पान
मैं काशी से दूसरे दिन कानपुर के लिये चल पड़ा। हमारे सब सिपाही भी साथ थे। मुझे बनारस का नगर बहुत अच्छा जान पड़ा। इसके दो-तीन कारण थे। एक तो यह कि यहाँ के रहनेवाले बहुत कम पैसे में अपना निर्वाह कर लेते हैं क्योंकि मुझे अधिकांश ऐसे व्यक्ति दिखायी पड़े जिनके शरीर पर एक कपड़ा कमर के नीचे और हल्का ढीला कुछ कोट की भाँति ऊपर थे।
कुछ लोगों को तो गंगा के किनारे मैंने देखा कि स्नान करके कपड़े का एक टुकड़ा ओढ़ कर चल पड़े। यह मैं जाड़े की बात कह रहा हूँ। गर्मी की ऋतु में लोग नंगे ही रहते होंगे, कम से कम घर में। मेरा ऐसा अनुमान है कि बर्लिन के 'नंगे समाज' (न्यूडिस्ट सोसायटी) का प्रचार यदि भारतवर्ष में हो तो सबसे अधिक सदस्य काशी में बनेंगे।
दूसरी बात जो यहाँ की मुझे अच्छी लगी, वह यहाँ की सड़कें। इन पर बहुत कम रुपये व्यय होते होंगे, इसलिये कि म्यूनिसपैलिटी को कम टैक्स लगाना पड़ता होगा और नगरवासियों को आनन्द होता होगा। देखने में ऐसा जान पड़ा कि आधी से अधिक सड़कें उस समय बनी थीं जब हमारी स्वनामधन्या महारानी विक्टोरिया ने प्रथम पुत्र को जन्म दिया था और गाइड से यह पता चला कि फिर उनकी मरम्मत किसी ऐसे समय होगी जब कोई ऐसी ही विशिष्ट घटना होगी। इस प्रकार से व्यर्थ के व्यय से म्यूनिसपैलिटी बच जाती है। कुछ सड़कें ऐसी भी मिलीं जिनमें सरलता से धान की खेती हो सकती है। नागरिक लोग इससे भी लाभ उठायेंगे, इसमें सन्देह नहीं।
तीसरी बात जो यहाँ कि विशेषता है, वह है - पान की दुकानें। कोई सड़क, चौमुहानी, तिमुहानी, नाका, मोड़, चौक ऐसा नहीं जहाँ एक या इससे अधिक पान की दुकानें न हों। बनारस में जितने मन्दिर नहीं उतनी पान की दुकानें हैं। यदि आपको गंगा तट मिले और सड़कों की बीस साल से मरम्मत न हुई हो और अनगिनत पान की दुकानें हों तो समझ लीजिये कि वह नगर काशी है।
मेरी बड़ी इच्छा पान खाने की हुई। कानपुर में तो खा नहीं सकता था। हम लोगों को सभी वस्तुएँ खाना अथवा ऐसे कार्य करना जो भारतवासी करते हैं, वर्जित है क्योंकि कोई ऐसा काम हम लोग नहीं कर सकते जिससे यह लोग समझें कि यह भारतीय हैं अथवा भारतीयों से इन्हें सहानुभूति है। इसीलिये मैंने सोचा कि चलते-चलते यह देखूँ कि इसका स्वाद कैसा होता है और क्यों लोग इसका इतना सेवन करते हैं। इसीलिये चलने के पहले गाइड से मैंने पान मँगाकर खाना चाहा।
अपने देश के रहनेवालों के लिये मैं पान का थोड़ा वर्णन कर देना आवश्यक समझता हूँ। पान एक पत्ता होता है। इसकी शक्ल हृदय की भाँति होती है। इस पत्ते के भीतर चूना, कत्था और सुपारी की कतरन रखी जाती है और फिर उसे मोड़कर डेल्टा की शकल का बनाते हैं; और तब दो या चार एक साथ लोग खाते हैं। मैंने गाइड से सुना कि जो जितना ही अधिक पान खाता है वह उतना ही बड़ा रईस समझा जाता है। बहुत-से लोग इसके साथ तम्बाकू की पत्ती खाते हैं। इसके खाने का पुरुषों पर वही परिणाम होता है जो स्त्रियों को लिपस्टिक लगाने का, अर्थात् अधर लाल हो जाते हैं।
मैंने गाइड से पूछा कि पान यहाँ के लोग क्यों खाते हैं, कब खाते हैं, कैसे खाते हैं? उसने बताया, ''भगवान एक बार पृथ्वी पर मनुष्य का रूप धारण करके आये। उनका नाम था कृष्ण। उनका एक यह स्वभाव पड़ गया कि इधर-उधर से मक्खन, दही, मलाई उठा-उठाकर खा जाते थे। एक बार इसी प्रकार से उन्होंने खाया और उनके ओठों पर मक्खन लगा रह गया और पकड़े गये। लोगों ने मारने को दौड़ाया। यह भागे। भागकर एक कदम्ब के पेड़ के नीचे बड़े दुख में मुँह बनाकर बैठे थे। सुनसान स्थान था। यह बैठे थे। टपाटप आँसू गिर रहे थे। उधर से एक लड़की आयी। इन्हें रोते देखकर उसको दया आ गयी, बोली, ''क्यों रोते हो?'' इन्होंने सारा हाल बता दिया। उसने कहा, ''तो क्या हुआ? इसमें रोने की क्या बात है?'' इन्होंने कहा, ''दुःख इस बात का है कि अब आगे कैसे खाऊँगा। लोग समझेंगे इन्होंने ही खाया है।'' लड़की ने कहा, ''इतनी-सी बात! वह दौड़कर गयी और एक पत्ते में कुछ लपेटकर लायी और बोली, ''इसे खा लो। मुख से दही और मक्खन की सुगन्ध भी नहीं आयेगी और अधर भी लाल हो जायेंगे। कुछ पता नहीं चलेगा। मेरा अधर देखो। यह जो प्रवाल के समान है, इसी के कारण है।'' तबसे कृष्ण महाराज एक डिबिया में पान बाँधकर अपने दुपट्टे में गठियाये रहते थे। जहाँ मक्खन खाया उसके बाद दो बीड़े पान; जहाँ दही खाया, दो बीड़े पान। उस लड़की के सिवाय कोई यह रहस्य जानता नहीं था। तभी से उस लड़की से, जिसका नाम राधा था, कृष्ण की गहरी मित्रता हो गयी।''
महाभारत के युद्ध के पश्चात् कृष्ण ने इसका रहस्य अर्जुन को बताया और तब से सब लोग जान गये और सब लोग पान खाने लगे। जो अधिक धार्मिक हैं वह भगवान की भाँति डब्बा रखते हैं। इसी प्रकार पान का खाना आरम्भ हुआ। यह हिन्दुओं की संस्कृति का चिह्न है। जो नहीं खाते वह आर्य हैं या नहीं, इसमें सन्देह है।
गाइड ने फिर कहा कि खाने का प्रश्न कठिन है। प्रत्येक पाँच मिनट पर खाना तो अति उत्तम है। परन्तु एक-एक घंटे पर भी खाया जा सकता है। गाइड ने यह भी कहा कि मैंने तो वेद पढ़ा नहीं है, किन्तु सुना है कि उसमें लिखा है कि जो दो सौ बीड़े दिन में खाये वह महर्षि है, जो पचास खाये वह ऋषि, जो पच्चीस खाये वह साधु और जो दस तक खाये वह मनुष्य और इससे कम खानेवाले इतर योनियों में।