकर तो यही लालच होता है कि यहीं बस जाऊँ; किन्तु स्वास्थ्य के लिये क्या किया जाये? वैज्ञानिक लोग कुछ ऐसी व्यवस्था नहीं करते जिससे अंग्रेज लोग भारत में बस सकें।
इंग्लैंड लौटने पर मुझे अवकाश तो कम मिलेगा। वहाँ इस बात पर पार्लियामेंट में जोर दिलाना है कि सरकारी नौकरियाँ अधिकांश मुसलमानों को मिलनी चाहिये। बेयरा से लेकर मिनिस्टर तक और इक्केवान से लेकर कप्तान तक यह सफलता से काम कर सकते हैं। हिन्दू नौकर तो हमारे गिलास साफ करने में आनाकानी करता है। मुसलमान लोग बात भी बड़ी मधुर करते हैं, तबीयत खुश हो जाती है।
दूसरी बात का वहाँ मुझे यह प्रचार करना है कि सेना इस देश में कम है। भारतीय सेना पर कुछ विश्वास नहीं करना चाहिये। अंग्रेजी पर्याप्त संख्या में यहाँ होनी चाहिये। प्रत्येक सोल्जर को ढाई सौ रुपया और भोजन देने की व्यवस्था हो जाये तो वह अपना देश छोड़कर आ सकेंगे। भारत में रुपया मिलना कुछ कठिन नहीं है। सोने की खान अफ्रीका और आस्ट्रेलिया में हैं, किन्तु भारत का घर-घर बैंक है, जहाँ स्वर्ण का लदान लदा है। यहाँ लोग दूसरों की हुकूमत से प्रसन्न होते हैं। जब मैं यहाँ आया तब मैंने यहाँ की अवस्था देखकर यह विचार किया था कि यहाँ के लोगों पर ब्रिटिश शासन करना जबरदस्ती है। दूसरों पर शासन क्यों किया जाये। किन्तु यहाँ का इतिहास पढ़ने पर ज्ञात हुआ कि इस देश पर सदा से दूसरे शासन करते आये हैं। यहाँ के लोग नंगे पेड़ के खोखलों में रहते थे। एक प्रकार की भाषा बोलते थे जिसका नाम 'सैंसकृट' बाद में पड़ा। यह दो शब्दों में मिलकर बना है; 'सैंस' फ्रेंच शब्द है जिसका अर्थ है बिना, बगैर और 'कृट' शब्द ग्रिट से बिगड़कर बना है जिसका अर्थ है शक्ति, जोर। यह ऐसी भाषा थी जिसमें कुछ जोर नहीं था। आयरलैंड से पैट्रिक एन्जेल जिसे छोटे में 'पैट एन्जेल' कहते थे यहाँ आया और उसने इस भाषा को ठीक किया और उसका व्याकरण भी ठीक किया। उसी आयरलैंड से आइरिन जाति ने भारतवर्ष पर आक्रमण किया। इसके पश्चात् अनेक जातियों ने इस देश पर आक्रमण करके शासन किया। इसी भाँति अंग्रेज भी आये। अंग्रेजों के सामने यहाँ के लोग ठहर न सके, तुरन्त उनकी दासता स्वीकार कर ली। अंग्रेजों ने यहाँ तार, डाक, रेल, सेंट, साबुन, सिगरेट आदि सभ्यता के उपकरण प्रस्तुत किये। मेज पर खाना, खड़े होकर लघुशंका करना, सभ्य कृत्य इन लोगों ने सिखाया। इनसे जो भारतवासी मिलने आये वह भी यही कहते थे कि अंग्रेजी शासक न्यायप्रिय होता है। हिन्दू-हिन्दू का और मुसलमान-मुसलमान का पक्ष लेता है। इन सब कारणों से हम लोगों का यहाँ रहना आवश्यक है। जब हम लोगों ने इतनी बड़ी जनसंख्या को सभ्य बनाने की प्रतिज्ञा की है तब उसे पूरा करना ही होगा। नहीं तो संसार के सम्मुख हम क्या मुँह दिखायेंगे। युद्ध का भी भय है। दूसरी लड़ाई न जाने कब छिड़ जाये। यहाँ के लोग सेना में बड़ी आसानी से भरती हो जाते हैं। यहाँ वाले मैंने देखा भी और सुना भी है कि लड़ने में बड़े तेज होते हैं। मुसलमान-हिन्दू लड़ते हैं, ब्राह्मण-क्षत्रिय लड़ते हैं, वैश्य-शूद्र लड़ते हैं। भाई-भाई लड़ते हैं। सुना है, सभा-समितियों में भी लड़ाई ही होती है। सभासद् और मन्त्री आपस में लड़ा करते हैं। इसका कारण यह बताया जाता है कि इनके यहाँ एक पुस्तक है जिसका नाम है गीता। वह सबको लड़ने की शिक्षा देती है। बड़ी-बड़ी संस्थायें कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिन्दू-सभा सब आपस में लड़ती हैं। यूरोप और भारत में यह अन्तर है कि यूरोप में एक देश दूसरे देश से लड़ते हैं। एक देश के लोग आपस में नहीं लड़ते। भारतवासी दूसरे देश में नहीं लड़ते, अपने ही यहाँ आपस में लड़ते हैं। हमारे यहाँ देश के भीतर बहुत लड़ाई हुई तो मियाँ-बीबी में, जो लड़कर अलग हो जाते हैं जैसे रेल का इंजन टकराकर पीछे हट जाता है। इन कारणों से लड़ाई के लिये भारतवासी बहुत ही उपयुक्त हैं।
आज मैं इस देश से अनेक स्मृतियाँ ले जा रहा हूँ, पुराने समय की कुछ ईंटें ले जा रहा हूँ और कुछ खपड़े, जिससे विवाह की बात चल रही है उसके लिये बनारस का बना सोने के बेलबूटेदार कपड़ा ले जा रहा हूँ। और ले जा रहा हूँ - अखबारों की कतरन जो अंग्रेजी शासन की बुराई में अपने कालम में कालम रंगा करते हैं। मैं इन्हें वहाँ के नेताओं को दिखाऊँगा, शायद यहाँ के सम्पादकों को नहीं पता है कि इन अखबारों को कोई नहीं पढ़ता। फिर भी इस प्रवृत्ति को रोकना चाहिये। दूसरे देशवाले इससे लाभ उठाते हैं।
मैं अपने देश जा रहा हूँ - अपनी मातृभूमि को। वहाँ अपने माता-पिता से मिलूँगा, अपनी प्रेयसी से मिलूँगा, मित्रों से मिलूँगा। फिर भी न जाने क्यों चित्त कुछ उद्विग्न-सा हो रहा है। कुछ अनमना-सा हो रहा हूँ। इतने दिनों तक मैं यहाँ रहा, जान पड़ता था राज कर रहा हूँ। कभी-कभी कर्नल साहब की गालियाँ सुन लेती पड़ती थीं नहीं तो वह बढ़िया भोजन, ऐसी मस्त करने वाली शराब! कुछ दिनों के लिये इन सब चीजों से विदा। ऐसे भक्त नौकर-चाकर! गालियाँ और मार को भी बिना किसी विरोध के सहन कर लेते हैं, संसार में कहीं नहीं मिलेंगे। जब इस देश की सहनशीलता का ध्यान करता हूँ तब विवश होकर देश के प्रति नतमस्तक हो जाना पड़ता है। इस देश के भिक्षुक और स्त्रियों की दशा देखकर तो दया तक उमड़ आती है। सोचता हूँ, क्या इंग्लैंड में जाकर सत्य बातों को बताऊँ? अपने देश के सुखमय जीवन का अन्त करूँ कि सत्य को छिपाऊँ, क्यों ऐसा द्वन्द्व मन में उठ रहा है? बाइबिल तो कहती है - सत्य बोलो, किन्तु यह भी सोचता हूँ कि दो हजार बरस पहले कही हुई बात क्या आज मानी जाये? कुछ निश्चय नहीं कर पा रहा हूँ। राह में सोचूँगा क्या उचित है। बेयरा कहता है - 'हुजूर लाट साहब हों!' यदि ऐसा हो जाता। जहाज का भोंपा बज रहा है। कुछ दिनों के लिये भारत भूमि विदा! सलाम! ताजमहल होटल सलाम! बम्बई सलाम!